गुरूचरण सिंह
संघी मुसंघी भाई भाई होने भी चाहिए, वैसे भी चोर चोर तो मौसेरे भाई ही होते ही हैं. जब एक पकड़ में आता है तो दूसरा फौरन ढाल बन उसके सामने खड़ा हो जाता है ! लेकिन ईमानदार लोगों में तो ऐसा नहीं होता. वे तो बस ‘सांच को आंच’ की मुहारनी पढ़ते रहते हैं ! लेकिन लूट-खसूट करने वालों को पता होता है कि संघ में रहोगे, मिलजुल कर रहोगे, खुद भी खाओगे और अपने जैसे किसी दूसरे को भी खाने दोगे, तो कोई भी कायदा कानून तुम्हारा कुछ भी नहीं उखाड़ सकता ! बेइमानों में भी एक तरह की ईमानदाराना समझ बन जाती है; कोई किसी के फटे में टांग नहीं घुसेड़ता. सब लोग एक तरह के कायदे में रहते हैं, इसलिए वे सभी फायदे में रहते हैं.
19वीं सदी के शुरुआती बरसों से ही शुरू हो गया था यह सिलसिला जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग किन्हीं और नामों से जाने जाते थे. अपना-अपना काम कर रहे थे. तब भी वे एक दूसरे के गर्म खून वाले तबके की पीठ खुजला रहे थे, आज भी वे यही काम बादस्तूर जारी रखे हुए हैं. दोनों को ही अपने अपने फिरके की चौधराहट चाहिए थी और यह तभी मुमकिन था जब दोनों ही धार्मिक समूह एक दूसरे के खौफ़ में जिंदा रहें. कहावतें कोई हवा में नहीं बनती, जमीनी सामाजिक व्यवहार से पैदा होती हैं, जैसे चोर उचक्का चौधरी, गुंडी रन्न (औरत) प्रधान. शायद यही कारण है कि ‘शरीफ लोग’ सियासत से दूर ही भागते रहे हैं. कौन इस कीचड़ में उतरे !!
खैर, बेवजह नहीं कि जब भी देश में एक समुदाय के चौधरियों की हालत पतली होने लगती है तो फौरन दूसरे तबके के किसी उग्रवादी का या तो कोई भड़काऊ बयान आ जाता है या फिर कहीं किसी बम के फटने की खबर आ जाती है ! बस फिर क्या है, उनका धर्म खतरे में आ जाता है और इससे दोनों समुदायों पर काबिज लोगों का धंधा-पानी चलता रहता है. दोनों तरफ के अगिया बेताल यानि संघी-मुसंघी इस तरह अपनी चौधराहट कायम रखते हैं. जिन्ना हो या सावरकर दोनों तरफ के लोग आजादी मिलने से पहले ही इस खेल में महारत हासिल कर चुके थे.
आज जब संघ खुद सत्ता में है उसे मुसंघियों के खौफ़ की सबसे अधिक जरूरत है हिंदुओं को डरा कर अपने पीछे लामबंद करने के लिए. वो बेचारे भी सीधे-साधे लोग हैं; नहीं जानते कि उनका जो धर्म अनादि है, अनंत है, सनातन है उसका भला कोई कुछ कैसे बिगाड लेगा ? लेकिन खुद को लेकर, अपनी बहन बेटियों की इज्जत को ले कर, अपने धार्मिक विश्वासों को लेकर डर तो उन्हें भी लगता है. यह डर तब कुछ और बढ़ जाता है जब उनके अवचेतन ही में भर दिया गया हो कि उन्हें यह डर दूसरे एक खास समुदाय के लोगों से है क्योंकि उनकी तो फितरत ही धोखा देना है.
नफरत की राजनीति करके ही अपना वजूद बनाने वाले लोग चाहे योगी आदित्यनाथ हों, गिरिराज सिंह हों, अनुराग ठाकुर हों, प्रवेश सिंह हों, उमा भारती या साध्वी प्रज्ञा हों, अनेक मठाधीश और भगवान बने स्वामी हों, या फिर जहर उगलने वाले मुसंघी अकबरुद्दीन ओवैसी, शरजील इमाम और कुछ और मौलाना लोग हो – सब के सब एक निश्चित एजेंडे के तहत काम करते हैं और वह एजेंडा है दोनों समुदायों को कभी मिलने नहीं देना है यानि दोनों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण. कभी सोचा है आपने मीडिया इन्हीं शातिर लोगों के बयानों को लगातार क्यों दिखाता रहता है ? सांझी विरासत की बात करने वाले संगठनों और व्यक्तियों की पहलकदमी से जुड़ी खबरों की जानबूझकर कर उपेक्षा क्यों करता है ? वह इसलिए कि उनके सनसनीखेज बयानों से चैनल की टीआरपी बढ़ती है और टीआरपी बढ़ने से विज्ञापन अधिक मिलते है और चैनल के मालिकों को लाभ होता है. दरअसल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का यह सारा खेल ही व्यावसायिक हितों से जुड़ा हुआ है और उनके इस व्यावसायिक हवन की समिधा बन जाते हैं, सीधे सरल आस्थावान मेहनतकश लोग.
इनमें एक नया नाम जुड़ा है वारिस पठान का ! अचानक कहां से पैदा हो गया यह आदमी जिसे कल तक कोई पहचानता भी नहीं था ? अचानक यहां कुछ भी नहीं होता. नेवी हनी ट्रैप जासूसी कांड के 13 लोग तो सारे के सारे हिंदू हैं, जो दुश्मनों को देश के परम गुप्त राज़ बेचते थे ? तो क्या सारे हिंदू गद्दार हो गए ? अगर नहीं तो कुछ लोगों के पागलपन के चलते पूरी मुस्लिम कौम या सिख कैसे गद्दार बना दिए जाते हैं ? कहीं तो कुछ है जो आम आदमी की समझ में नहीं आ रहा. अब वारिस पठान को ही ले लीजिए, जिसकी तस्वीर है केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के साथ. जरा गौर से देखिए कैसा याराना और बेतकल्लुफी दिखाई देती है दोनो के बीच. मैं नहीं समझता इस प्रसंग पर इस तस्वीर से बढ़कर कोई और टिप्पणी हो सकती है.
चुनाव से ठीक पहले जब भाजपा बैकफुट पर थी, पुलवामा का शर्मनाक हादसा हो गया और देश ने देखा कैसे वह फ्रंट फुट पर आ कर खेलने लगी, कार्यकर्ताओं में नया जोश भर गया और विपक्ष आर्थिक मुद्दों को पकड़े अपनी ही छाया मैं सिमट गया था. आज भी अपने रचे चक्रव्यूह में फंस चुकी थी संघ-भाजपा. CAA, NRC गले की फांस बन रहा था. बार-बार स्टैंड बदलना पड़ रहा था, कहीं कोई तारतम्य नहीं रहा था शीर्ष नेताओं के बयानों में. ऐसे ही मुश्किल हालात में प्रकट होता है वारिस पठान !
वारिस पठान के आते ही जैसे इन सब समस्याओं का जैसे समाधान हो जाता है :
• CAA, NRC मुद्दा गायब होते दिखने लगते हैं;
• दिल्ली की हार कहीं पीछे छूट जाती है,
• बिहार और बंगाल की चुनावी चकल्लस भी हवा-हवाई हो जाती है,
• पाक के लिए जासूसी करते पकड़े गए 13 में से 11 हिंदू नौसैनिकों का मुद्दा भी पता नहीं कहां गायब हो जाता है,
• दलितों पर अत्याचार की खबरें भी गायब हो जाती हैं,
• संघ-भाजपा के नेता के फिर से जहरीले बोल बोलना शुरू कर देते हैं पर कोई नोटिस नहीं लेता,
• राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर भी कोई बात नहीं करता !
अब आप ही बताइए, किस सरकार को नहीं चाहिए ऐसा माहौल इसीलिए सभी सरकारों की छत्रछाया में इसी तरह के गुंडे मवाली और माफिया पलते रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें ईशारा भर कर दिया जाता है बाकी अपने काम में तो वे उस्ताद हैं ही. इन्हीं में मिलेंगे वो भक्त लोग जो सरकारी जमीन पर काबिज हैं, कालाबाजारी, बिजली पानी की चोरी करते हैं, दोहरे खाता-बही रखते हैं, मुहल्ले में दुकानें चलाते हैं, खाने-पीने के सामान में मिलावट करके देश की सेहत से खिलवाड़ करते हैं, ट्रैफिक के कानून की धज्जियां उड़ाते हैं, सरकारी ठेके हासिल करते हैं. दरअसल खतरे में हिंदू धर्म नहीं ऐसे ही लोग होते हैं. रहते हमारे आसपास ही हैं लेकिन रसूखदार होने के चलते उनकी तरफ कोई उंगली नहीं उठाता.
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