मौसम उतना उद्विग्न नहीं करता
जितना कि जलते सवालों का संदर्भ
मैं पार कर लूंगा
देह के चौड़े पाटों में बहती
व्यथा की उद्वेगी नदी
पेंटागन का अध्यादेश
चिपका है यातना शिविर के
लौह कपाट पर
तकाबी की शोभा यात्रा में ओझल है
मेरे अकाल प्रदेश की
फटी बिवाइयां
चौकसी स्तंभों पर तनी संगीनों के बीच
मेरी अभिव्यक्ति के संबल
पार कर लेंगे
कंटीले तारों की बाड़
अपनी मौत बाद
शब्द ही बनेंगे
शहीद स्मारक की ईंटें
आंसू के चंद कतरे
तुम्हारे जीवित मन के सरोकारों में
टूटेंगे एक न एक दिन
उस सफेद कबूतर के अंधे मंसूबे
मेरी मौत की दहशत
उसकी मौत के मजबूत शिकंजे में है
मैं अब भी अपने आकाश के
उसी अराजक कोने में बसना चाहता हूं
जिस दौर ने मुझे सहारा दिया था
सब के सब पीछे छूट गये
सीढ़यों के नाम लिखी जाती रही
उपेक्षा और विस्मृति
- राम प्रसाद यादव
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