पुण्य प्रसून वाजपेयी
नरेन्द्र मोदी का 2 फरवरी, 2014 का भाषण और 28 मार्च, 2019 का भाषण जरुर सुनना चाहिये क्यांकि दोनों भाषण के जरीये मोदी ने लोकसभा चुनाव में भाषण देने की रैलियों से शुरुआत की. और किस तरह पांच बरस में मुद्दों को लेकर, शब्दो को लेकर, सोच को लेकर, विचार को लेकर, सिस्टम को लेकर या फिर देश कैसा होना चाहिये, इस सोच को परोसने में कितना दिवालियापन आ जाता है, इसकी कल्पना करने की जरुरत नहीं है. सिर्फ उन्हीं के मेरठ रैली के भाषणों को सुन कर आप ही को तय करना है.
2 फरवरी, 2014 और 28 मार्च, 2019 का अंतर सिर्फ तारीख भर का नहीं है बल्कि भारत जैसे देश में कोई सत्ता कैसे पांच बरस में हांफंने लगती है, कैसे पांच बरस में सपने जगाने का खेल खत्म होता है, पांच बरस में कैसे चेहरे की चमक गायब हो जाती हैए पांच बरस बाद कैसे पांच बरस पहले का वातावरण बनाने के लिये कोई क्या-क्या कहने लगता है, सब कुछ इन दो तारीखों में कैसे जा सिमटा है ? इसके लिये 2 फरवरी, 2014 में लौट चलना होगा जब मेरठ के शताब्दी नगर के मैदान में विजय संकल्प रैली के साथ नरेन्द्र मोदी अपने प्रधानमंत्री बनने के लिये सफर की शुरुआत करते हैं और प्रधानमंत्री बनने के लिये जो उत्साह जो उल्लास बतौर विपक्ष के नेता के तौर पर रहता है और जिस उम्मीद को जगा कर प्रधानमंत्री बनने के लिये बेताब शख्स सपने जगाता है, सब कुछ छलक रहा था.
तब सपनों के आसरे जनता में खुद को लेकर भरोसा पैदा करने के लिये सिस्टम – सत्ताधारियों से गुस्सा दिखाया गया. गुस्सा लोगों के दिल को छू रहा था. नारे मोदी-मोदी के लग रहे थे, तब कुछ स्वतःस्फूर्त हो रहा है, तब महसूस यही हुआ लेकिन वही शख्स पांच बरस बाद 28 मार्च, 2019 को बतौर प्रधानमंत्री जब दोबारा उसी मेरठ में पहुंचता है और पांच वर्ष पहले की तर्ज पर चुनावी रैली की मुनादी के लिये मेऱठ को ही चुनता है तो पांच बरस पहले उम्मीद से सराबोर शख्स पांच बरस बाद डरा सहमा लगता है. उत्साह-उल्लास का मुखौटा लगाये होता है. किसान-मजदूर का जिक्र करता है तो वह भी मुखौटा लगता है.
जनता में उम्मीद और भरोसा जगाने के लिये सिस्टम या सत्ताधारियों के प्रति आक्रोश नहीं दिखाता बल्कि सपनों की ऐसी दुनिया को रचना चाहता है जहां सिर्फ वह खुद ही हो. वह खुद ही देश हो. खुद ही संविधान हो. खुद ही सिस्टम. खुद ही आदर्श हो, तो ऐसे में शब्दबाण सही गलत नहीं देखते बल्कि शब्दों का ही चीरहरण कर नई-नई परिभाषा गढ़ने की मदहोशी में खो जाते हैं, उसी से निकलता है ’सराब’.
तो कुछ भी कहने की ताकत प्रधानमंत्री पद में होती है … लेकिन कुछ भी कहने की सोच कैसे बातों के खोखलापन को उभार देती है, ये भी खुले तौर पर उभरता है. यानी 2014 में मेरठ से शुरु हुये चुनावी प्रचार की मुनादी में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के जरीये कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन पर निशाना साधने का माद्दा नरेन्द्र मोदी रखते हैं, लेकिन 2019 में उनके सामने कांग्रेस नहीं बल्कि सपा-आरएलडी-बसपा का गठबंधन है. तो वह तीनों को मिलाकर “सराब“ शब्द की रचना कर देते हैं. मौका मिले तो यू ट्यूब पर नरेन्द्र मोदी का 2 फरवरी, 2014 का भाषण और 28 मार्च, 2019 का भाषण जरुर सुनना चाहिये क्यांकि दोनों भाषण के जरीये मोदी ने लोकसभा चुनाव में भाषण देने की रैलियों से शुरुआत की. और किस तरह पांच बरस में मुद्दों को लेकर, शब्दो को लेकर, सोच को लेकर, विचार को लेकर, सिस्टम को लेकर या फिर देश कैसा होना चाहिये, इस सोच को परोसने में कितना दिवालियापन आ जाता है, इसकी कल्पना करने की जरुरत नहीं है. सिर्फ उन्हीं के मेरठ रैली के भाषणों को सुन कर आप ही को तय करना है.
वैसे ‘सराब’ शब्द ‘शराब’ होती नहीं लेकिन भाषण देते वक्त देश के प्रधानमंत्री मोदी को शायद इतिहास के पन्नों में झांकने की जरुरत होनी चाहिये या फिर उन्होंने झांका तो जरुर होगा. क्यांकि 2014 के भाषण में वह 1857 के गदर का जिक्र कर गये थे तो 2019 में ‘सराब’ शब्द से शायद उन्हें गालिब याद आ रहे होंगे क्योंकि गालिब तो 1857 में भी दिल्ली से मेरठ शराब लेने ही जाया करते थे.
खैर, इतिहास को देश के प्रधानमंत्री की तर्ज पर याद करने लगेंगे तो फिर इतिहास भी कितना गड्डमगड्ड हो जायेगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है और समझ के खोखलेपन की कल्पना तो अब इस बात से भी की जा सकती है कि कैसे चौबिसो घंटे सातों दिन न्यूज चैनलों पर बीजेपी के प्रवक्ता या मोदी कैबिनेट के मंत्री क्या कुछ आकर कहते है. शब्दों की मर्यादा को प्रवक्ता भूल चुके है या फिर उनकी सत्ता का वातावरण ही उन्हे ऐसी स्थिति में ले आया है, जहां उनका चिल्लाना, झगडना, गाली-गलौच करना, बिना सिर-पैर के तर्क गढ़ना, आंकडों का पहाड खड़ा कर मोदी से उस पर तिरंगा फहरा देना. फिर सीमा की लकीर समाज – समुदाय के भींच खींचकर शहादत के अंदाज में खुद को देशभक्त करार देना या फिर सामने वाले को देशद्रोही करार देते हुये खुद को देशभक्ति का तमगा दे देना. खोखले होते बैंकों तले देशहित जोड देना.
घटते उत्पादन और बढ़ती बेरोजगारी से अपने ईमानदार होने के कसीदे गढ़ लेना. जाहिर है जो लगातार कहा जा रहा है और जिस अंदाज में कहा जा रहा है, वह सियासत की संस्कृति है या फिर वाकई देश को बीते पांच बरस में इतना बदल दिया गया है कि देश की संस्कृति ही गाली-गलौच वाली हो गई. लिचिंग से लेकर लाइन में खडे होने तक से मौत. गौ वध के नाम पर हत्या. आंतक-हिंसा को कानून व्यवस्था के फेल होने की जगह धर्म या समुदायों में जहर घोलने का हथियार. बिगड़ती इकोनॉमी से बेहाल उद्योग त्रासदी में फंसे व्यापारी और काम ना मिलने से दो जून की रोटी के लिये भटकते किसान मजदूर के सामने भ्रष्ट्राचारमुक्त भारत के लिये उठाये कदम से तुलना करना. शिक्षा के गिरते स्तर को पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था से तुलना कर भारतीय संस्कृति का गान शुरु कर देना.
जाहिर है जब सत्ता में है तो जनता ने चुना है, के नाम पर किसी भी तरह की परिभाषा को गढ़ा तो जा सकता है और देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठा शख्स संविधान को ढ़ाल बनाकर पदों की महत्ता तले कुछ भी कहने-सुनने वालों में भरोसा रहता है कि झूठ-फरेब तो ऐसे पदों पर बैठकर कोई कर नहीं सकता या कह नहीं सकता. लेकिन पांच बरस की सत्ता जब दोबारा उसी संवैधानिक पद पर चुने जाने के लिये चुनावी मैदान में “सराब“ की परिभाषा तले खुद की महानता का बखान करें, तो फिर अगला सवाल ये भी है कि क्या देश इतना बदल चुका है जहां बीजेपी के प्रवक्ता हो या दूसरी पार्टियों के नेता और इन सबके बीच एंकरो की फौज.
जिन शब्दों के साथ जिस लहजे में ये सभी खुद को प्रस्तुत कर रहे हैं, उसमें इनके अपने परिवार के भीतर ये मूखर्तापूर्ण चर्चा पर क्या जवाब देते होंगे. बच्चे भी पढ़े-लिखे हैं और मां-बाप ने भी अतीत की उस राजनीति को देखा है जहां प्रधानमंत्री का भाषण सुन कर कुछ नया जानने या समझदार नेता पर गर्व करने की स्थितियां बनती थी. लेकिन जब कोई प्रधानमंत्री हर सेकेंड एक शब्द बोल रहा है. टीवी, अखबार, सोशल मीडिया, सभी जगह उसके कहे शब्द सुने-पढ़े जा रहे हैं और पांच बरस के दौर में नौकरशाही या दरबारियों के तमाम आईडिया भी खप चुके हैं, तो फिर भाषण होगा तो जुबां से “सराब“ ही निकलेगा, जिसका अर्थ तो ‘मृगतृष्णा’ है लेकिन पीएम ने कह दिया कि ‘स’ और ‘श’ में कोई अंतर नहीं होता.
फिर मान लीजिये ’सराब’ असल में ’शराब’ है. और याद कर लीजिये 1857 के मेरठ को, जहां की गलियो में दिल्ली से निकल कर गालिब पहुंचे हैं और गधे पर ’सराब’ लाद ये गुनगुनाते हुये दिल्ली की तरफ रवाना हो चुके हैं. … आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक/कौन जीता है तिरी जुल्फों के सर होने तक …’
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