Home गेस्ट ब्लॉग सांप्रदायिक राजनीति और इवीएम का खेल ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी अब नीतीश पर

सांप्रदायिक राजनीति और इवीएम का खेल ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी अब नीतीश पर

3 second read
0
0
646

सांप्रदायिक राजनीति और इवीएम का खेल ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी अब नीतीश पर

 

Suboroto Chaterjeeसुब्रतो चटर्जी

भारत में सांप्रदायिक राजनीति और इवीएम के खेल ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी अब नीतीश पर है. मेरे बहुत सारे महानुभाव मित्र, डाटा विशेषज्ञ और न्यूज़ चैनल वाले ग़लत साबित हुए. मैं भी ग़लत साबित हुआ. मेरे अनुमान से महागठबंधन को 170 से 180 सीटें आनी चाहिए थी. डाटा कुमारों के हिसाब से 136 से 148 तक. सारे अनुमान ग़लत हुए, कैसे ?

डाटा विश्लेषण के अनुसार जितनी सीटें महागठबंधन को आनी चाहिए उससे बहुत कम हैं, मेरे अनुमान से और भी कम. कैसे ?

मैंने तो ग्राउंड रिपोर्ट पर भरोसा किया. डाटा विशेषज्ञ आंंकड़ों पर. सब ग़लत और एक क्रिमिनल गिरोह सही. कैसे ? क्या बिहार की जनता सांप्रदायिक लाईन पर पूरी तरह से बंट गई है ? क्या बिहार की जनता ने मोदी भक्ति को ही अपना ध्येय मान चुकी है ? सवाल कई हैं.

इसकी पड़ताल के लिए आपको यह मान कर चलना होगा कि मोदी शाह की भाजपा के चरित्र का आंंकलन आपको क्रिमिनल लोगों के एक गिरोह की तरह करना होगा. अगर आप यह मान कर चलेंगे कि कोई भी संघी संविधान, क़ानून और राजनीतिक शुचिता में विश्वास करता है तो आप अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं. ठीक उसी तरह, अगर आप बिहार की जनता को सिरे से सांप्रदायिक मान कर चलें तो भी आप अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं.

फिर, भाजपा के इस प्रदर्शन का राज क्या है ? इवीएम मशीन. मैं शुरु से ही कहता रहा हूंं कि गुजरात से इवीएम मशीन लाने के साथ ही खेल शुरु हो गया था. पटना के ए एन कॉलेज के पास और सिवान में इवीएम लदे छ: ट्रक का पकड़ाना कोई संयोग नहीं था. दरअसल, सैकड़ों ऐसे ट्रकों पर जाली इवीएम मशीन ढोए गए. यह ज़मीनी हकीकत है, जिसे सिर्फ़ मूर्ख ही अनदेखी कर सकते हैं.

बंगाल के आसन्न चुनाव के मद्देनज़र क्रिमिनल मोदी की इमेज को बनाए रखने की चुनौती थी. अब नीतीश के सामने एक चुनौती है. नीतीश को मालूम है कि भाजपा ने उनकी पीठ पर छुरा मारा है. भाजपा शायद उनको मुख्यमंत्री भी बना दे, लेकिन, अपंग जदयू का कोई भला नहीं होने वाला. अपने मृत्यु काल में नीतीश अगर ४० विधायकों के साथ तेजस्वी का समर्थन करें तो शायद उनका पाप कुछ धुल जाए.

लेकिन, नीतीश ऐसा नहीं करेंगे. कारण ? कारण उनकी जाति है. कुर्सी खुरपी चलाता है, तलवार नहीं कि अपना हाथ काट कर गंगा में बहा देने का जज़्बा 75 साल उम्र में हो. सुनने में बुरा लगेगा, लेकिन सच यही है.

अंत में, मेरे सवर्ण कम्युनिस्ट मित्रों को एक सलाह. declassification उतना भी आसान नहीं है जितना कि भाषण देना. चारित्रिक दोष का निराकरण पीढ़ियां लील लेती हैं, ख़ासकर उन संस्कृतियों में जिसकी जड़ें सामंती हैं. इसलिए, फ़ासिस्ट क्रिमिनल लोगों से निर्णायक लड़ाई लड़ने में वे सर्वथा अनुपयुक्त हैं. सर्वहारा की सत्ता सर्वहारा ही स्थापित कर सकता है, दूसरा कोई नहीं, सवर्ण तो कदापि नहीं.

व्यक्तिगत रूप से मैं न चुनाव में विश्वास करता हूंं, न ही भारतीय संविधान में. जब कोई तथाकथित कम्युनिस्ट भारतीय संविधान की दुहाई देता है तो हंसी आती है.

अंत में, मध्यममार्गी राजनीति का अस्तित्व भी इवीएम की मौत में छुपी है. आप इसे मेरा अरण्य रोदन कह सकते हैं, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि मेरा विश्वास चुनाव के मौजूदा स्वरूप पर है ही नहीं.

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता

आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ (1988) को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण तथ्य…