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‘संकोफ़ा’ : क्योंकि इतिहास कभी अलविदा नहीं कहता…

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'संकोफ़ा' : क्योंकि इतिहास कभी अलविदा नहीं कहता...
‘संकोफ़ा’ : क्योंकि इतिहास कभी अलविदा नहीं कहता…
मनीष आजाद

‘ओपन वेन्‍स ऑफ लैटिन अमरीका’ जैसी चर्चित पुस्‍तक के लेखक ‘एडुवार्डो गैलीयानों’ ने कहीं इतिहास के बारे में लिखा है कि इतिहास कभी भी हमें अलविदा नहीं कहता, बल्कि कहता है – ‘फिर मिलेंगे.’ (History never really says goodbye. History says, ‘See you later.’)

इस बार अफ्रीका के गुलामी वाले दौर के इतिहास से मुलाकात अमरीका में क्रान्तिकारी ब्‍लैक सिनेमा के प्रमुख प्रतिनिधि ‘हेली गरीमा’ (Haile Gerima) की शानदार और प्रभावकारी फिल्‍म सन्‍कोफा (Sankofa) में हुई. और संयोग यह है कि अफ्रीका की एक भाषा में सन्‍कोफा का मतलब भी यही होता है कि ‘अतीत में जाओ और वहां से ऐसी चीज लाओ जिससे भविष्‍य की ओर आगे बढ़ा जा सके.’

सन्‍कोफा का प्रतीक चिन्‍ह उस सन्‍कोफा पंक्षी को भी आप देखेगे तो उसका सिर पीछे की ओर और उसके पैर आगे की ओर दर्शाया गया हैं.

फिल्‍म की शुरूआत ‘घाना’ के एक शहर में उस किले से होती है जहां अतीत में अफ्रीकी गुलामों को अमरीका ले जाये जाने से पहले चेन-हथकड़ी में बांध कर रखा जाता था. एक काला अफ्रीकी गाइड गोरे लोगों को इस किले का भ्रमण करा रहा है और उन्‍हें प्रभावित करने के उद्देश्‍य से उसका इतिहास बता रहा है. वहीं किले के बाहर एक अफ्रीकन मूल की ब्‍लैक अमरीकन माडल ‘मोना’ एक गोरे अमरीकन से अपना ‘सेक्‍सी फोटोशूट’ करा रही है.

किले का स्‍वघोषित ‘सन्‍कोफा’ इस पूरे क्रिया व्‍यापार को देखकर गुस्‍से में है और क्रोधित होकर बता रहा है कि यहां काले अफ्रीकियों के साथ कितना अत्‍याचार हुआ है. किले के काले सुरक्षागार्ड उसे बार बार हटाते हैं और वह बार बार उन गोरे टूरिस्‍टों के सामने आ जाता है. अमरीकन माडल मोना पर वह क्रोध से चिल्‍लाते हुए कहता है कि अतीत में जाओ, अतीत में जाओ. मानो वह उसे श्राप दे रहा हो.

अगले दृश्‍य में, अपनी जड़ों, अपने इतिहास से पूरी तरह अपरिचित अमरीकन माडल मोना जब अपनी जिज्ञासावश उस किले में प्रवेश करती है तो वह घटित होता है जिससे ना सिर्फ मोना बल्कि दर्शक भी स्‍तब्‍ध रह जाते हैं. किला अपने आप बन्‍द हो जाता है. किले में धुप्‍प अंधेरा छा जाता है और मोना अपने आप को सैकड़ों साल पहले यहां कैद किये गये अपने पूर्वजों यानी अफ्रीकी गुलामों के बीच पाती है.

उसके साथ भी अब वही किया जाता है जो उसके पूर्वजों के साथ किया गया था. उसे भी गुलाम बनाकर जलती राड से दागकर अमरीका के प्‍लान्‍टेशन क्षेत्र में गुलामी के लिए भेज दिया जाता है. जब मोना को पकड़कर दागा जा रहा था तो वह चिल्‍लाती है कि वह अमरीकन है, अफ्रीकन नहीं है. लेकिन गोरों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता. यह एक पावरफुल कमेन्‍ट है आज के अमरीकी लाेकतंत्र के तथाकथित समावेशीकरण पर.

इस पूरे दृश्‍य को ‘हेली गरीमा’ ने काले अफ्रीकी गुलामों के ‘टफ फेशियल एक्‍सप्रेशन’ के माध्‍यम से लगभग स्टिल फोटोग्राफी के समीप के ‘क्‍लोज अप’ में इतने दमदार तरीके से फिल्‍माया है कि दर्शक भी उस दौर के इतिहास से आंख मिलाने की स्थिति में आ जाता है (इस दृश्‍य की तुलना ‘आक्रोश’ फिल्‍म में जेल में बन्‍द ओमपुरी के चेहरे के भाव से की जा सकती है).

पर्दे पर फिल्‍मायें गये इन ‘शान्‍त’ गुलाम चेहरों का फूटता आक्रोश, गुलामों की पुरानी परम्‍रागत इमेज को मानों बारूद लगाकर ध्‍वस्‍त कर देता है. पृष्‍ठभूमि में अफ्रीका का उन्‍मत्त कर देने वाला मादक संगीत (विशेषकर अफ्रीकी ड्रम, जिसे फिल्‍म की शुरूआत में ही सन्‍कोफा को मदमस्‍त होकर बजाते दिखाया गया है) इसे और प्रभावकारी बना देता है और दर्शकों को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लेता है.

ये दृश्‍य उन तमाम गोरे डायरेक्‍टरों की इस तरह के विषयों पर बनी फिल्‍मों के दृश्‍यों से अलग है, जहां गुलामों के चेहरों पर प्राय: दीनता का बोध होता है. इस तरह से हेली गरीमा यहां प्रभावपूर्ण तरीके से अपना एक ‘ब्‍लैक एस्‍थेटिक’ भी रच रहे हैं.

बहरहाल बाद की कहानी गुलामों के शोषण, उनके आपसी मानवीय जटिल सम्‍बन्‍धों और उनके निरन्‍तर प्रतिराेध और सामुहिक बगावत की कहानी है. ‘नूनू’ नामक एक ब्‍लैक महिला गुलाम से बलात्‍कार के कारण पैदा हुए उसके पुत्र ‘जो’ की जटिल पहचान और नूनू यानी ‘जो’ की मां के त्रासद मृत्‍यु के बाद अपनी मूल पहचान की खोज की कहानी है, और काले गुलामों के साथ ईसाई धर्म के रिश्‍ते की कहानी है.

यहां मरियम और ईसा मसीह के ‘मासूम’ चित्रों को फिल्‍म के दूसरे दृश्‍याें के साथ जिस खूबी से ‘कन्‍ट्रास्‍ट’ में फिल्‍माया गया है, वह अपने में फिल्‍म के एक स्‍वतंत्र आयाम को खोलता है (यहां क्‍यूबा के मशहूर डायरेक्‍टर ‘तोमास एलिया’ की फिल्‍म ‘द लास्‍ट सपर’ की याद ताजा हो जाती है).

फिल्‍म के अन्‍त में गुलामों का प्रतिरोध सफल होता है और मोना (जो वहां ‘शोला’ नाम से है) भी अपने प्‍लान्‍टेशन मालिक के बलात्‍कार के प्रयास को असफल करते हुए और उसका कत्‍ल करते हुए अपने वर्तमान में लौट आती है. अब वह बदली हुई मोना है. उसका ‘सन्‍कोफा’ पूरा हो चुका है. अब उसके कपड़े अफ्रीकी हैं. उसका फोटोशूट करने वाले गोरे फोटोग्राफर को अब वह पहचानती नहीं हैं और ड्रम बजाने वाले सन्‍कोफा के साथ बैठकर मानो अब वह उस अफ्रीकन संगीत में भविष्‍य का रास्‍ता तलाश रही है. उसके चेहरे का भाव अब शान्‍त, भविष्योन्मुख, गौरवमय और आत्‍मविश्‍वास से भरा हुआ है.

इसी पड़ाव पर ‘जेम्‍स बाल्‍डविन’ की वह मशहूर पंक्ति कानों में गूंजने लगती है- ‘मनुष्‍य इतिहास में कैद है और इतिहास मनुष्‍य में कैद है.’ (People are trapped in history and history is trapped in them.)

हेली गरीमा 1960-70 के दशक के उस ब्‍लैक फिल्‍म आन्‍दोलन के प्रमुख प्रतिनिधि रहे है, जिसे ‘लांस एंजेल्‍स रिबेलयन ग्रुप’ (L.A. Rebellion Group) के नाम से जाना जाता है. इससे जुड़े फिल्‍मकारों ने काले अफ्रीकियों और उनके मुद्दों पर ना सिर्फ उन्‍ही के परिप्रेक्ष्‍य से फिल्‍में बनायी बल्कि अपनी फिल्‍मों में काले-अफ्रीकियों की ऐसी इमेज गढ़ी जिससे काले-अफ्रीकी अपने आप को इस रूप में पहचान सके जैसे मोना ने अपनी सन्‍कोफा यात्रा के बाद अपने को पहचाना.

हेली गरीमा अपने एक इन्‍टरव्‍यू में कहते हैं कि जब एक काला व्‍यक्ति अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाता है तो वह प्रचार पोस्‍टरों-होर्डिंगों, फिल्‍मों, पत्रिकाओं, टेलिविजन आदि में चित्रित असंख्य ‘परफेक्‍ट इमेज’ के ‘बूबीट्रैपों’ से गुजरता है जो ना सिर्फ उसके आत्‍मविश्‍वास को बल्कि उसके समूचे व्‍यक्तित्‍व को लगातार ध्‍वस्‍त करता रहता है.

इसके अलावा उसके ऊपर ‘परफेक्‍शन’ का जो लगातार हमला होता है (यानी इसी उच्‍चारण में बोलना है, ऐसा ही व्‍यवहार करना है, ऐसे ही चीजों को अंजाम देना है, ऐसी और इसी तरह फिल्में बनानी हैं आदि) वह एक तरह का ‘कल्‍चरल जेनोसाइड'(Cultural genocide) है.

हेली गरीमा इस ‘परफेक्‍शन’ के खिलाफ ‘इमपरेक्‍शन’ को सेलेब्रेट करते हैं और अपनी फिल्‍म को भी ‘इमपरफेक्‍ट सिनेमा’ की परम्‍परा में गर्व से रखते हैं. हेली गरीमा जैसे फिल्‍मकार अपनी फिल्‍मों में इमेज का एक ‘काउन्‍टर नैरेटिव’ रचते हैं जो उस ध्‍वस्‍त व्‍यक्तित्‍व और ध्‍वस्‍त आत्‍मविश्‍वास को दुबारा से गढ़ते हुए उसे उसकी जड़ों तक पहुंचाने में उसकी मदद करते हैं और एक तरह से उसका ‘सन्‍कोफाकरण’ करते हैं.

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ROHIT SHARMA

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