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सरकार की जनविरोधी नीतियों से मालामाल होता औद्योगिक घराना

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सरकार की जनविरोधी नीतियों से मालामाल होता औद्योगिक घराना

नये साल में आम जनता की हालात अच्छी हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि बीतें सालों में कौन-सी सामाजिक-आर्थिक नीतियां देश में लागू हुई, यानी उससे बेकारों, किसानों और भूखों की हालत बेहतर हो रहे हैं या नहीं. महंगाई बढ़ी या घटी. महिलाएं पहले से ज्यादा सुरक्षित हैं या फिर महिलाओं पर हमला बढ़ी है या नहीं.

जहां तक नीतियों का सवाल है 1991 से चलाए जा रहे आर्थिक सुधार की नीतियां या नई आर्थिक नीति ही देश में लागू है. इसी का समर्थन साल 1991 में अप्रत्यक्ष रूप (यानी भाजपा संसद से बाहर चली गई) से किया था, जिससे आम जनों के हालात बद् से बदतर हुए हैं, जिसका ठीकरा देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने हर भाषण में कांग्रेस की सरकार पर फोड़ते हैं. यही नीतियां उग्र रूप से भाजपा की सरकार भी लागू कर रही है. खासकर, निजीकरण को मुख्य रूप से बढ़ावा दे रही है, चाहे वह मेहनतकश और किसानों के बढ़ते शोषण की कीमत पर ही क्यों न हो. इनकी करनी में है सबका साथ और कॉरपोरेट या निजी कम्पनी का विकास. इस संदर्भ में कुछ उदाहरण देखें.




हाल ही में प्रधानमंत्री की अगुवाई में फसल बीमा का काम निजी कम्पनियों को सरकार ने दे दी और कंपनियों ने जमकर मुनाफा कमाया. प्रसिद्ध पत्रकार एवं किसान कार्यकर्ता पी. साईनाथ का कहना है कि प्रधानमंत्री का फसल बीमा योजना राफेल से भी बड़ा घोटाला है. उन्होंने दावा किया है कि महाराष्ट्र के एक जिले में फसल बीमा योजना के तहत 173 करोड़ रु. रिलायंस इंश्योरेन्स को दिये गए. फसल बर्बाद होने पर रिलायंस ने किसानों को सिर्फ 30 करोड़ रू. का भुगतान किया और बिना एक पैसा लगाए 143 करोड़ रूपये का मुनाफा कमा लिया. फसल बीमा योजना का काम रिलायंस और एस्सार कंपनी को दिया गया है. यह तो मात्र एक मिसाल है. यह इंश्योरेन्स यानी फसल बीमा योजना सरकारी इंश्योरेन्स कंपनी को क्यों नहीं दी गई ? यह जनता की ओर से एक बड़ा सवाल है.

जाहिर है सरकारी या अर्द्ध सरकारी इंश्योरेन्स कंपनी को फसल बीमा का काम दिया जाता तो जनता के खजाने का इतना बड़ा दोहन नहीं होता. यही नहीं देश की सुरक्षा से लेकर खेती में भूरपूर कमाने का मौका निजी कंम्पनियों को दिया गया है. ऐसी कौन सी मजबूरी भाजपा या प्रधानमंत्री पर आ गई कि वे कम्पनियों के नाजायज हित पोषण करने में लग गये ? जबकि एक गरीब देश जहां मुम्बई, दिल्ली, जैसे महानगरों में भी अधिकांश जनता के लिए स्वच्छ पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है. बाकी नगरीय व अन्य सुविधा नहीं है. सुबह-सुबह शहरों में या गांवों में भ्रमण करें तो स्वच्छ भारत अभियान की पोल खुल जाती है.




अभी रॉफेल घोटाला का मामला भी उठ रहा है. हर राज्यों में न जाने कितने भ्रष्टाचार का मामला मुंह बाये खड़ा है. आज की बड़ी कही जाने वाली कंपनियों के ऊपर 30,000 करोड़ से लेकर एक लाख करोड़ से अधिक कर्ज है. 9000 करोड़ से नीचे वाले कर्जदार जो लोग हाल में देश छोड़कर विदेश चले गए हैं, उन्हें सरकार पकड़ने की बात करती है, जबकि यही सरकार उनके विदेश भागने तक आंख बंद किये रहती है. क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ?

जहां तक श्रमिकों का सवाल है, कारखाना में काम करते समय मजदूर का अंग-भंग हो जाता है. उसे मुआबजा नहीं या नगण्य मिलता है. नए साल के आगमन पर समाचार मिला कि मेघालय में 17 मजदूर खान में दब गए लेकिन खान से पानी निकालकर मजदूर को ढ़ूंढने के लिए कई दिन तक सुपर पम्प वहां नहीं ही भेजा गया यानी सुरक्षा का कोई इंतजाम के बिना मजदूर काम कर रहे थे. काम के दौरान वे मरते हैं या जीते हैं, इसकी जिम्मेवारी कम्पनी की नहीं है, इस तरह की छूट श्रम कानून में भाजपा सरकार ने शासन में आते ही दे दी.

जहां तक आर्थिक नीतियों का सवाल है वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) तथा नोटबंदी एकाएक उग्र रूप में लाकर देश के खासकर ग्रामीण और छोटे-छोटे उद्योग को हानि पहुंचाया गया. कितने ही उद्योग इस दौरान बंद हो गए. जनता का कहना है कि भाजपा ने प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरी देने का वादा किया था, हुआ उलटा कि करीब तीस लाख लोगों की लगी लगायी रोजगार-धंधे उपरोक्त नीतियों के कारण खत्म हो गये.




सीएमआईई के अनुसार जुलाई 2017 में बेरोजगारी दर 3 प्रतिशत थी जो अक्टूबर 2018 में बढ़कर 8 प्रतिशत हो गई. इस तरह बेरोजगारी के बढ़ने की गति ने पिछले 20 साल का रिकार्ड तोड़ दिया. बेकारी के़े आंकड़े तो सरकार पहले ही नहीं जारी कर रही थी. पिछले दो सालों से यानी 2016 से सरकार ने संगठित और असंगठित क्षेत्र के रोजगार के आंकड़े भी नहीं जारी किये. देश के विकास से अन्य संबंधित जानकारी जनता से छिपाना भी गैर-लोकतांत्रिक है. रोजगार संबंधित आंकड़े छिपाना भी शायद जीएसटी और नोटबंदी के बुरे प्रभाव को जनता से छिपाना था.

कहते हैं कि नोटबंदी ने मंडी कारोबार को विशेष झटका दिया. आखिर जीएसटी और नोटबंदी को तो वर्तमान प्रधानमंत्री ने बड़े ताम-झाम के साथ लागू किया. इससे हुई जनता की बरबादी का ठीकरा किस पर फोड़ा जायेगा ? उजड़ती खेती के कारण शहर में सभी पलायन करने वाले को भी रोजगार नहीं मिलता. देश में करीब 48 करोड़ से अधिक श्रमशक्ति की तादाद है. इनमें से मात्र तीन करोड़ को संगठित क्षेत्र में रोजगार है. इसके अलावा कुछ करोड़ अमीर किसान हैं. इस आंकलन के अनुसार करीब 30 करोड़ मानव श्रम हर तरह के बेकारी से जूझ रहे हैं. जहां इतनी बड़ी तादाद में श्रमशक्ति बेकार हैं वहां कई तरह का अपराध बढ़ता है. आज वह भीड़ हमला के रूप में लोगों की हत्या, दलितों पर हमला, बुंलदशहर में थाना एवं इन्सपेक्टर आदि पर हमला, देह व्यापार, चोरी, डकैती, आगजनी आदि को अंजाम देते हैं. कुछ पढे़-लिखे युवाओं ने, खासकर देश के सभी विश्वविद्यालय के, आज राष्ट्रीय स्तर पर संगठन बनाकर नौकरी और शिक्षा के अधिकार को लेकर दिल्ली तक आन्दोलन की शुरूआत कर दी है.




शहरों में पलायन करने वालों में भूखमरी की रिपोर्ट आई. तीन बच्चियों की भूख से मौत हो गई. झारखंड से खबरें आई, आधार कार्ड से लिंक नहीं होने के कारण राशन न मिलने से महिला की मौत हो गई. आधार कार्ड को जिस तरह से लागू किया गया, ये भलाई कम जनता को हानि अधिक पहुंचा रही है. देश की तरक्की का दावा करने वाली सरकार यह नहीं बताती है कि 119 देशों के ग्लोबल हंगर इन्डेक्स में 97 पायदान से इस साल गिरकर 103 पर क्यों चला गया है ? भूख को लेकर देश, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, उत्तर कोरिया और बांग्लादेश जैसे पिछड़े देशों से पीछे है. इस समय भारत में 2-3 करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. 5 साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं, जबकि अनाज का भंडार भरा हुआ है. सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के कारण अनाज का वितरण नहीं हो पाता है.

यह सर्वज्ञ है कि ये नीतियां विश्व बैंक और अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ 1991 मई और 1995 में विश्व व्यापार संगठन से समझौता के तहत लागू हुआ था. यह भी दीगर है कि नई आर्थिक नीति/आर्थिक सुधार का हर बढ़़ता चरण विश्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियों/निगमों और कॉरपोरेट जगत का बढ़ता हुआ मुनाफा पहले से तीव्र गति से कार्य कर रही है. कंपनियों के नाम पर सरकार जमीन अधिग्रहण को बर्बर तरीके से लागू करती है. कहीं खनिज संपदा के दोहन के लिए, तो कहीं सड़क निर्माण के लिए, तो कहीं कंपनी लगाने के नाम पर, जिससे पीड़ित मुख्य रूप से आदिवासी हुए हैं.




नई टेक्नोलोजी के नाम पर सरकार टेक्नोलॉजी की खरीद में देश का सीमित संसाधन या धन खर्च कर देती है जबकि हर तरह की टेक्नोलॉजी को खरीदना जरूरी नहीं है. और दूसरी तरफ छंटनी से प्रायः कार्यालयों में कर्मचारियों की एक तिहाई तक संख्या घट चुकी है. यानी रोजगार में भारी गिरावट आ चुकी है. स्लोगन तो सबका साथ पर क्या प्रधानमंत्री कभी पीड़ित आदिवासियों, किसानों, दलितों या छात्रों से कभी मिलते हैं या उनके साथ खड़े भी होते हैं ? लेकिन जब देखिए उद्योगपतियों के साथ खड़े दिखते हैं. उधर गांधी की 150 वीं जयंती मनाते हुए सरकार किसानों को दिल्ली आने से रोकती है.

जब चुनाव नजदीक आ गया तो वस्तु एवं सेवा कर पुनः एक बार संशाेधत कर 35 वस्तुओं पर 28 प्रतिशत से घटाकर 18 प्रतिशत कर दिया है. इसके पहले गुजरात विधान सभा चुनाव से पहले 226 वस्तुओं पर से जीएसटी जुलाई, 2018 में घटाया था. आखिर ये व्यापारी वर्ग में रोष पैदा कर रहा था तभी तो घटाया गया. अब केन्द्र की सरकार पूरी तरह से 2019 आम चुनाव की तैयारी में जुटी हुई है. कई सभाओं को स्वयं प्रधानमंत्री संबोधित कर रहे हैं. सभाओं में नई नीतियों का भी ऐलान कर रहे हैं. उदाहरणार्थ, झारखंड में सभा करते हुए प्रधानमंत्री ने लुभावने अंदाज में कहा कि युवाओं को खेल में बढ़ावा दिया जायेगा. अब पीएम ने पासा फेंकते हुए नौकरी में गरीब स्वर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का बिल पास करवा दिया है. परंतु युवा अभी तक इनके पहले वादे कि हर साल 2 करोड़ रोजगार दिया जायेगा, भूले नहीं हैं. पर जब नौकरी ही कम हो गई है तो आरक्षण किस काम का, इसे युवा जानते हैं.




महंगाई में बेतहाशा वृद्धि पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है जबकि इसके महत्वपूर्ण कारक पेट्रोलियम पदार्थ का दाम अन्तरराष्ट्रीय बाजार में 2014 अप्रैल की तुलना में बहुत कम है. महिलाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है. उन पर होने वाले अपराध बढ़े हैं. ग्रामीण महिलाओं की खासकर बीमारी, भूखमरी, कुपोषण, खून की कमी आदि से मौत आम बात है. भाजपा की शासन व्यवस्था का खासकर, उत्तरप्रदेश में पहले मीटबंदी, और अब गोकशी पर विशेष ध्यान है. क्या ये सांप्रदायिक फासीवाद नहीं है ?

किसानों ने बेकार पशुधन (गाय भी) को हांककर सरकारी कार्यालयों में खड़ा कर दिया है क्योंकि ये पशुधन खड़ी फसल को बरबाद कर रहे थे. अब योगी सरकार ने पशुधन की व्यवस्था के लिए चुंगी लगाई है. आखिर जनता क्या-क्या बरदास्त करेगी ? आम जनता का आक्रोश आसन्न चुनाव में फृटना ही है. इन्हीं नीतियों के कुपरिणाम के कारण जनता ने कांग्रेस को 2014 के आम चुनाव में नकार दिया था. बहरहाल इन जनविरोधी नीतियों से जनता का भला नहीं हो रहा है बल्कि परेशानी बढ़ रही है.

  • मीरा दत्ता, सम्पादिका, तलाश


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