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संघ और बुद्धिजीवी

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संघ और बुद्धिजीवी
संघ और बुद्धिजीवी
जगदीश्वर चतुर्वेदी

भारत में एक ओर बुद्धिजीवियों की बाढ़ आई हुई है तो दूसरी ओर मूर्खों की जमात ने शक्तिशाली ढ़ंग से बुद्धिजीवियों और ज्ञानतंत्र पर हमले तेज कर दिए हैं. संघ ने हर तरह के नए सामाजिक असंतोष और आलोचना का मुंह बंद कर देने की मुहिम तेज कर दी है. इस मामले में बुद्धिजीवी और संघ के अपने-अपने तर्क हैं.

संघ का लक्ष्य है – अब तक उपलब्ध सामाजिक ज्ञान का अवमूल्यन कर दिया जाय. समाज, सोशल मीडिया, राजनीति आदि को कपोल-कल्पनाओं और गप्पों से भर दिया जाए. इस क्रम में संघ, लोकतंत्र में बुद्धिजीवी को प्राप्त सामान्य परिवेश को भी नष्ट कर देना चाहता है.

भारत पर संघ निर्मित गप्पों और दंतकथाओं के जरिए हमले किए जा रहे हैं. हर तरह के आलोचनात्मक ज्ञान को अस्वीकार किया जा रहा है. वे बुद्धिजीवियों के वैविध्यपूर्ण ज्ञान-संसार को नष्ट करके समाज को दंतकथाओं के संसार में ले जाना चााहते हैं. इस अर्थ में वे एबनॉर्मल हैं. उनको सीरियसली मनोचिकित्सा की जरूरत है.

पशु कल्याण और संरक्षण नाज़ियों का एक प्रमुख सिद्धांत था. गोएबेल्स के मुताबिक़ हिटलर शाकाहारी था और युद्ध की समाप्ति पर नाज़ी राज्य में बूचड़खाने बंद करने वाला था. हिटलर, गोरिंग, हिमलर आदि नाज़ी पशु अधिकारों के हिमायती, पर्यावरणवादी और संरक्षणवादी थे. गोरिंग ने तो बहुत से जर्मनों को पशु कल्याण कानूनों के उल्लंघन के लिए यातना शिविरों में भिजवा दिया था.

नाज़ी तो बायोलॉजी की पढाई में प्रयोग हेतु जंतुओं के vivisection के भी ख़िलाफ़ थे. 16 अगस्त 1933 को इस पर प्रतिबन्ध लगाया गया था. 21 अप्रैल, 1933 को नाज़ियों ने यहूदियों के कोशेर (kosher – यहूदी धर्म मुताबिक़) बूचड़खानों पर भी पाबंदी आयद कर दी थी. 24 नवंबर 1933 को पशुओं को कष्ट पहुंचाने वाले बहुत से कार्यों – फिल्म/सर्कस में काम, आदि पर भी रोक लगाई गई थी.

पर यही नाज़ी 5 करोड़ मनुष्यों की हत्या के लिये न सिर्फ जिम्मेदार थे, बल्कि उन्हें इसके लिए कभी कोई पश्चात्ताप भी महसूस नहीं हुआ. हरिशंकर परसाई लिखते हैं – ‘जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं.’

संघ ने संस्कृति, राजनीति आदि के ऐसे चिरकुट पैदा किए हैं जिनका संस्कृति-राजनीति आदि के ज्ञानतंत्र से कोई लेना देना नहीं है. ये संस्कृति-राजनीति के कूढ़मगज बटुक हैं. ये ऐसे संघी विशेषज्ञ हैं जो सार्वजनिक मसलों पर सार्वजनिक तौर पर सही ढ़ंग से बोलना तक नहीं जानते. संघ के ज्ञानियों के पास पेट का ज्ञान भरा पड़ा है. वे पेट के ज्ञान के जरिए संविधान, राजनीति, संस्कृति, न्याय, जीवनशैली आदि के सभी प्रश्नों को हल कर देना चाहते हैं. इसे मूर्खों की जमात कहना समीचीन होगा.

प्रिंट युग के बुद्धिजीवी और इंटरनेट युग के बुद्धिजीवी में जमीन-आसमान का अंतर है. संघ बुद्धिजीवियों पर हमला करते समय अभी भी पुरानी मनोदशा में है. जबकि वाम बुद्धिजीवी पूरी तरह बदले हुए हैं. वे सामाजिक स्तर पर ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक लोकतंत्र के नियमों के दायरे में रहकर बातें कह रहे हैं.

इसके विपरीत संघ सभी लोकतांत्रिक नियमों, सोशल मीडिया के नियमों को तोड़ रहा है. डिजिटल मेनीपुलेशन कर रहा है. वाम बुद्धिजीवी नागरिक चेतना पैदा कर रहे हैं. इसके विपरीत संघ धार्मिक फंडामेन्टलिस्ट चेतना पैदा करने की कोशिश में है. वाम के यहां पूंजीवाद की तीखी आलोचना मिलेगी जबकि संघ पूंजीवाद के प्रेम में डूबा हुआ है.

कम्युनिस्ट पार्टियों को यह बात समझनी होगी कि इंटरनेट के विभिन्न विधारुपों जैसे फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर आदि पर अहर्निश नई सामग्री का फ्लो बनाए रखना होगा. पुरानी शैली में महज चंद पन्नों, पुस्तिकाओं आदि के जरिए किया गया प्रचार बेअसर होता है.
प्रचार में तेजी लाओ कॉमरेड ! एक तो देर से आए हो, उस पर भी धीमी गति से चल रहे हो.

लाओ रोज नई सामग्री, लिखने के लिए कहो अपने साथी लेखकों-पत्रकारों और कॉमरेडों को, वे जितना ज्यादा लिखेंगे, जनता में उतनी तेजगति से विचारों का प्रचार होगा. फेसबुक को महज पार्टी नेताओं के लेखों का प्रचारमंच न बनाएं. अपने लेखकों से कहें कि वे विभिन्न तरीकों से लिखें और जनता में आकर्षण पैदा करें. पुरानी शैली और सीमाएं तोडें. नई शैली और उदार हस्तक्षेप की मानसिकता के साथ लिखें और लिखवाएं.

एक जमाना था जेएनयू में जब भी कोई अच्छा पर्चा आता था, चाहे वो किसी दल का हो, फ्रीथिंकर उसकी खुलकर प्रशंसा करते थे. भाषा से लेकर कंटेंट तक सबकी प्रशंसा करते थे. बाद में उस पर्चे की आलोचना में सुंदर पर्चा लिखकर जबाव देते थे. यही दशा कॉमरेडों की भी थी. वे फ्रीथिंकरों के पर्चे की प्रशंसा करते थे.

यह पुराने किस्म का लाइक है जिसको फेसबुक ने अपना लिया है. हमारे सभी पुराने दोस्तों को फेसबुक पर इस उदार स्प्रिट को अपनाना चाहिए. विभिन्न विचारों का सम्मान करना चाहिए और पढ़ना चाहिए. आलोचना करनी चाहिए. विचारों की आलोचना से ही लोकतांत्रिक माहौल बनता है और यह साम्प्रदायिक या फंडामेंटलिस्ट ताकतों के लिए बुरी खबर होगी.

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ROHIT SHARMA

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