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सत्ता-परिवर्तन नहीं, व्यवस्था- परिवर्तन

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सत्ता-परिवर्तन नहीं, व्यवस्था- परिवर्तन

श्रम का शोषण और निजी-संपत्ति ये ऐसी विष की गांठें हैं, जिनसे तमाम तरह की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक असमानताएं पैदा होती हैं. देश की तमाम धन-संपदा दलित- शोषित श्रमिकवर्ग के श्रम से पैदा हुई हैं लेकिन कालान्तर में इस तमाम धन-संपदा पर चंद कामचोर और श्रमशून्य शक्तियों के गिरोह ने जबरन कब्जा कर लिया, जो आजादी के करीब 70 वर्षों के बाद आज भी जारी है. इसी वर्ग को शोषक या शासकवर्ग कहा जाता है. अन्य देशों की ही तरह भारत में भी श्रम के शोषण के ही कारण निजी-संपत्ति का जन्म हुआ, जो न केवल दलित-शोषित श्रमिकवर्ग बल्कि समाज के उच्चवर्ग के गरीब किसान और मजदूरों के शोषण का भी मूल कारण बनी हुई है. आज भी भारत में एक प्रतिशत श्रमशून्य शक्तियों यानि शोषकवर्ग के पास देश की 73 प्रतिशत धन-संपदा और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा है और यही भौतिक असमानता दलित-शोषित श्रमिकवर्ग के दमन-शोषण का मूल कारण बानी हुई है. इसी भौतिक असमानता पर पर्दा डालने के लिए शोषकवर्ग ने वर्णव्यवस्था और जातिवाद जैसे मानव-विरोधी सिद्धांतों को पैदा किया और उसको उचित ठहराने और उनका पवित्रीकरण करने के लिए उसने धर्म का सहारा लिया, जिसका इस्तेमाल करते हुए उसने श्रमिकवर्ग को धार्मिक विधि-विधानों के जरिये हीन, पतित और शूद्र घोषित किया. यह क्रम लगभग सात-आठ हजार वर्षों तक चला जो आज भी जारी है.

भारत में आज भी निजी-संपत्ति का अधिकार अस्तित्व में है जिसको भारतीय संविधान पूर्ण रूप से न केवल मान्यता देता है बल्कि पूर्ण सुरक्षा भी प्रदान करता है. इसी कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, जातीय, धार्मिक शोषण के चलते ही भारत बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, भूख, गरीबी, लैंगिक शोषण इत्यादि का गढ़ बन चुका है. वर्ग-चेतना के अभाव और जातीय और धार्मिक चेतना के उभार के कारण दलित-शोषित श्रमिकवर्ग स्वयं को धर्म, जाति, वर्ण इत्यादि के रूप में स्वयं को बांटकर संगठित कर लेता है और इसी कारण जो संघर्ष शोषकवर्ग के खिलाफ होना चाहिए था, वह संघर्ष जातीय और धार्मिक संघर्षों में बदल जाता है और जनता आपस में ही लड़ती-मरती रहती है, जिसके कारण कभी भी न कोई हल निकला है और न ही निकल सकता है. इस स्थिति का शोषकवर्ग फायदा उठाते हुए जनता के इन आपसी संघर्षों को जातीय और धार्मिक रूप देकर देकर भड़काता रहता है ताकि उसका आर्थिक शोषण निर्बाध गति से जारी रहे.




दूसरी ओर, उच्चवर्ग का पढ़ा-लिखा वर्ग भी इस निजी-संपत्ति के अधिकार और श्रम के शोषण के चलते गरीबी और बेरोजगारी का समान रूप से शिकार है लेकिन शासकवर्ग के लगातार दुष्प्रचार के कारण वह समझता है कि उनकी बेरोजगारी और बदहाली का कारण दलितवर्ग को दिये गए आरक्षण के कारण है. जबकि सच्चाई यह है कि शोषकवर्ग के शोषण के चलते देश के समस्त संसाधन शासकवर्ग यानी एक प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमटकर रह गए हैं, जिसके कारण रोजगार के अवसर ही लगभग खत्म हो गए हैं. इसी कारण बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति देश में पैर पसारे हुए है. यह घोर असमान भौतिक स्थिति दलित और गैरदलित तबकों में वैमनस्यता पैदा करके उनके बीच नफरत और आपसी संघर्षों को बढ़ावा देती है. जबकि हकीकत यह है कि कोई भी पूरी जाति पूर्ण रूप से शोषक नहीं होती है.

दूसरी ओर, शोषकवर्ग के रूप में पूरा वर्ग शोषकवर्ग होता है. यही जाति और वर्ग का मौलिक फर्क है इसीलिए संघर्ष किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं बल्कि शोषकवर्ग के खिलाफ होना चाहिए लेकिन जातिगत चेतना के उभार के कारण शोषण के विरुद्ध यह संघर्ष जातीय और धार्मिक संघर्षों का रूप अख्तियार कर लेता है, जो शोषकवर्ग के लिए बड़ी सुभीते की बात है. सच तो यह है कि यह शोषणकारी और असमान स्थिति भारत में मौजूद श्रम के शोषण से उपजी निजी-संपत्ति के अधिकार के कारण पैदा हुई है इसीलिये समस्त संघर्षों की दिशा इसी शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ होनी चाहिए न कि किसी जाति विशेष के खिलाफ. लेकिन भारतीय संविधान इस निजी संपत्ति पर आधारित शोषणकारी व्यवस्था को न केवल कानूनी रूप से मान्यता देता है, बल्कि उसको पूर्ण सुरक्षा भी प्रदान करता है.

हालांकि इस संविधान में समानता, स्वतंत्रता और बंधुता जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए सभी नागरिकों को कानूनन समानता का अधिकार दिया गया है. लेकिन निजी संपत्ति के अधिकार के कारण पैदा हुई भूख, गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि के कारण ये तीनों शब्द खोखले साबित हुए हैं, उनका कोई अर्थ नहीं क्योंकि देश के 85 प्रतिशत दलित-शोषित श्रमिकवर्ग जो इसी निजी संपत्ति की मौजूदगी के कारण घोर गरीबी के कारण शोषित है और गुलामी का जीवन जीने को मजबूर हैं, कैसे उन 1 प्रतिशत शोषकों के सामान हो सकते हैं, जिनका देश की 73 प्रतिशत धन-संपदा और प्राकृतिक संसाधनों पर जबरन कब्जा है और भोग-विलास में आकंठ डूबे हैं. संविधान में प्रदत्त यह समानता बिलकुल झूठी साबित हो रही है.




याद रहे, निजी-संपत्ति वाले वर्गसमाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता उसकी संपत्ति के द्वारा निर्धारित होती है. धनहीन व्यक्ति या गरीब जाति या तबके के लिए स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं हो सकता. व्यक्ति वहीँ तक स्वतंत्र होता है, जहां तक उसका संपत्ति पर स्वामित्व होता है. निजी संपत्ति वाले वर्गसमाज में एक भूखे-नंगे, साधनहीन और सम्पत्तिहीन व्यक्ति या समाज को स्वतंत्रता का अर्थ समझाना उनके साथ मजाक करना ही होगा. इसीलिये देश की 85 प्रतिशत भूखी-नंगी सम्पत्तिहीन जनता के लिए स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं हो सकता. वह तो सिर्फ भूख से तड़प-तड़प कर मर जाने के लिए ही स्वतंत्र होती है. ऐसे ही एक शोषित और शोषक में, गुलाम और मालिक में, नौकर और मालिक में बंधुता कैसे संभव हो सकती है ?

इस शोषक और शोषित के संबंध में तो गुलाम मालिक की दया का पात्र ही हो सकता है, बंधुता या प्रेम का पात्र नहीं और दया आदमी को गौरव नहीं देती बल्कि उसे लगातार आत्महीन होने का अहसास कराती रहती है. इसीकारण उनमें शत्रुतापूर्ण संबंध बने रहते हैं. साधारण जीवन में भी सामान्यतया भाई-चारे और प्रेम के संबंधों का आधार भौतिक समानता ही होता है. वस्तुतः बंधुता या भाईचारा तो भौतिक रूप से समान तल पर ही संभव हो सकता है लेकिन भारतीय संविधान आर्थिक समानता की कोई गारंटी नहीं देता. वह शोषक और शोषित, गुलाम और मालिक के संबंधों का उन्मूलन नहीं करता बल्कि उनको अक्षुण्ण रखने की कानूनन गारंटी देता है. ऐसे में बंधुता और प्रेम कैसे संभव हो सकती है ? इसीलिये बंधुता एक कोरा संवैधानिक शब्द बनकर रह गया है, जिसका कोई अर्थ नहीं.




आज भारत में इस संविधान को बने और लागू हुए लगभग 70 वर्ष हो चुके हैं लेकिन वर्णव्यवस्था, जातिवाद, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विषमताएं वैसी की वैसी ही मौजूद हैं, जैसी कि पांच हजार वर्ष पहले थी, अगर कुछ बदला है तो शोषण का सिर्फ स्वरुप बदला है और कुछ नहीं. संक्षेप में, यह संविधान वोट के जरिये सत्ता परिवर्तन को तो मान्यता देता है लेकिन व्यवस्था परिवर्तन का पूर्णतया निषेध करता है. सत्ता परिवर्तन के अंतर्गत हर पांच वर्ष बाद एक शोषक के स्थान पर दूसरा शोषक आकर सत्ता पर काबिज हो जाता है और कुछ नहीं बदलता, दलित-शोषित श्रमिकवर्ग का शोषण-दमन वैसे ही अबाध गति से चलता रहता है, व्यवस्था वही की वही रहती है, शोषक और शोषित वैसे ही बने हुए हैं, धन संपत्ति का असमान वितरण वैसे ही मौजूद बना रहता है.

अतः श्रम के शोषण और निजी-संपत्ति पर आधारित मौजूदा व्यवस्था को बदले बगैर जातीय शोषण ही नहीं किसी भी तरह के शोषण को समाप्त नहीं किया जा सकता. ऐसे में बिना सोचे-समझे सिर्फ इसलिए कि यह संविधान अम्बेडकर जी ने बनाया था उसका हमेशा गुणगान करते रहना शोषण की मौजूदा व्यवस्था को बनाये रखने में शोषकवर्ग की सहायता करना ही होगा और इस भौतिक असमानता पर आधारित व्यवस्था के चलते जातिवाद और वर्णव्यवस्था जैसी घृणित और घोर अमानवीय सामाजिक असमानताओं से कभी भी निजात नहीं पाई जा सकती.

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