Home गेस्ट ब्लॉग आरएसएस का ‘राष्ट्रवादी मदरसा’

आरएसएस का ‘राष्ट्रवादी मदरसा’

10 second read
0
1
696

आरएसएस का 'राष्ट्रवादी मदरसा'

Vinay Oswalविनय ओसवाल, बरिष्ठ पत्रकार
मनुस्मृति के कटु आलोचक आम्बेडकर की शिक्षाओं को नई मनुस्मृति तथा मनुकालीन समाज को बुर्जुआ हिंदू समाज और आम्बेडकरकालीन हिन्दू समाज को आधुनिक हिन्दू समाज बता कर परस्पर विरोधी विचारों में सामंजस्य बिठाने के अशोक सिंघल के हुनर की तारीफ कौन नहीं करेगा ?

‘बहुसंख्यक कुछ सालों में अल्पसंख्यक हो जाएंगे’, इन जैसे खतरों का शोर मचा आरएसएस 95 सालों से हिंदुओं की भीड़ तो इकठ्ठा करती रही है, पर ये भीड़ भाजपा को सत्ता में पहुंचाने के नाम पर हिंदुत्व को भुला पिछड़ों, अतिपिछड़ों और दलितों में बंट जाती है. सबको सत्ता में भागीदारी चाहिए.

सत्ता में भागीदारी की ललक में, पिछड़े, अति-पिछडे और दलित, सवर्णों के साथ या कभी मौका मिले तो सवर्ण पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलितों के साथ खड़े तो हो जाते है, परन्तु हिंदुत्व के अन्य बहुत से मुद्दों पर वो उतनी ही मजबूती से आरएसएस के साथ खड़े होने को तैयार नही हैं. क्यों ? क्योंकि आज भी मनुवादी सवर्ण समाज पिछड़ों, अतिपिछड़ों और दलितों को हेय दृष्टि से देखता है और यह पीड़ा उन्हें भीतर तक बहुत कचोटती है. समाज में फैले इस भेदभाव को लेकर आरएसएस बहुत बेचैन है. उन्हें हिंदुत्व के नाम पर तिल रखने को जगह मिले तो पूरा पांंव घुसेड़ने की जुगत में लग जाते हैं.

पूरे देश का परिदृश्य यह है कि राम भक्तों के तमाशे में भीड़ इकट्ठी करने के लिए आरएसएस को हमेशा एक जाना-बूझा
दुश्मन खड़ा करना पड़ता है. ठीक वैसे ही जैसे ढोरों को डराने के लिए खेतों में आदमी की आकृति का पुतला (बूझका) खड़ा किया जाता है. इस दुश्मन को समय की नजाकत के अनुसार आरएसएस के अनुयायी और खामखां के खैरख्वाह कभी कुछ कभी कुछ, जैसे कभी ‘दीमक’ तो कभी ‘जमायती’ के नाम देते रहते हैं.

कोरना के दौरान ऐसे ही खैरख्वाह मीडिया के दुष्प्रचार, मीडियाकर्मियों की अमर्यादित भाषा शैली और खाड़ी देशों में कार्यरत भारतीयों की बड़ी संख्या सोशल मीडिया पर अतिसक्रियता ने वैश्विक स्तर पर वर्तमान सत्ता के प्रयासों से बने नए सामरिक आर्थिक समीकरणों पर अपनी काली छाया डालना शुरू कर दिया है. इससे चिंतित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख को यह बयान देने के लिए विवश कर दिया कि ‘कुछ लोगों की गलत हरकतों के लिए पूरी ‘कौम’ को बदनाम नहीं किया जाना चाहिये.’

पूरे विश्व के राजनैतिक विश्लेषक आरएसएस के मुंंह में अनेक जबान होने की बात करते हैं, यानी शीर्ष सङ्गठन से लेकर विभिन्न अनुषांगिक संगठनों द्वारा अलग-अलग अवसरों पर भ्रामक, उलटे-पुलटे बयान देते रहने और वक्त पर परस्पर विरोधी स्थितियों में सामंजस्य बिठाने के हुनर से सभी राजनैतिक विश्लेषक बखूबी परिचित हैं.

वर्ष 1949 में हिन्दू कोड बिल पर इसी आरएसएस ने डॉ. भीम राव आंबेडकर के पुतले फूंके थे. उसी आरएसएस के आजीवन प्रचारक मोदी जी आज भारत के प्रधानमन्त्री हैं. उन्होंने डॉ. आम्बेडकर की 125वीं जयंती 14 अप्रैल, 2016 पर लंदन में आम्बेडकर स्मृतिस्थल पर उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण करने के बाद यह उदगार व्यक्त किये थे – ‘दूसरों के घरों में बर्तन साफ करने वाली का बेटा आज प्रधानमन्त्री है, यह भारत के संविधान जिसके निर्माता डॉ. आम्बेडकर हैं, के कारण ही सम्भव हुआ है.’

अब देखिए मोदी जी के उक्त बयान के ठीक उलट आरएसएस के दूसरे आजीवन प्रचारक, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व संगठन मंत्री (1970वें दशक) राम बहादुर राय ने ‘आउटलुक’ पत्रिका को दिए अपने एक साक्षात्कार में इसी संविधान के लेखन के बारे में क्या विचार व्यक्त किये हैं ? वे कहते हैं कि – ‘यह कपोल कल्पित कथा है कि डॉ. बी. आर. आम्बेडकर ने भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार किया है. डॉ. बी. आर. आम्बेडकर की भूमिका सीमित थी. बी. एन. राव जो मसौदा तैयार करके देते थे, आम्बेडकर उसकी भाषा को संशोधित किया करते थे. उन्होंने संविधान नहीं लिखा था.

आरएसएस का मुखपत्र दिनांंक 6 मार्च, 2011 के अंक में लिखता है – ‘सामान्यतः डॉ. बी. आर. आम्बेडकर को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने भारतीय संविधान की रचना की है. इस बात पर कभी-कभी ही सवालिया निशान लगाए गए हैं परन्तु सत्य यह है कि भारत में साहित्य में रुचि रखने वाला शिष्ट और शिक्षित समाज भी यह नहीं जानता कि संविधान लेखन का ज्यादातर कार्य बी. एन. राव द्वारा किया गया है, जिनकी नियुक्ति संविधान निर्मात्री सभा के सलाहकार के रूप में तत्कालीन वायसराय द्वारा की गईं थी.

यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि आरएसएस और बीजेपी जैसे उसके अनुषांगिक संगठनों को आम्बेडकर को गले के नीचे उतारना और पचाना कतई रास नहीं आता है. सामाजिक संरचना पर दोनों परस्पर विरोधी विचार रखते हैं. फिर भी आरएसएस द्वारा आम्बेडकर की विरासत को अपनी विचारधारा में स्थान देने के गम्भीर प्रयास किये जाते रहे हैं. यह ठीक वैसा ही है जैसे मूर्ति पूजा, अंधविश्वास आदि को बढ़ावा देने वाले सन्तो महंतो के हिन्दू समाज पर वर्चस्व को वैदिक दर्शन का पक्का दुश्मन बताने वाले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती के वर्चस्व को भी आरएसएस ने प्रमुखता से स्थान दिया है. परिणामस्वरूप अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और वहां भगवान राम के प्रतिमा स्थापना आंदोलन के लिए बाबरी मस्ज़िद के विध्वंश में आर्यसमाजियों की बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेनेकी भूमिका एक अविश्वसनीय तमाशे के रूप में सबके सामने आ चुकी है.

आम्बेडकर के मुस्लिम विरोधी विचारों को फैला कर आरएसएस समझती है कि वह ब्राह्मनिज्म और जात-पांत के घोर विरोधी आम्बेडकर की स्वीकार्यता सवर्णों में स्थापित कर सकती है. वह प्रचारित करती है कि ‘आम्बेडकर ने अपने इसी मुस्लिम और ईसाई विरोध के चलते बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था, जिससे दलितों को मुसलमान या ईसाई बनने से रोका जा सके.’

बौद्ध धर्म का उद्भव भारत में ही हुआ है. विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल ने कहा था कि ‘आरएसएस के अनुसार हिंदुस्तान की धरती पर जन्मा हर धार्मिक सम्प्रदाय विराट हिन्दू समाज का ही अंग है.’

मनुस्मृति, गुरुकुल की वर्ण व्यवस्था, जातीय अपमान, सामंती दर्प, हत्या के लिए उकसाने और छल की विरासत को लेकर आरएसएस और आम्बेडकर की परस्पर विरोधी विचारधारा में सामंजस्य बिठाते हुए अशोक सिंघल कहते हैं कि ‘यह मानना नितांत गलत है कि आम्बेडकर मनुस्मृति के विरोधी थे.’ वह आम्बेडकर की शिक्षाओं का महत्व बताते हुए कहते हैं कि ‘उनकी शिक्षाएं ‘आधुनिक हिन्दू समाज’ के लिए ‘नई मनुस्मृति’ की तरह हैं, जिसमें छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं है.’

मनुस्मृति के कटु आलोचक आम्बेडकर की शिक्षाओं को नई मनुस्मृति तथा मनुकालीन समाज को बुर्जुआ हिंदू समाज और आम्बेडकरकालीन हिन्दू समाज को आधुनिक हिन्दू समाज बता कर परस्पर विरोधी विचारों में सामंजस्य बिठाने के अशोक सिंघल के हुनर की तारीफ कौन नहीं करेगा ?

भारत के वर्तमान धर्मनिरपेक्ष संविधान को बदलना और नए संविधान को लागू करना हिंदुत्ववादी शक्तियों का अभिन्न लक्ष्य है और आरएसएस अपने हिन्दू राष्ट्र स्थापना की अभिलाषा को अपने जन्म से ही दिल में पाले हुए है.

पहली बार 25 दिसम्बर, 1992 को दिल्ली में बाबरी विध्वंश के बाद भाजपा के पूर्व सांसद के घर से चल रहे विश्व संवाद केंद्र पर स्वामी मुक्तानंद सरस्वती और स्वामी वामदेव ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वर्तमान संविधान को हिंदुत्व विरोधी घोषित करते हुए एक पुस्तिका जारी की गई थी (पुस्तिका का आमुख देखे संलग्न चित्र में). सर्वविदित है कि सन्तों की यह टोली आरएसएस की रीति-नीति का समर्थक है, इसमें भारतीय संविधान को हिन्दू विरोधी बताया गया है.

पूर्व में ही कहा जा चुका है कि पूरे विश्व के राजनैतिक विश्लेषक आरएसएस के मुंंह में अनेक जबान, यानी दो परस्पर विरोधी स्थितियों में सामंजस्य बिठाने के हुनर, अलग-अलग अवसरों पर भ्रामक, उलटे-पुलटे बयान देते रहने की रीति-नीति की खूबी से परिचित है.

इसी के चलते हिन्दुराष्ट्र की स्थापना के लिए संविधान बदलने की मंशा का सार्वजनिक रूप से इजहार करने के लिए सम्भव है उसने अपनी टोली के संतों का सहारा लिया हो. श्वेत पत्र की तरह दिखने वाली इस पुस्तिका का मुखपृष्ठ जो गुलाबी रंग में छापा गया है, में भारत की एकता, अखण्डता, भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द के दुश्मन कौन है ? भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और अधर्म को बढ़ावा देने वाले कौन है ? ऐसे सवाल उठाए गए हैं.

इस सब के लिए सांकेतिक रूप से वर्तमान भारतीय संविधान को जिम्मेदार बताया गया है. इस हस्त पुस्तिका का प्रकाशन भारतीय सन्त समिति, वृन्दावन और सर्वोदय सत्संग आश्रम हरिद्वार द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है. स्वामी हीरानंद ने इसकी प्रस्तावना में कहा है कि ‘वर्तमान संविधान हमारी संस्कृति, चरित्र, परिस्थितियों, मिट्टी, वायुमण्डल और जलवायु के नहीं, अपितु विदेशों के अनुकूल है. यह भारत को इण्डिया बनाने का षडयंत्र है. इस पुस्तिका में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘मुसलमानों और ईसाईयों को कोई नागरिक अधिकार नहीं मिलने चाहिए.’

आरएसएस इस देश में एक मुहिम और चला रहा है, और वह मुहिम है इतिहास को नए सिरे से लिखने की. मसलन, ताजमहल का निर्माण शाहजहां द्वारा नहीं किया गया था, यह वास्तव में प्राचीन शिव मंदिर है जिसे ‘तेजोमहालय’ के नाम से जाना जाता है. कुतुबमिनार का निर्माण कुतबुद्दीन ऐबक और शमशुद्दीन इल्तुतमिश ने नहीं किया. यह वास्तव में खगोलीय टॉवर है, जिसका नाम विष्णु ध्वज है.इसका निर्माण कई शताब्दी पूर्व कराया गया था. यही नहीं काबा, जो मुसलमानों का पवित्रतम धर्मस्थल है, वास्तव में शिव मंदिर था जिसका निर्माण सम्राट विक्रमादित्य ने कराया था. उनका साम्राज्य अरब प्रायद्वीप तक फैला हुआ था.

यह कुछ वो महत्वपूर्ण खोज हैं जिनका वर्णन विस्तार से पी. एन. ओक ने अपनी चर्चित पुस्तकों में किया है. उनकी अति चर्चित पुस्तकें – ‘विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय’ और ‘भारतीय इतिहास के 10 झूठ जिन्होंने समाज को तोड़ा’, है. वे आरएसएस परिवार के परम श्रद्धेय इतिहासकार रहे हैं, जिनका 2 मार्च, 2007 को निधन हो गया है.

राष्ट्रवाद वो तिलिस्म है जिसमें एक बार प्रवेश कर गए तो जिंदगी गुजर जाएगी, पर उसे कोई जान नहीं पाएगा. खुद आरएसएस के प्रचारक भी यह कहते हैं.

मनु स्मृति के कटु आलोचक आम्बेडकर की शिक्षाओं को ‘नई मनुस्मृति’ बता उन्हें पूजने का हुनर रखने वाले यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि ‘नए राम’, सीता का अपहरण कर लें तो भी आस्थावान लोग शक तो रावण पर ही करेंगे !

Read Also –

CAA-NRC के विरोध के बीच जारी RSS निर्मित भारत का नया ‘संविधान’ का प्रारूप
इक्कीसवीं सदी का राष्ट्रवाद कारपोरेट संपोषित राजनीति का आवरण
खतरे में आज़ादी के दौर की पुलिस के सीआईडी विभाग की फाइलें
कैसा राष्ट्रवाद ? जो अपने देश के युवाओं को आतंकवादी बनने को प्रेरित करे
आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच – 1
आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच – 2

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…