गुरूचरण सिंह
अगर आपके इन प्रयोगों से वांछित परिणाम निकलते हैं तो फिर प्राइवेट सेना, प्राइवेट पुलिस और सरकार बनाने पर भी विचार किया जा सकता है !
विपक्ष को तो खैर अपनी खोई हुई सियासी जमीन फिर से हासिल करने की चिंता होती है, इसलिए वह तो सरकार के हर काम में मीन मेख़ निकालेगा ही, उसकी मंशा पर सवाल भी उठाएगा और बड़ी आसानी से भूल भी जाएगा कि जब वह सत्ता में था, तो वह भी तो ऐसी ही जन विरोधी नीतियों पर काम कर रहा था लेकिन इन लेखकों को क्या हो गया कि उनमें भी सरकार के खिलाफ जहर उगलने का का एक फैशन सा चल पड़ा है !! न वे सरकार की मज़बूरी समझते हैं, न 2024 तक अर्थव्यवस्था को 50 खरब डॉलर की बनाने वाली उसकी मंशा पर विश्वास ही करते हैं और न ही सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर गुजरने संबंधी सरकारी संकल्प को गंभीरता से लेते हैं ! ऐसे ही थोड़े न कोई घर का ‘फालतू’ सामान बेच देता है !!
इसलिए हमने सरकार को ऐसे बेकार खर्च को कम या समाप्त करने संबंधी कुछ सकारात्मक सुझाव देने का फैसला किया है. इसे जनता और सरकार के बीच संवाद बनाने की एक कोशिश ही समझा जाए क्योंकि सरकार तो बेचारी नागरिकता कानून जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों में उलझी हुई है, कई जगह लाठी चार्ज करवाना है, ठंडी के मौसम में आंदोलनकारियों पर ठंडे पानी की बौछार भी करनी है, उसके पास संवाद बनाने का समय ही कहां है ? किसी भी सरकारी प्रतिष्ठान को चलाने के लिए जन-धन दोनों का ही भारी अपव्यय होता है और निवेश की तुलना में अव्वल तो लाभ होता ही नहीं और हानि को भी और टैक्स लगा कर खर्च पूरा करना पड़ता है. अगर कहीं लाभ होता भी है तो बस नाममात्र का ही !
रेलवे जैसा बड़ा प्रतिष्ठान हो या सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था या कोई भी अन्य कार्यालय, इन सब का 90 फ़ीसदी से अधिक बजट तो कर्मचारियों के वेतन भत्तों और पेंशन पर ही खर्च होता है. अब जबकि अधिक से अधिक काम ठेकेदारों से करवाने का दौर चल पड़ा है और वह भी काफी सस्ते में तो क्या आवश्यकता रह गई है इन सबकी ? इसलिए सबसे पहले तो सरकारी नौकरी की अवधारणा को ही ख़त्म किया जाए. अफसरों और ठेकेदारों पर खर्च होने वाले के बाद भी काफी पैसा बच जाएगा, उस पैसे को ‘जरूरतमंद’ लोगों के खातों में सीधा जमा करवाया जा सकता है. पैसा हाथ में होगा वे लोग अपने लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का सारा इंतजाम खुद कर लेंगे. सरकार को हलकान होने की जरूरत ही क्या है ?
रही कारोबार की बात, उसे बढ़ा पाना तो आपके बस की बात है नहीं. फिर 50 खरब डॉलरी अर्थव्यवस्था कैसे बन पाएगी, यह तो सरकार ही बेहतर बता सकती है. वैसे इसका एक सीधा उपाय तो यही है कि जैसे ‘नया वक़्त नई जरूरतें’ के नाम पर जीडीपी का जादुई फार्मूला बनाया गया है, जो 1% या उससे भी कम विकास दर को 5% दिखा सकता है, वैसी ही कोई और आंकड़ों की बाजीगरी यहां भी दिखा दी जाए !
आप कितनी भी कोशिश कर क्यों न कर लें, कितनी ही कर्ज माफी कर ले, कार्पोरेट्स को टैक्स में सालाना 1.46 लाख करोड़ की राहत भी दे दें, कारोबार तो पटरी पर आने से रहा ! नोटबंदी ने कमर जो तोड़ दी है अर्थव्यवस्था की. नोटबंदी ने लोगों के छोटे-छोटे और मझौले आकार के काम धंधे बंद कर दिए हैं. सांचा एक नाम की तरह धंधेबाजों के नाम पर केवल कारपोरेट ही बचे हैं और वे भी जनता की पूंजी ( कर्ज) के बल पर ! हालत उनकी भी खराब है. कल कारखाने चलते रहने के लिए जरूरी है कि उनमें बना माल बिके भी. अब लोगों के पास पैसा ही नहीं है तो खपत भी कहां से होगी ? कारोबार बढ़ेगा कैसे ??
मंदी बढ़ेगी तो अपराध भी बढ़ेंगे, भले ही वे संगठित अपराध हों या अकेले दुकेले के रेप, चोरी-चकारी जैसे. पुलिस तो वैसे भी ‘इस हाथ दे और उस हाथ ले’ के सिद्धांत पर ही काम करती है, बिना लिए-दिए तो एक तिनका तक नहीं तोड़ती ! आप क्या समझते हैं वेतन से कम चलता है उनका ? नहीं जी, उसकी सारी जरूरतें तो आदतन अपराधियों, बनाए गए अपराधियों, जमीनों का कब्जा दिलाने, सड़कों पर दुकानें लगवाने, अवैध पार्किंग बनवाने, दिल्ली में लगभग 70 % ऑटो, टैक्सियां, रिक्शे आदि चलाने वाले से जबरी वसूली से ही पूरी होती हैं, इसलिए उनको भी वेतन देने की जरूरत नहीं है ? बेहतर हो कि उसका भी निजीकरण कर दिया जाए !
न्याय व्यवस्था से तो विश्वास उठ ही रहा है आम आदमी का ! वैसे भी न्याय-न्याय खेलना तो अमीरों, अपराधियों, रेप, कत्ल, डकैती, आगजनी करके से लेकर बस्ती की जमीन पर जबरन कब्जा जैसे संगीन मामलों तक में लिप्त संसदों, विधायकों का काम है. कचहरी की तो हवा भी कानों में फुसफूसा कर पूछ लेती है, ‘जेब में कुछ है भी कि नहीं, मकान, दुकान, जमीन कुछ है नाम में तो यहां ठहरो, वरना भाग जाओ !’ सुनवाई के लिए आवाज़ लगाने वाले अर्दली और रीडर के बच्चे भी शिमला, दार्जलिंग के पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं ! क्या जरूरत है उन्हें वेतन की ? बस कोर्ट में लेन-देन को आप कानूनी कर दें ! जजों को वैसे भी कोई जरूरत नहीं होती वेतन की ! न्याय तो आप जैसा तय करेंगे, वह तो वैसा ही होगा ! छ: महीने में एक फैसला भी अपने मन का सुना दिया तो समझो कई साल के वेतन का इंतजाम हो जाएगा !
अगर आपके इन प्रयोगों से वांछित परिणाम निकलते हैं तो फिर प्राइवेट सेना, प्राइवेट पुलिस और सरकार बनाने पर भी विचार किया जा सकता है ! वैसे भी तो करणी सेना जैसी कई तरह की माफिया सेनाओं को रखने का चलन रहा है हमारे इस महान देश में !!
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