Home गेस्ट ब्लॉग पेशवाई वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है संघ

पेशवाई वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है संघ

10 second read
0
0
381
पेशवाई वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है संघ
पेशवाई वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है संघ

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (रासस) सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारत का स्वर्ण युग वापस लाने के सपने दिखाते हुए हिंदुओं को अपने मायाजाल में फंसाकर अपने सरसंघचालक को ईरानी शिया नेता आयतुल्ला खोमेनी मुसावी की तरह हिंदुओं की धार्मिक आस्था और देश की राजसत्ता का एकछत्र अधिष्ठाता देवता बनाने की मुहिम को साकार करना चाहता है, जिसके लिए वह देश के बहुसंख्यक पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को इस्तेमाल कर रहा है.

इस पर बात करने से पहले अब कोई उनसे पूछे कि भारत में स्वर्णयुग कब था ? तो वे आपको चक्रवर्ती सम्राटों की कल्पित लमतरानियां परोसने लग जायेंगे. अस्तित्वहीन पौराणिक कथाएं बांचना शुरू कर देंगे. थोड़ी तार्किक और व्यावहारिक बुद्धि वाले को यह पूछना चाहिए कि यह ‘चक्रवर्ती सम्राट’ किस चिड़िया का नाम है और ऐसे प्राणी इस धरती पर कब से कब तक मौजूद थे ? तो वे सतयुग, त्रेता, द्वापर जैसे तोतारटंत वाले किस्से पेश कर यह बतायेंगे कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज करने वाले को चक्रवर्ती सम्राट कहा जाता था.

इस पर जो अनेक सवाल उठते हैं उनमें से एक यह है कि क्या चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए किये जाने वाले अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा और उसके पीछे चलने वाली विश्वविजेता सेना कभी सुदूरवर्ती अफ्रीका, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों तथा ध्रुवीय क्षेत्रों तक जाकर वहां के राजा-महाराजाओं को पराजित कर अपने अधीन कर पाई थी ? यदि नहीं तो फिर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट कैसे कहा जा सकता है ?

इसलिए भारत के अतीत की झलक देखनी है तो तार्किक एवं समालोचनात्मक दृष्टि से समय के पीछे की ओर देखना होगा, तभी दिखाई देगा कि वास्तविकता क्या है. भारत का इतिहास भी दुनिया के दूसरे देशों की तरह वर्चस्ववादी राजा-महाराजाओं, जमींदारों और उनके द्वारा पालित-संरक्षित चाटुकार ब्राह्मणों-पुरोहितों तथा लठैतों के पारस्परिक द्वंद्व एवं उनके शोषण के शिकार दासों का है.

भारत के अतीत में जात-पात का जबरदस्त सामाजिक विभाजन और तदज्जनित घृणा है, स्त्रियों की गुलामों जैसी दयनीय दशा है, सूदखोरों की लूट-खसोट, असमान आर्थिक तंत्र है, जिसे उनकी विरासत के तौर पर वर्तमान पीढ़ी ने संभाल रखा है.

चूंकि रासस का गठन इस्रायली यहूदियों से हिंदू बने महाराष्ट्र के उच्च शिक्षित समृद्ध चितपावनों ने किया है तो स्वाभाविक रूप से वे उसी शताब्दियों पुरानी व्यवस्था को बनाए रखने तथा भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक आस्था और देश की राजसत्ता का एकछत्र अधिष्ठाता देवता अपने सरसंघचालक को बनाने की मुहिम को सफल बनाने में जुटे हुए हैं. इसीलिए संघ हिंदुओं के साथ-साथ देश की जनता को भारत के अतीत की काल्पनिक यशोगाथाओं से भरी हुई कहानियों में उलझाते हुए लोगों के दिमाग हैक करने की कोशिश करता है.

जबकि जरूरत यह जानने की है कि उन कपोल-कल्पित पौराणिक कथाओं वाले शास्त्रों के रचयिता कौन थे ? उन कोरी गप्पों के रचनाकारों ने स्वयं को ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रियों को बाहुओं से, वैश्यों को उदर से तथा श्रमसाध्य कार्य करने वाले एक विशाल मानव समुदाय को पैरों से उत्पन्न हुआ, क्यों और कैसे बताया ?

उनके गौरवशाली वीर देवता या अश्वमेध यज्ञों से बने चक्रवर्ती सम्राट जिन कथित राक्षसों की हत्या कर रहे थे वे भारत के पराक्रमी तथा कला-कौशल से सम्पन्न आदिवासी और दलित थे. सम्राटों तथा राजा-महाराजाओं के पुरोहित और मंत्री ब्राह्मण थे जो जनता को बताते थे कि राजा ईश्वर का स्वरूप है; जैसे उत्तराखंड में टिहरी के राजा को ‘बोलांदा बदरीनाथ’ यानी बोलता हुआ बदरीनाथ कहने की परंपरा डाली गई.

इस तरह एक क्षत्रिय को आगे करके शास्त्रों को प्रश्नों व शंकाओं से परे देववाणी घोषित कर ब्राह्मणों ने सत्ता के सारे सुख व सम्मान स्वयं के लिए आरक्षित कर लिये. फिर दोनों ने मिलकर व्यापारियों, किसानों, शिल्पियों व अन्य श्रमसाध्य कार्य करने वालों पर अपनी मनमानी लादनी शुरू कर दी. साथ ही मेहनत करने वाले किसान, कारीगर, मज़दूर नीच जात और गरीब बना दिये गये.

चूंकि शासन व्यवस्था चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती ही थी तो राजा महाजनों, व्यापारियों और जमींदारों की रक्षा करता था. सारी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्ति राजा, पुरोहितों, सैन्य अधिकारियों, महाजनों और जमींदारों के हाथों में केंद्रित हो गई. सहस्राब्दियों-शताब्दियों तक यही चलता रहा. इससे श्रमिक वर्ग की स्थिति गुलामों जैसी हो गई. तथाकथित उच्च वर्ग के कार्यों में श्रमशक्ति अर्पित करते हुए भी इन लोगों के पास न भोजन होता और न ही तन ढकने को कपड़े.

जब 1857 की जनक्रांति के बाद 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही आजादी के संघर्ष ने संगठित रूप लिया तो आज़ादी के बाद सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता लाने की बात ने जोर पकड़ा। इससे इस्रायली यहूदियों से हिंदू बने पुराने पेशवाई वर्चस्ववादी चितपावन प्रभु वर्ग में घबराहट पैदा हुई क्योंकि वे अंग्रेजों के कृपा-पात्र बने रहने में ही अपना हित देख रहे थे. इसीलिए अंग्रेजों की आड़ में अपने हितलाभ बरकरार रखने के लिए रासस का गठन किया गया.

यहां ध्यान देने की जरूरत है कि रासस के सांगठनिक ढांचे में शुरुआत से ही चितपावन ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है जो अब तक बरकरार है. पिछले 98 वर्षों में यदि एक राजपूत रज्जू भैया (कार्यकाल 11 मार्च, 1994 से मार्च 2000 तक 6 वर्ष) और के. सी. सुदर्शन (अप्रैल 2000 से मार्च 2009 तक कुल 9 साल) यानी कुल 15 वर्षों के अलावा एक विशाल कालखंड (89 वर्षों) तक रासस पर चितपावनों का ही कब्जा रहा.

रासस पर अधिकतर महाराष्ट्रीय चितपावन ब्राह्मणों के इस एकाधिकार को लेकर उठने वाले सवालों से बचने के लिए बड़ी चतुराई से उसके शिखर पर उत्तर भारत के ऐसे गैर-महाराष्ट्रीय अब्राह्मण रज्जू भैया को बैठाया गया, जिनका शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल पड़ रहा था. उनके द्वारा जल्दी ही किसी चितपावन ब्राह्मण के लिए जगह खाली करने की प्रत्याशा में रुग्णता से पीड़ित रज्जू भैया को बैठा तो दिया गया लेकिन योजनानुसार ही उनसे पदत्याग का अनुरोध कर एक अन्य ब्राह्मण कुप्पाहाली सीतारमय्या सुदर्शन की पांचवें सरसंघचालक के तौर पर ताजपोशी कर दी गई.

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि रासस के चौथे और पांचवें दोनों सरसंघचालकों रज्जू भैया और के. सी. सुदर्शन पर पदत्याग करने का जोर डाला गया ? और, यह भी कि इनके अलावा अन्य सभी महाराष्ट्रीय चितपावन ब्राह्मण ही 89 वर्षों तक सरसंघचालक बनाये जाते रहे ? और वह भी आजीवन !

आखिरकार इनमें चितपावन ब्राह्मण वर्चस्ववाद के अतिरिक्त ऐसा क्या है जो इतने लंबे समय तक रासस के शीर्ष पर इन्हें ही बैठाया गया ? हालांकि उनके नीचे अन्य सवर्ण धनवानों को संतुष्ट करने के लिए प्रमुख पद सौंपे जाते रहे हैं लेकिन उन पदों पर किसी पिछड़े, दलित, आदिवासी को नहीं बैठाया गया. यही नहीं रासस पुरुष वर्चस्ववाद के रोग से ग्रस्त है, तभी तो संगठन में महिलाओं को आज तक कोई प्रमुख पद नहीं सौंपा गया है.

क्या पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों तथा महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाने वाले किसी भी संगठन को सामाजिक संगठन कहा जा सकता है ? नहीं, बिल्कुल नहीं; क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय की अनुपस्थिति में सामाजिक संरचना पूरी नहीं होती है. तो फिर इतना बड़ा भेदभाव बरतते हुए भी रासस खुद को सामाजिक संगठन किस मुंह से कहता है ?

संघ के लोग स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके बाद देश में सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता लाने के मुद्दे पर गांधी, नेहरू, भगत सिंह और अम्बेडकर की कोशिशों का विरोध करते रहे. संघ के लोग हमेशा अंग्रेजों की चापलूसी करते हुए आजादी और बराबरी की बात करने वालों पर हमले करते रहे.

इन्हीं कारणों से चितपावनों द्वारा गांधी जी की हत्या की कोशिश लगातार की जाती रही जिसमें आज़ादी मिलते ही उन्हें 6ठे प्रयास में सफलता मिल ही गई. रासस ने अम्बेडकर पर राजनैतिक प्रहार किये. भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत का मखौल उड़ाने की नीचता तक दिखाई. यही नहीं रासस ने समानता की घोषणा करने वाले संविधान तथा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को कभी स्वीकार नहीं किया.

रासस के वैचारिक समूह में शामिल तथाकथित उच्च जातियों के धनवान सवर्ण और भूस्वामियों के गिरोह ने मिलकर भारत की राजनीति की दिशा को भटका दिया. वे कहते रहे कि भारत की समस्या सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक गैर-बराबरी नहीं, बल्कि यहां की मुख्य समस्या मुसलमान, ईसाई और साम्यवादी हैं. इसका हल यह है कि भारत में हम हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना कर इसे अखंड हिंदू राष्ट्र बनायें.

हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम को भड़काने के लिए आज़ादी मिलते ही 1949 में एक रात अंधेरे में चुपचाप बाबरी मस्जिद में राम की मूर्ति रखकर बवाल मचाया गया और फिर मंदिर निर्माण को हिंदू गौरव की पुर्नस्थापना का प्रतीक बना दिया गया.

हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को एक रणनीति के तहत जोड़ा गया. इसीलिए आज बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिंदू परिषद में पिछड़े, दलित और आदिवासी बड़ी तादात में मिलते हैं. जबकि रासस इनका इस्तेमाल मुसलमानों और ईसाइयों पर हमलों में करता है. देखा जाए तो भाजपा को देश की सत्ता पर बैठाने में इन वर्गों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि रासस के पृष्ठपोषक सवर्ण देश की आबादी में अल्पसंख्यक हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह सवर्ण अमीर कम संख्या में होते हुए भी हिंदू राष्ट्र का मायाजाल फैलाकर सत्ता पर काबिज़ हैं.

रासस के हिंदुत्ववाद से एक बड़ा नुकसान भारतीय समाज को यह हुआ कि यहां के पिछड़े, दलित और आदिवासी सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक बराबरी के लिए संघर्ष करने की बजाय रासस की वानर सेना बन कर रह गये हैं.

अतः कहना चाहिए कि रासस का अखंड भारत और देश में स्वर्णयुग की वापसी के सपने दिखाना पूंजीपतियों, सवर्ण धनवानों और भूस्वामियों के सहारे देशवासियों के दिमाग हैक कर अपना चितपावनिया पेशवाई वर्चस्व बनाये रखने का षड्यंत्र है. इसी वर्चस्ववादी सोच के तहत जनता से भारी वसूली कर देश की सारी सम्पत्ति दो-तीन पूंजीपतियों के हवाले करते हुए आमजन को आर्थिक और शैक्षिक रूप से लगातार कमजोर किया जा रहा है ताकि देश पर शासन करने में आसानी हो.

  • श्याम सिंह रावत

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…