हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ता
अगर आप सोचते हैं कि सभी इंसानों की बराबरी और समाजवाद का विचार मार्क्सवादी वामपंथियों का है, तो आप गलत सोच रहे हैं. मार्क्स का जन्म तो 1818 में हुआ. मार्क्स ने किताब लिखी और बताया कि पूंजी का निर्माण कैसे होता है ? लेकिन यूरोप में सभी इंसानों की बराबरी की लड़ाई तो मार्क्स के पैदा होने से तीस साल पहले 1789 में ही शुरू हो गई थी.
पहले सारी दुनिया में राजाओं का शासन था. फ्रांस में बराबरी और लोकतंत्र के लिए लड़ाई शुरू हुई. हुआ यूं कि फ्रांस में राजा ने जनता पर टैक्स बहुत बढ़ा दिए. जनता को रोटी यानी ब्रेड के लिए लम्बी लाइनों में लगना पड़ रहा था. फ्रांस के राजा ने जनता पर नए टैक्स लगाने का प्रस्ताव किया. जनता भड़क गयी. लोगों ने बगावत कर दी. जनता के बीच में कई सारे राजनैतिक विचारक पहले से ही बगावत की बातें भर रहे थे. मीडिल क्लास के पढ़े-लिखे लोग कहने लगे थे कि सभी लोग बराबर हैं. और किसी को जन्म से ऊंचा नहीं मानना चाहिए बल्कि उसकी योग्यता के मुताबिक लोगों को माना जाए.
राजनैतिक विचारक रूसो ने मार्क्स के जन्म के पचास साल पहले ही लिख दिया था कि सरकार की तीन अंग होने चाहिए पहला संसद, दूसरा सरकार और तीसरा न्यायपालिका. आज भारत में इसी आधार पर तो लोकतंत्र चलाया जा रहा है. फ्रांस में जनता ने टाउन-हॉल में इकट्ठा होकर फ्रांस का नया संविधान बना दिया और डर कर राजा ने भी उसे स्वीकार कर लिया. लेकिन राजा ने बाद में बदमाशी शुरू की तो जनता ने राजा और रानी को मार डाला.
आप में से बहुत सारे लोग रूस का नाम लेकर वामपंथियों को गाली देते हैं. और कहते हैं कि देखो रूस में तुम्हारा वामपंथ खत्म हो गया. अब तुम लोग किस मूंह से साम्यवाद की बातें कर रहे हो ? रूस में समाजवाद कम्युनिस्ट नहीं लाये. रूस, इटली और फ्रांस में राजाओं को हटा कर जनता का राज लाने की बातचीत बहुत पहले ही होने लगी थी.
मेजिनी नामक राजनैतिक विचारक ने षड्यंत्र बनाया कि राजशाही को इटली में कैसे खत्म किया जा सकता है ? मेजिनी के लेखन से भारत के क्रांतिकारी भी बहुत प्रभावित थे. असल में यह वो समय था जब यूरोप में भाप की शक्ति की खोज हो चुकी थी. उसके बाद भाप से चलने वाले कारखाने लगने शुरू हुए.
कारखानों में काम करने के लिए गांव के लोग मजदूरी करने के लिए आने लगे. पूंजीपति इन मजदूरों से सोलह घंटे काम लेते थे. मजदूरों को गंदी बस्तियों में रहना पड़ता था. इन्हें जब चाहे हटा दिया जाता था. इस हालत में बहुत से लोग मजदूरों की भलाई के बारे में सोचने लगे. मजदूर भी अपनी हालत से परेशान होकर हड़ताल करने लगे. आप कहते हैं कि मजदूरों को कम्युनिस्ट लोग हडताल के लिए भडकाते हैं. यह गलत है. तब तो वहां के मजदूर कार्ल मार्क्स को जानते भी नहीं थे.
मजदूरों ने रूस में अपने काम के घंटे कम करवाने के लिए कई हड़तालें की. रूस में समाजवादी क्रान्ति तो 1917 में हुई लेकिन उससे बारह साल पहले भी 1905 में मजदूरों ने क्रांति की एक और कोशिश की थी. इसमें पुलिस की गोली से सौ से भी ज्यादातर मजदूर मारे गए थे. यानी जनता क्रांति की कोशिश पहले से कर रही थी. मार्क्सवादी तो जनता की उस ज़रूरत को पूरा करने का एक जरिया बन गए.
यानी मार्क्स ना भी होते तो क्रांतियां तो तब भी होतीं. आप खुद को उन मजदूरों और किसानों की जगह रख कर सोचिये. क्या आप अपनी बुरी हालत को बदलने के लिए कोशश ना करते ? इसलिए आज कम्युनिस्टों को समानता की कोशिशों के लिए गालियां बकना और उनकी हंसी उडाना बेवकूफी है. समानता की कोशिश तो जनता ने खुद ही की थीं, और कम्युनिस्ट शब्द भी मार्क्स का नहीं है.
रूस में लेनिन के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति से पहले से ही रूस के किसानों ने अपने कम्यून यानी समुदाय स्थापित कर लिए थे. इसलिए ना आप मार्क्सवादियों को कम्युनिस्ट कह कर गाली दे सकते हैं, ना साम्यवादी कह कर क्योंकि साम्य यानी बराबरी की कोशिश सारी दुनिया की जनता ने खुद की. और कम्यून भी जनता ने मार्क्सवादियों के सत्ता में आने से पहले ही बना लिए थे. यह सब बातें आपको एनसीआरटी के नवीं कक्षा की किताब में पढने को मिल सकती हैं.
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