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भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता

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भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता
भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता
कृष्ण समिद्ध

आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ (1988) को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण तथ्यों को महसूस किया जा सकता है. पहला तथ्य यह है कि ‘भागी हुई लड़कियां’ में जेंडर की पहचान और संबंधों की गहरी समझ की कमी है, जो इसे राजनीतिक और यथार्थवादी दृष्टि से समस्याग्रस्त बनाती है और कविता अंततः स्त्री विरोधी पुरुष-फैंटेसी के रूप में परिणत होती है.

दूसरा तथ्य यह है कि भले ही आलोक धन्वा अपनी कई लंबी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं, मगर कवि के तौर पर उनके पास लंबी कविता के लिए आवश्यक तैयारी और धैर्य की कमी है, जैसा कि मुक्तिबोध की लंबी कविताओं में देखा जाता है. इस कारण आलोक धन्वा की छोटी कविताएं लंबी कविताओं की तुलना में अधिक प्रमाणिकता और प्रभावी ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करती हैं.

भारतीय साहित्य और समाज में स्त्री के विरोध उर्फ भागने की एक लंबी परंपरा अलग-अलग रुपों में है. आलोक धन्वा की यह कविता विमल मित्र के उपन्यास ‘साहब बीबी गुलाम’ की तरह इसी परंपरा में है. विमल मित्र का ‘साहब बीबी गुलाम’ कलकत्ता शहर के बसने, बढ़ने और फैलने का दिलचस्प आख्यान है, इसकी मूल कथा भी ‘आनर-किलिंग’ की कथा है.

उपन्यास में हर रात बग्घी में बैठकर तवायफ़ के कोठे की ओर निकल जानेवाले जमींदार परिवार के छोटे बाबू एक तवायफ के लिए दूसरे जमींदार से झगड़ पड़ते हैं और झगड़े में अपंग हो जाते हैं. अपने अपंग पति की सलामती के लिए छोटे बाबू की पत्नी छोटी बहू नायक भूतनाथ के साथ किसी सिद्ध पुरुष के आश्रम की ओर निकलती है.

घर से निकली छोटी बहू को तवायफ़ की महफ़िल का आनन्द लेने वाले भैंसुर शक के आधार पर उसी घर से बाहर की य़ात्रा के दौरान अगवा कर औऱ मारकर हवेली में ही गाड़ देते हैं. हाल के किसी भी ऑनर किलिंग की घटना में इसका पुर्नघटन देखा जा सकता हैं. स्त्री का शरीर केवल युद्धकाल में ही नहीं शांतिकाल में भी पुरुष प्रतिष्ठा के प्रश्न में कैद रहता है.

पुरुषवादी और सामंतवादी भारतीय परिवार में किसी स्त्री का अपनी इच्छा से प्रेम और शादी करना परिवार की शुचिता के खिलाफ है. और यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि निम्न, मध्य और उच्च वर्ग सभी वर्ग बिना किसी वर्गसघर्ष के इस पर सहमत है और इसके खिलाफ स्त्री के तन और मन की हत्या आम बात है. दैहिक हिंसा समस्या अवश्य है, मगर आत्मा का नाश करने वाली मानसिक हिंसा उससे अधिक भयानक और व्यापक समस्या है.

इसी समाज से बने भाषा के इस शब्द संस्कार ने अपनी बेटी या बहन की हत्या के इस कुकृत्य को ‘आनर-किलिंग’ जैसी सम्मानित संज्ञा दी है. आदिम काल से इस पारिवारिक हिंसा की कथा जारी है. बकौल कवि आलोकधन्वा ‘घर की ज़जीरें / कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं / जब घर से कोई लड़की भागती है.’ (संदर्भ , पृ-41, आलोकधन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015)

इस अदभुत शुरुआत के बाद कविता का अंत ‘तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी / किसी स्त्री के सीने से लगकर’ से होता है. (संदर्भ, पृ-46, आलोकधन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015) स्पष्ट है कि कवि की मूल चिंता स्त्री पर होने वाली दैनिक हिंसा से भटक जाती है और उसकी दृष्टि में पुरुष के द्वारा स्त्री होकर स्त्री के सीने से लगने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा.

‘भागी हुई लड़कियां’ में छः खंडों के माध्यम से एक क्रमिक घटनाक्रम और थीम विकसित की गई है, जो स्त्री की भागने की क्रिया और समाज की प्रतिक्रियाओं को दर्शाती है. कविता के पहले खंड की पहली पंक्ति –

‘घर की जंजीरें
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है’ (भागी हुई लड़कियां)

यह पंक्ति इतनी ताकतवर है कि यह अपने आप में एक पूर्ण कविता की तरह है लेकिन जैसे ही कवि कविता को विस्तार देता है, स्त्री के विद्रोह को फिल्मी बिंबों में पेश किया गया है, जो वास्तव में स्त्री के वास्तविक संघर्ष का रोमांटिककरण है.

इसमें एक विधागत समस्या भी निहित है. जब एक कला में दूसरी कला विधा का प्रयोग किया जाता है, तो दूसरी विधा के पर्याप्त तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण गलत अनुवाद संभव होता है. आलोक धन्वा अपनी कविता में फिल्मी बिंबों को कविता की गरिमा से बचाने का प्रयास करते हैं, लेकिन फिल्मी दृश्य का इससे भी कमजोर प्रयोग मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ में भी देखा जा सकता है.

घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी,
अंतराल-विवर के तम में
लाल-लाल कुहरा. (अंधेरे में -गजानन माधव मुक्तिबोध )

‘लाल-लाल कुहरा’ कहने से किसी सस्ती तिलस्मी फिल्म का दृश्य सामने आता है. दरअसल फिल्म एक विकासशील कला विधा है, जहां जॉर्ज लुकास के स्पेशल इफेक्ट्स आज बचकाने लगते हैं. समय और समझ के साथ दृश्य बिंबों का प्रयोग कमजोर या मजबूत हो सकता है.

हालांकि, मुक्तिबोध इस अलहड़ और मुखर दृश्य बिंब में भी ‘अंधेरे में’ के तनाव से विचलित नहीं होते हैं. आलोक धन्वा ‘घर की जंजीरें’ की कठोर बात कहकर एक फिल्मी या दृश्य बिंब रचते हैं, जो दृश्यात्मक सुकून देता है. यह पुरुषवादी दृष्टिकोण से एक मनोरंजन की तरह है, जैसा कि इस तरह की घटनाओं के बाद पुरुष चर्चा-रस में करते हैं. इस रोमांटिकरण से स्त्री की विडंबना और तकलीफों की मूल भावना द्वितीयक हो जाती है.

‘बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी ?
और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले !’

दूसरे खंड में कविता उस खत का उल्लेख करती है जो लड़की भागने से पहले छोड़ जाती है –

‘तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं
कभी वह खत…
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से
उसका संवाद…..
उसकी सात पालों वाली नाव’

दुसरे खंड का यह आरंभ भी उतना ही श्रेष्ठ है, जितना पहले खंड का है. यहां पर समाज द्वारा स्त्री की आवाज को दबाने और उसकी स्वतंत्रता की संभावना को छीनने का चित्रण मिलता है. मगर आगे यह खंड खत्म होती है दुपट्टे के झुटपुटे पर, जो एक ‘पॉपुलर मेल गेज’ है.

‘एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में ?’

कविता उस भागती हुई स्त्री के दृष्टिकोण की बजाय पुरुष के दृष्टी पर केंद्रित रहती है. यह वैसा ही बकरी का इतिहास शेर के दृष्टिकोण दिखाई जा रही हो. तीसरे खंड में दुसरे खंड की ही पुनरावृति है. अलग और उतने ही काव्यात्मक तरीके से समाज द्वारा लड़की को मिटाने की कोशिशों का उल्लेख है. इसी में पांच पंक्तियां चमकती हैं, जो अपने आप में पूर्ण कविता है –

‘उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !’

मगर कुलीनता की हिंसा खत्म हो जाती है अंततः ‘तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई/ खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में.’

चौथे खंड पुरे कविता में क्षेपक की तरह है. यह स्त्री की कथा है, स्त्री की नजर से. ‘अगर एक लड़की भागती है तो यह हमेशा जरूरी नहीं है कि कोई लड़का भी भागा होगा’ – यह पंक्ति परंपरागत पितृसत्तात्मक विचारधारा पर सीधा प्रहार करती है, जो अक्सर स्त्री की स्वतंत्रता को पुरुष के साथ जोड़कर देखती है.

पितृसत्ता में स्त्री की भागने या विद्रोह करने की क्रिया को अक्सर किसी प्रेम प्रसंग या पुरुष से जोड़कर देखा जाता है. लेकिन कवि इस पूर्वधारणा को तोड़ते हुए यह बताते हैं कि स्त्री अपनी स्वतंत्रता के लिए और अपने जीवन के नए आयामों की खोज के लिए भी भाग सकती है. अगर यह कविता यहीं खत्म हो जाती, तब पुरुष फैंटसी एक शिल्पगत प्रयोग के रुप में उचित ठहराया जा सकता था. मगर आगे के दो खंड और खासकर कविता का अंत यह ही साबित करता है कि कविता पुरुष फैंटसी ही है.

पांचवें खंड में स्त्री की पहचान के अलग-अलग पहलुओं, जैसे पत्नी, प्रेमिका, और वेश्या के बीच के विभाजन को दर्शाता है. कवि स्त्री की स्वतंत्रता की संभावना की बात अवश्य करता है, पर स्त्री स्वतंत्रता के साथ ही पुरुष के मन में व्याप्त आतंक को उजागर करता है. स्त्री की स्वतंत्रता से पुरुष कितना भयभीत हो सकता है, यह यहां स्पष्ट होता है –

‘तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है’

छठे और अंतिम खंड में कविता मानसिक और वास्तविक भागने के अंतर को स्पष्ट करती है. कवि स्त्रियों की सामूहिक असहमति को एक आंतरिक विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करता है –

‘कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में’

कई लड़कियां अपने विचारों और डायरी में मन ही मन भाग चुकी होती हैं, भले ही वे शारीरिक रूप से नहीं भागी हों. यह खंड स्त्री की आंतरिक स्वतंत्रता और विद्रोह की बात करता है. यह खंड इस बात की ओर संकेत करता है कि कितनी ही स्त्रियां मानसिक रूप से, अपनी सोच में, अपने सपनों में भाग चुकी हैं.

इस मानसिक विद्रोह को कवि स्पष्ट करता है, लेकिन यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस पूरे चित्रण में स्त्री का भागना सिर्फ पुरुष की कल्पना के रूप में ही सामने आता है. स्त्रियों का भागना एक व्यक्तिगत अनुभव से ज्यादा एक सामाजिक गॉसिप – कथा सा बन जाता है, जहां स्त्री की इच्छाओं और संघर्षों को पुरुषवादी दृष्टि से देखा जाता है और मजा लिया जाता है और यही कारण है कि कविता का अंत वहीं है जो एक पुरुष चाहता है –

‘तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
सिर्फ आज की रात रुक जाओ’

कविता के अंत में स्त्री के आलिंगन में लिपटा हुआ पति या प्रेमी का दृश्य एक प्रतीकात्मक विद्रोह जैसा कुछ प्रस्तुत करता है, लेकिन इस विद्रोह की प्रकृति इतनी ‘आलिंगनशील’ और कोमल है कि पुरुष सत्ता इसे बिना किसी चुनौती के प्रेमपूर्वक स्वीकार कर सकती है.
यह दर्शाता है कि कविता में जिस विद्रोह को प्रस्तुत किया गया है, वह केवल सतही है और सत्ता संरचनाओं को कोई वास्तविक चुनौती नहीं देता.

यह एक प्रकार का ‘प्रेमपूर्ण खेल’ या ‘फोरप्ले’ है, जिसमें विद्रोह केवल प्रतीकात्मक और सांकेतिक रह जाता है, जबकि सत्ता अपनी स्थिति को बनाए रखती है और यहां तक कि इस विद्रोह को अपने भीतर समाहित कर लेती है.

मिशेल फूको ने अपनी पुस्तक ‘The History of Sexuality’ (1976) में लिखा ‘शक्ति केवल दमनकारी बल नहीं है, बल्कि यह संबंधों का एक जटिल नेटवर्क है जो हमारे व्यवहार, विचार, और इच्छाओं को विनियमित करता है.’ इस तरह, शक्ति का काम केवल लोगों पर हावी होना या उन्हें दबाना नहीं है, बल्कि यह लोगों की संभावनाओं और विरोध को भी आकार देती है. इसी प्रकार, कविता में विद्रोह को जिस तरीके से पेश किया गया है, वह वास्तविक परिवर्तन का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि पुरुष सत्ता के लिए इसे और अधिक स्वीकार्य बना देता है.

जूडिथ बटलर का ‘Gender Trouble‘ यह स्पष्ट करता है कि शक्ति और लिंग भूमिकाओं के बारे में हमारे विचार समाज द्वारा निर्मित होते हैं और इन्हें निरंतर पुनरुत्पादित किया जाता है. कविता का अंत भी इसी पुनरुत्पादन का एक उदाहरण है, जहां विद्रोह केवल एक सांकेतिक विरोध बनकर रह जाता है और सत्ता संरचनाओं को चुनौती देने की बजाय उन्हें मजबूती प्रदान करता है.

बटलर का यह तर्क कि ‘लिंग और शक्ति की परिभाषाएं अनिवार्य रूप से सामाजिक हैं और यह निरंतर बदलती रहती हैं’ भी यहां लागू होता है. कविता में जिस तरीके से विद्रोह को ‘स्त्री हृदय पुरुष के आलिंगन’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह एक पारंपरिक और सीमित दृष्टिकोण से आता है, जहां स्त्री का विद्रोह भी एक पुरुषवादी ढांचे में बंधा हुआ है. इस कविता का ‘यह अंत’ जैसा फूको ने कहा, ‘एक नियंत्रित और विनियमित प्रक्रिया है,’ जहां शक्ति संरचनाए विरोध को केवल उतना ही बढ़ने देती हैं, जितना उन्हें स्वीकार्य हो.

इस कविता के इन छः खंडों को पढ़ते हुए, शुरुआत के चार खंडों से गुजरने पर यह महसूस होता है कि हर खंड की पहली पंक्ति या पैराग्राफ अपने आप में पूर्ण कविता है. लेकिन जैसे ही कवि इन ‘काव्य पंक्तियों’ को पकड़कर आगे अज्ञात की ओर बढ़ता है, वह अपने ‘अंधेरे में’ प्रवेश कर जाता है. इस ‘अपने अंधकार’ का एक ठोस कारण है, वह यह है कि ‘भागी हुई लड़कियां’ में जेंडर की पहचान और संबंधों की गहरी समझ की कमी है, जो इसे राजनीतिक और यथार्थवादी दृष्टि से समस्याग्रस्त बनाती है.

यह कविता में कहीं – कहीं जेंडर और शक्ति के जटिल पहलुओं को इतने सरलीकृत तरीके से प्रस्तुत करती है कि यह यथार्थ विरोधी और अवास्तविक प्रतीत होती है. जेंडर कोई स्थिर पहचान नहीं है, बल्कि यह एक प्रदर्शन है जो समाज और संस्कृति द्वारा लगातार रचा जाता है. कविता में पिता, पति और लड़की को एक निश्चित और स्थिर भूमिका में दिखाया गया है, जो जेंडर की पहचान के इस परिवर्तनशील और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू को अनदेखा करता है. जेंडर एक प्रक्रिया है, जिसे बार-बार निभाया जाता है, वह कविता में अनुपस्थित है.

आलोक धन्वा की कविता का अर्थ और खुलता है, जब उसे उनकी अन्य कविताओं के संदर्भ में पढ़ा जाए इसलिए ‘भागी हुई लड़कियां’ का अर्थ और स्पष्ट होता है जब इसे ‘छतों पर लड़कियां’ के साथ पढ़ा जाये. 1992 में लिखी गई ‘छतों पर लड़कियां’ मुझे ‘भागी हुई लड़कियां’ कविता का प्रारंभिक टुकड़ा जैसी प्रतीत होती है, भले ही उसे चार साल बाद लिखा गया हो. यह भी पुरुष फैंटेसी और मेल गेज का संपूर्ण उदाहरण है, जहां बेरोजगार से प्रेम तक की बात ठीक थी, मगर स्त्रियां लफंगों से भी प्रेम करने के लिए अभिशप्त दिखाई गई हैं. इसी कविता में –

‘कुछ बेरोज़गार हैं और कुछ नौकरीपेशा,
और कुछ लफंगे भी
लेकिन उन सभी के ख़ून में
इंतज़ार है एक लड़की का !
उन्हें उम्मीद है उन घरों और उन छतों से
किसी शाम प्यार आयेगा !’

आलोक धन्वा के बार-बार पुरुष फैंटेसी की ओर जाने का एक कारण यह भी है कि उनकी लंबी कविताओं में आवश्यक तैयारी और धैर्य की कमी हो सकती है, जो कि मुक्तिबोध जैसे कवियों में देखने को मिलता है. इस अभाव की पूर्ति के लिए यथार्थ को अपनी ‘अक्रमिक स्मृति संस्करण’ से बदल देते हैं. यह बात उनकी दूसरी प्रसिद्ध कविता ‘सफेद रात’ में भी देखा जा सकता है.

सफेद रात जंगल से शहर, शहर से बगदाद, फिर कोई शहर , लखनऊ, फिर भगत सिंह – पुरी कविता टाईम ट्रैवेल करती रहती है. इससे होता यह है कि इनकी कविता टीक कर कहीं बैठ नहीं पाती है और एक सुंदर काव्य पंक्ति से दूसरे पर छलांग लगाते रहती है. यह बात विशेष रूप से तब महत्वपूर्ण होती है जब लंबी कविता में एक निरंतर और गहन संवेदनात्मक और विचारात्मक प्रवाह की आवश्यकता होती है, जिसका अभाव ‘भागी हुई लड़कियों’ में है और इसे लघुपरक लंबी कविता बनाती है.

लंबी कविता की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह कवि को एक जटिल विचारधारा और गहन भावनात्मक स्थिति का चित्रण करने की स्वतंत्रता देती है. लंबे काव्य रूप में, कवि के पास विचारों और भावनाओं को अधिक विस्तार से और गहराई से व्यक्त करने का अवसर होता है.

T.S. Eliot ने अपने निबंध ‘Tradition and the Individual Talent’ (1919) में उल्लेख किया है कि एक लंबी कविता या महाकाव्य एक कवि को ‘यथार्थ के कई स्तरों को एक साथ समेटने’ की अनुमति देती है और इससे गहरी और व्यापक सोच का विकास होता है. Eliot का कहना है, ‘The poet is a maker of new forms of experience.’

आलोक धन्वा की छोटी कविताएं, जैसे कि ‘चौक’ (1992) और ‘एक जमाने की कविता’ (1995), उनकी आत्मकथात्मकता और संवेदनात्मक गहराई को बेहतर ढंग से व्यक्त करती हैं. ये कविताएं न केवल व्यक्तिगत अनुभवों को संक्षेप में प्रस्तुत करती हैं बल्कि यथार्थ की जटिलताओं को भी सटीकता से दर्शाती हैं. इन कविताओं में आलोक धन्वा ने अपने व्यक्तिगत और सांस्कृतिक अनुभवों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है.

कविता की प्रारंभिक पंक्तियां, जैसे ‘उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा / जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया !’ (संदर्भ – 12, पृ-52, आलोक धन्वा, दुनिया रोज़ बनती है, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015), उनके भावनात्मक और सांस्कृतिक संदर्भों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करती हैं, जो लंबी कविताओं की तुलना में अधिक प्रभावी ढंग से संप्रेषित होती हैं.

आलोक धन्वा की छोटी कविताएं उनके व्यक्तिगत अनुभवों और यथार्थ की जटिलताओं को संक्षेप में व्यक्त करके अधिक प्रमाणिकता प्रदान करती हैं, जबकि लंबी कविताओं में विचारों और भावनाओं की निरंतरता और गहराई की कमी साफ दिखती है और जल्दी कहीं रुक जाने की एक हड़बड़ाहट साफ दिखती है.

इस दृष्टिकोण से धन्वा की छोटी कविताएं उनकी रचनात्मकता और संवेदनात्मक गहराई का अधिक सटीक चित्रण करती हैं. बड़ी कविता जैसे ‘भागी हुई लड़कियां’ कई सीमाओं से बाधित है. उदाहरण के लिए कविता के अंत में प्रेमी की स्थिर-प्रेमी रुप की कल्पना की है –

तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
या कुलीन पिता या माता को बस जल्लाद के रुप में देखा गया है –

‘उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर’ (भागी हुई लड़कियां)

यह सीमित चित्रण कविता को संकीर्ण बना देता है, जो जेंडर की जटिलताओं को अनदेखा करता है और इसे यथार्थ से काटकर मात्र एक काल्पनिक मनोरंजन बना देता है. यह समझ इस निष्कर्ष तक पहुंचाती है कि ‘स्त्री-हृदय पुरुष के गले लगने’ से स्त्री की समस्याओं का समाधान हो जाएगा. यह एक हड़बड़ी वाला अस्थिर आग्रह सा है. इसके विपरीत समाज में शक्ति संबंध हर स्तर पर जटिल होते हैं और वे केवल एकतरफा नहीं होते.

शक्ति किसी भी दिशा से और किसी भी रूप में आ सकती है, लेकिन कविता में इसे केवल दो पक्षों के बीच एक सीधी लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया गया है. जबकि समाज में एक स्त्री भागती है, तो दूसरी स्त्री उसका दमन करती है; एक पुरुष दमन करता है, तो कोई पुरुष समर्थन भी करता है. भागने वाली केवल लड़कियां ही नहीं होतीं, लड़के भी भागते हैं. भागना समाज के जड़ रूपों के विरोध में एक शाश्वत प्रतिक्रिया है. इस भागने में जेंडर किसी स्थिर रूप में कार्य नहीं करता, जैसा कि इस कविता में दिखाई देता है –

‘घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो.’

पर इस कविता में कविता की उन संभावनाओं की कुछ तस्करी की गई है. कवि की मूल चिंता स्त्री आत्मा पर होने वाली दैनिक हिंसा होनी चाहिए थी और कई जगह ऐसा प्रयास भी किया भी गया है. मगर जहां-जहां कवि का व्यक्तित्व और रचना शिल्प का प्रभाव प्रबल होता है, वहां स्त्री पर होने वाली दैनिक हिंसा के बजाय कविता पुरुष फैंटेसी की ओर मुड़ जाती है, जो वैचारिक अस्थिरता का परिणाम है. साथ ही शिल्पगत सीमाओं के कारण लंबी कविता सा विस्तार होने के बाद भी हड़बड़ाहट में यह लघुपरक लंबी कविता बनकर रह जाती है.

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