चार सालों से पूरे देश में धार्मिक आयोजन भी एक संगठित उद्योग का रूप लेने की जद्दोजहद करता दीख रहा है. एक के बाद एक धार्मिक आयोजनों का सिलसिला कहीं थम न जाये, सरकारें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखती है या नहीं, पर उनके मुखिया इस कार्यक्रमों में शिरकत करते दिखते रहते है.
कितने भीख मांगने वालों के पास “आधार कार्ड” है ? इस बात की पड़ताल किये बिना देश के एक जिम्मेदार संगठन से जुड़े अधिकृत कार्यकर्ता उन्हें बेरोजगार नहीं मानते बल्कि भीख मांगने को भी एक रोजगार मानते हैं. उनकी निगाह में संभवतः इस धार्मिक रोजगार का हमारी हजारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति से सम्बंध हो.
पूरे देश का आकाश धार्मिक भावनाओं के स्पंदनों से आच्छादित है. आमजन (लगभग 100 करोड़ लोग) तो दो बख्त पेट भरने की जुगत बिठाने में सिर उठाकर न कुछ देख पा रहा है और न सुन पा रहा है. बेरोजगार युवा कार्यकर्ता इन स्पंदनों पर थिरकते, गाहे-बगाहे सड़कों पर गगनभेदी जयकारे लगाते लड़ते-झगड़ते और भी बहुत कुछ करते दिखते रहते है. इसके एवज में बतौर पारिश्रमिक कार्यक्रम की समाप्ति पर आयोजक मुठ्ठी बांध जो कुछ दे दे उसी में संतोष करना, खाली बैठने से तो बेहतर है. ऊपर से दूसरा फायदा समाज में मान-सम्मान और पहचान बनती है.
पूरे देश में विपक्ष अभूतपूर्व मूर्च्छा से ग्रसित है. इस मूर्च्छा से बाहर आने के लिए कोई दल/पार्टी सार्थक प्रयास कर रहा/रही है ? ऐसा भी कहीं नजर नहीं आता.
परन्तु सत्ता की अहंकार से लबालब कारगुजारियों से क्षुब्ध आमजन की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का साहस 4- 5 युवकों ने जरूर किया है, पर विपक्षी नेताओं की मूर्च्छा तोड़ने के लिए ये प्रयास नाकाफी है. पर कुछ तो आशा बंधती है.
सत्ताधारियों की पीठ के पीछे खड़े उनके पथ-प्रदर्शक और मूर्धन्य वैचारिक ऊर्जा के विराट श्रोत का ताना-बाना इस देश में कितना मजबूत है, इस बात का आंकलन शायद आमजन को नहीं हो पर इस देश की शायद ही कोई ऐसी सरकारी या संवैधानिक संस्था हों, जिनमें इस वैचारिक ऊर्जा में दीक्षित लोग न बैठे हों. क्या यह सम्भव है कि इन संस्थाओं में बैठे सत्ता के पथ-प्रदर्शक यथाशक्ति संस्था के निर्णयों को सत्ता के पक्ष में प्रभावित नहीं करेंगे ? आजकल आये दिन मीडिया में इन संस्थाओं पर सत्ता के साथ पक्षपात करने के आरोप उछलते रहते हैं.
हमारे समाज में ऐसे लोग भी बसते हैं जो अपने निजी हितों को साधने के लिए समाज के हिमालयी हितों को बेचते रहे हैं. ये लोग सर्वव्यापी हैं, सर्वज्ञानी हैं. अपनी पार्टियों की पीठ पर लात मारकर सत्ताधारियों के साथ शान से सीना ताने और सिर उठाये चहलकदमी करते हर जगह दिख जाएंगे. वैचारिक ऊर्जावानों के बीच इन दलबदलुओं की कोई इज्जत नहीं हो सकती.
एक संगठन पिछले 92 वर्षों से सत्ता सुख से वंचित रहकर वैचारिक ऊर्जा के ताने-बाने को बुनने और फैलाने का श्रमसाध्य और नीरस कार्य मे लगा रहा और तत्कालीन सत्ताधारी सत्ता के सुख की मदिरा का पान करते रहे तो अब वनगमन का दारुण दुख भोगों.
अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने जिनमें उत्पादन के आधुनिक संसाधनों वाले देशों का वर्चस्व है, ने अपने उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए हमारे ”हुनर” आधारित अर्थव्यवस्था का कत्ल हमारे ही हांथों से कराया गया है । हुनर सीखने की एक उम्र होती है उस उम्र में हुनर सीखने के प्रयास को अपराध घोषित कर दिया गया.
जब उम्र थी हुनर सीखने की उनके हाथों में किताबे थमा दी गयी. शिक्षित बनाया गया. अब इन शिक्षित बेरोजगार युवाओं को पकौड़े तलने का रोजगार आकर्षित नहीं कर सकता, न मन्दिरों के बाहर कटोरा ले के भीख मांगने का रोजगार ही.
धार्मिक कर्मकाण्ड और धार्मिक आयोजनों की श्रृंखला स्थायी रोजगार के अवसर प्रदान नही कर सकती, यह हकीकत जिस दिन लोगों को समझ आने लगेगी माहौल बदलने लगेगा. सत्ता का अहंकार तो आमजन ही पलटेगा, कोई पार्टी या दल नहीं.
-विनय ओसवाल
वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक