हो सकता है कि
इस कविता के आख़िर में
तुम्हें कोई
पूर्णविराम नहीं मिले
हो सकता है कि
इस कविता को
लिखने के बाद
मैं कुछ लिखने
और कहने के लिए
नहीं बचूँ
क्यों कि
वे निशाना बना रहे हैं
शब्दों को
उन शब्दों को
जो मंगरुआ के मुँह से
कभी निकले ही नहीं
ढोर गंवार शुद्र पशु नारी के साथ
रहते हुए
जो बन गए हैं
ताड़न के अधिकारी
वे इशारों में बातें करते हैं
बहती हुई नदी और
थमी हुई आँधियों से
जंगल में चरते
ढोर से
आसमान में उड़ते
परिंदों से
वे
घर लौटते हुए
परिंदों की उड़ान में
दिनांत का संदेश पा कर
आवाज़ देते हैं
अपने ढोर को
वर्ना
वे भी जानते हैं
पेड़ों पर बीताना रात
मंगरुआ
जो कि जीता आया है
ध्वनि और शब्दों के बीच
अक्षर ज्ञान के परे
सुन लेता है
आसमान में तैरते
बादल की भाषा
तुम उसके लिए
गोलंबर बनाते हो
सुअर बाड़े की शक्ल में
जहां पर जुतियाये जाते हो
तुम्हारे सहोदर के हाथों
तुम्हारे लिए
भाषा का महत्व है
मंगरुआ मस्त है
उसे आता है
पत्थरों के सीने में
रोपना आग
- सुब्रतो चटर्जी
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