गुरूचरण सिंह
अपने पद का नाम अपनी सनक के बदलते ही रोज-रोज प्रमुख सेवादार से चौकीदार तक बदलने रहने वाले प्रधानमंत्री ने ऐसे ही तरंग में आ कर कभी कह दिया था, ‘मेरा क्या है, फ़कीर हूं जब भी मन में आयेगा, झोला उठा के चल दूंगा !’ अपने ही मुंह से अपनी ईमानदारी का अपरोक्ष प्रमाणपत्र और क्या हो सकता है !!
लेकिन मन की यही मौज तो देश को तबाह भी कर सकती है. ‘मोहमाया से परे’ ऐसा आदमी आपके कदमों तले की जमीन भी हटा सकता है, सिर के ऊपर का आसमान भी छीन सकता है क्योंकि ‘उसे तो कोई फ़र्क पड़ता नहीं’, पहले भी मांग के खाते थे अब भी खा लेंगे !’ ऐसे लोग किसी भी किस्म के सोच विचार में विश्वास नहीं रखते. आई मौज फ़कीर की, गया झोंपड़ी फूंक ! यही मन की मौज, यही सनक कभी नोटबंदी में दिखती है, कभी जीएसटी में झांकती मिलती है, कभी 370 बन कर जम्मू कश्मीर का फातिहा पढ़ती है तो कभी कैब के रूप में पूर्वोत्तर के जनजातीय इलाके के जंगल में आग की एक चिंगारी फैंक देती है ! शासन के सूत्र संभालने वाले हाथ जब कोई गलती करते हैं तो वह कोई व्यक्तिगत गलती नहीं होती, उसका खमियाजा तो पूरे देश को भुगतना पड़ता है; खता तो बेशक लम्हे ही करते हैं मगर उसकी सजा तो सदियों को मिलती है ! ऐसे हाथों में सवा अरब लोगों की किस्मत का फैसला करने की ताकत सौंप देना कितना ख़तरनाक हो सकता है, इसका अंदाजा लगा सकते हैं आप !
भूल जाइए बांग्लादेशी घुसपैठियों की बात जिसे सत्ता में आने से पहले अक्सर उठाया करते थे संघ भाजपा के स्वयंसेवक !
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में लगातार पढ़ाए जाते हिंदू-मुस्लिम नजरिए से कैब को देखना भूल जाइए एक पल के लिए ! साढ़े पांच साल से ज्यादा हो गए हैं संघ-भाजपा को सत्ता में आए हुए ! क्या आप बता सकते हैं इतने सालों में कितने बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस बांग्लादेश भेजा गया है ? एक भी नहीं वरना ये भोंपू मीडिया चीख-चीख कर लोगों के कान फोड़ डालता ! एक बात और, कैब पूर्वोत्तर राज्यों खासकर असम में रह रहे ‘बांग्लादेशी मुसलमानों’ की बाबत पूरी तरह खामोश है क्योंकि सरकार जानती है एनसीआर अपना काम बखूबी कर ही रहा है ! एनसीआर तो उन मुस्लिमों को भी डिटेंशन सेंटर भेज देती है, जिन्होंने एक अफसर के रूप में कभी 15 साल तक सैनिक ड्यूटी की थी ! क्या आप भारतीय दंड संहिता में कोई ऐसी धारा बता सकते हैं जिसके तहत आरोपी पर ही खुद को बेगुनाह सबित करने की जिम्मेदारी हो ? लेकिन एनसीआर में तो भारतीय नागरिक साबित करने की जिम्मेदारी खुद आरोपी की है !!
रही कैब की बात तो यह कानूनी संशोधन (राष्ट्रपति की मंजूरी मिल चुकी है बिल को) धार्मिक उत्पीड़न की बात करके बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान करता है, भले ही उनके पास जरूरी दस्तावेज न हों ! कोई सरकारी दस्तावेज नहीं बताता कि भारत आए कितने ऐसे लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है ! यानि मुद्दई सुस्त,गवाह चुस्त !! बिन मांगे ही सरकार मेहरबान हुई जाती है ! इसका मतलब यह हुआ कि हर गैर-मुस्लिम घुसपैठिया अब यहां शरणार्थी है, फिर चाहे वह दुश्मन मुल्क का जासूस ही क्यों न हो !!
जैसा कि कपिल सिब्बल ने भी संसद में बहस के दौरान पूछा था और हमेशा की तरह सरकारी बेंचों ने उत्तर भी नहीं दिया था कि बिल में धार्मिक उत्पीड़न को परिभाषित क्यों नहीं गया है ? कैसे सत्यापित किया जाएगा कि इस कानून के तहत भारतीय नागरिक बन जाने वाले आदमी का धार्मिक उत्पीड़न हुआ भी है या नहीं ?
पाकिस्तान से बड़ी संख्या में भारत आए धार्मिक उत्पीड़न का शिकार लोगों का विरोध तो आज तक किसी भी सियासी पार्टी ने नहीं किया है ! पहले भी शरण मिलती रही है उन्हें ! इसलिए उनके लिए तो यह कानून हो नहीं सकता और अफगानिस्तान से आए सिख तो पहले ही मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं ! श्रीलंका से आए तमिलों के लिए भी द्रविड़ पार्टियां काफी मू-मुखुर हैं !
दरअसल इस क़ानून के निशाने पर तो बांग्लादेश ही है जहां ग़ैर-मुस्लिमों की आबादी 1951 से 2011 तक 22 फीसदी से घट कर लगभग 8 फीसदी रह गई है. ज्यादातर ये लोग बड़े पैमाने पर पूर्वोत्तर भारत में बसे हुए हैं ! दिल्ली में भी अच्छी खासी तादाद इन लोगों की ! लेकिन इसका अर्थ यह कैसे हुआ कि वे धार्मिक उत्पीड़न की वजह से ही भाग कर भारत आए थे !! बांग्लादेश के संविधान में तो आज धर्मनिरपेक्षता शब्द सुरक्षित है ! सच्चाई तो यह है कि इस पलायन के पीछे धार्मिक नहीं, आर्थिक कारण हैं जिसके चलते कई दूसरे देशों का रुख भी किया है इन लोगों ने ! बांग्लादेशी लेबर आज भी दुनिया में सबसे सस्ती है ! यही कारण है कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों ही वैध-अवैध तरीकों से भारत में आकर रोज़ी-रोटी का मसला हल करते रहे हैं ! इसलिए इसे हिंदू- मुसलमान के नज़रिए से देखना एकदम ही गलत होगा. इसके बावजूद अगर यही नजरिया रखा जाता है तो ज़ाहिर इसके बहाने आप का एजेंडा कुछ और ही है !
असमी लोगों का उग्र आंदोलन 65 बरसों से वहां बसे ऐसे ही लोगों की मौजूदगी को ले कर चलाया गया अपने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित सुनिश्चित करने का आंदोलन था ! उसकी नजर में मुस्लिम, गैर-मुस्लिमों में कोई अंतर नहीं था. उनके लिए यह उनके वजूद की लड़ाई थी, भाषा, संस्कृति और आर्थिक हितों की लड़ाई थी ! एक बार फिर पूर्वोत्तर के सारे राज्य इसकी आग में जलने लगे हैं !
कितने भावुक किस्म के हैं ये अखमी लोग (असमी भाषा में ‘श’ शब्द नहीं होता, ‘ख’ का इस्तेमाल किया जाता है), यह सदी के पहले कई साल वहां रह कर अच्छी तरह जानता हूं ! पल भर में ही खबर एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंच जाती है, लोग सड़कों पर उतर आते हैं, और उग्र प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं जैसे अब ही रहे हैं ! ‘जय अखम’ और ‘कैब आमी ना मानू’ के नारे लगाती भीड़ आज फिर पुराने रंग में लौट आई है !
हिंदू-मुस्लिम के बाहर भी एक दुनिया है, एक जीवित इकाई जिसे भूख भी लगती है, शिक्षा, इलाज की जरूरत भी होती है, रोटी रोजगार के बिना यह दुनिया समाप्त भी ही सकती हैं ! सोचना आपको यह है कि आप किस दुनिया के रहने वाले हैं – कल्पना की या वास्तविक दुनिया के !
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