मनीष सिंह
केसरिया हिंदू वस्त्र नहीं है. यह बौद्ध सिंबल है. बुद्ध के चीवर का रंग. श्वेत-वसन जैन साधुओं से अलग दिखने के लिए चैत्य विहार मे भिक्खुओं लिए अलग यूनिफार्म तय की गई थी. जो दूर से ही दिखे – देखो, बौद्ध आ रहा है.
सिंधु घाटी सभ्यता के बाद 500 साल एक अंधकार का युग है. क्या हुआ इस दौर में, कोई नहीं जानता. इसके बाद वैदिक संस्कृति का दौर है. ये गांव में बसने वाले कबीले हैं, गौपालन करते हैं, खेती करते हैं. प्रकृति की पूजा करते हैं. सूर्य देव, चन्द्र देव, अग्नि देव, पवन देव, जल देव, गंगा माता, जमुना माता, सरस्वती माता … हर शै का एक देवता-देवी है.
उनके मंदिर शंदिर नहीं बनाते. पेड़ के नीचे, नदी किनारे, मैदान या वन में पवित्र अग्नि जलाई और बस शुरू हो गए. लेकिन इस धर्म में जातियां हैं. उंच-नीच है, तिरस्कार, विषेशाधिकार, शोषण बाकायदा इंस्टीट्यूशनलाइज है, तो जाहिर है इसका रेबेलियन भी होता है.
वैदिक धर्म से अलग कोई फलसफा और संप्रदाय बनाने वाले आजीवक थे. लेकिन स्पस्ट रूप से पहली बार वैदिक फलसफों से अलग कोई धर्म बना, तो वो जैन थे. अहिंसा, सत्य, ज्ञान, शांति … और सबसे बड़ी बात – समानता.
लेकिन जैन फिर भी एलीट, जागरूक लोगों को आकर्षित करता था. बुद्ध ने असल समाजवाद लाया. समाज की निचली पिछड़ी जातियों को धम्म में प्रवेश दिया. संघ में स्थान दिया.
बुद्ध की शरण, धम्म की शरण, संघ की शरण सबको बराबर उपलब्ध थी. और समानता के लिए एक यूनिफार्म थी – फ्रेश आरेंज यलो.
एवरीबडी हैज टू वियर, आरेंज यलो चीवर. इसके पहले सफेद रंग का बोलबाला था.
सफेद, कपास का रंग है. वीविंग के बाद कोई कलर न लगाया तो कपास सफेद ही रहेगा. आपको कुछ चटक-मटक चाहिए, तो रंग लीजिए नीला, पीला, हरा, गुलाबी. तो आम आदमी के चटक-मटक वस्त्र रंगीन थे. यह रंग बिरंगापन ही असल धड़कता भारत था. इससे विरक्त, अलग रहने वाले वैदिक वानप्रस्थी या जैन साधारण सफेद में रहते.
ऐसे में बुद्ध के लोग अलग कैसे दिखें ? सॉल्यूशन- कलर ड्रेस, जो दूर से दिखे, भगवा !! वनों की हरियाली के बैक ग्राउंड में दिखे, आम लोगों के रंगीन वस्त्रों के बीच दिखे, अभिजात्यों के रंगों के बीच साधारण दिखे. बुद्ध के साथ, बुद्ध का रंग, इज्जत कमाने लगा.
भगवे का सम्मान हुआ. देश देखते-देखते बौद्ध होने लगा. भगवा घर घर फहराने लगा. बराबरी की बात करने वाला जनआंदोलन हो गया. पापुलर, राजनैतिक खतरा हो गया तो इसको कन्ट्रोल की जरूरत हुई.
एक दौर आया, जब बौद्धों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया. बौद्ध भिक्खु खोज खोजकर मारे गए. एक भिक्खु का सिर, एक स्वर्णमुद्रा इनाम.
लेकिन भगवा वस्त्र, संबकांशस माइण्ड में पवित्रता का प्रतीक तो हो चुका था, सो मारने वालों ने, भिक्खुओं की लाशों से चीवर उतार, खुद पहन लिया. बुद्ध की धरती से बौद्ध मिट गए. लेकिन चीवर, त्याग और वैराग्य का प्रतीक बना रहा.
वक्त का मजाक देखिए, गृहस्थ, धंधेबाज और राजमहलों में लोग चीवर पहनकर बैठे हैं. स्वयं तमाम सुखों और ऐशोआराम के बीच रहकर, भक्तजनों को वैराग्य का संदेश देते हैं.
अब चीवर का रंग आक्रामकता की पहचान है. आप किसी को कपड़े से पहचानते हैं, तो वो भी आपको गमछे से पहचानते हैं. सामान्य धारणा है कि गले में भगवा गमछा है, तो उधार की सोच, उधार का फलसफा, उधार का सीमित ज्ञान होगा. अडियल, गालीबाज, विघ्नसंतोंषी होने की संभावना है.
व्हाटसप ग्रुप से इतिहास, धर्म और राजनीति की ‘दूषित शिक्षा’ लेकर आए इन मासूमों को कतई नहीं मालूम कि गमछे का केसरिया, पार्टी का सिंबल जरूर है. हिदुत्व का, भारत का, ईश्वर का एकमात्र रंग नहीं है.
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