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आरएसएस का बाबरी कांड – एक विश्लेषण

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आरएसएस का बाबरी कांड - एक विश्लेषण

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

फ़ैजाबाद के पूर्व कलेक्टर के. के. नायर वो संघी था जो आरएसएस के सांप्रदायिक एजेंडे को राममंदिर के रूप में लागू करने में अहम् किरदार निभाया था. के. के. नायर (पूरा नाम ‘कृष्ण करुणाकर नायर’) का जन्म 11 सितंबर, 1907 को केरल में एलेप्पी में हुआ था और शिक्षा मद्रास और लंदन में हुई थी. 1930 में आईसीएस बनने के बाद उत्तर प्रदेश में कई स्थानों पर कलेक्टर के रूप नियुक्ति हुई. 1 जून 1949 के समय फ़ैजाबाद में इनकी नियुक्ति हुई.

आरएसएस ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में था क्योंकि कुछ ही समय पहले बेस पर से प्रतिबंध हटा था और उसे एक ऐसी गतिविधि अंजाम देनी थी, जिससे वो हिन्दुओं की नफरत को अपने प्रति न सिर्फ कम कर सके बल्कि उन्हें अपने फेवर में खड़ा कर सके. जैसे ही के. के. नायर की नियुक्ति फ़ैजाबाद में हुई आरएसएस को वो अवसर मिल गया (हो सकता है आरएसएस द्वारा ये साजिश पहले ही रची जा चुकी हो और संभवतः के. के. नायर या आरएसएस ने किसी तरह का जुगाड़ बिठाकर उसकी नियुक्ति फैजबाद में करवायी हो).

मौके की तलाश करते इन गिद्धों को मौका मिला दिसंबर की सर्द रातों में. 1949 में मौसम आज की तरह नहीं होता था बल्कि बीहड़ो की तरह खुले इलाके और कम स्ट्रक्चर के कारण इलाका खुला होता था जिससे मौसम भी अत्यधिक ठंडा रहता था और ऊपर से आज की तरह संसाधन भी नहीं थे इसीलिये ऐसी सर्द राते प्रायः सन्नाटे वाली होती थी. ऐसी ही एक सर्द रात 24 नवंबर, 1949 को के. के. नायर की सहायता से आरएसएस के कुछ गुर्गो ने हिंदू वैरागियों के रूप में मस्जिद के सामने वाले क़ब्रिस्तान को शुद्धिकरण के नाम पर साफ़ कर दिया. इसका अर्थ समझते है आप ?

भूमि शुद्धिकरण के नाम पर कब्रों को तोड़कर उनमें रखी लाशों और उनके अवशेषों को निकाल कर उन्हें विभिन्न तरीकों से डिस्पोज कर दिया गया और उस भूमि को समानांतर खोदकर उसमें नयी मिटटी भरकर वहां भूमि पर यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया गया. सोचकर देखिये कि यही काम मुस्लिमों ने हिन्दुओं के साथ किया होता तो ? किन्हीं हिन्दू लाशों या लाशों के अवशेषों के साथ ऐसी छेड़छाड़ की होती तो ?

आप समझ ही सकते हैं कि कितना बवाल मचा होगा लेकिन फिर भी मुस्लिमों ने धैर्य तो रखा ही था कि इस बवाल में कोई कत्लेआम नहीं हुआ लेकिन झगड़ा भयंकर रूप से बढ़ा. झगड़ा बढ़ने पर बड़ा दंगा-फसाद भड़क सकता था. उस समय भारत के हालात भी अस्थिर थे और वो 47 में हुए दंगों से अभी पूरी तरह से उबरा भी नहीं था, उस पर गांधीजी की हत्या का शोक भी पूरे भारत में व्याप्त था. नेता से लेकर जनता तक संतप्त थी.

मगर मुस्लिमों ने उस समय अपना धैर्य नहीं खोया और अमन बनाये रखा और कानून के हिसाब से कलेक्टर के पास गुहार लगायी लेकिन कलेक्टर के. के. नायर तो पहले से ही आरएसएस का पिट्ठू था, अतः वहांं सिर्फ एक पुलिस चौकी बनाकर इतिश्री कर ली. लेकिन बात ऊपर तक पहुंची तो कब्रिस्तान की सुरक्षा में अर्ध-सैनिक बल की पीएसी लगायी गयी ताकि उपद्रवी लोग फिर से कोई ऐसी कोशिश करके शांति भंग न कर सके !

चूंंकि मस्जिद उस समय हमेशा खुली रहती थी और किसी भी समय बंद नहीं की जाती थी, अतः जो आरएसएस पहले सिर्फ कब्रिस्तान की जगह कब्जाना चाहता था, वो अब मस्जिद पर कब्ज़ा करने की साजिश रचने लगा और मौका तलाशने लगा. और वो मौका मिला इन्हें 22 दिसंबर, 1949 की रात को जब पारा बहुत गिरा हुआ होने के कारण लोग रजाइयों में दुबके हुए थे और चारों तरफ सन्नाटा था. पीएसी के जवान भी चौकी में दुबके हुए थे,

मगर आरएसएस के ऐसे बहुत से अहिष्णु लोग थे जिनकी नींदें उडी हुई थी क्योंकि वे भारत को न तो गणराज्यो का संघ बने रहना देना चाहते थे और न ही धर्म निरपेक्ष देश, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायियों को रहने की आजादी हो, सो वे जाग रहे थे और मौका तलाश रहे थे. 22 दिसंबर, 1949 की उस काली अंधियारी अति सर्द आधी रात में आरएसएस के गुर्गे अभय रामदास ने अपने कुछ साथियों के साथ मस्जिद की दीवार फांदी और राम-जानकी-लक्ष्मण की मूर्तियांं मस्जिद के अंदर रख दीं और आरएसएस के दूसरे गुर्गों ने रातों-रात घर-घर जाकर लोगों में यह प्रचार कर दिया कि भगवान राम ने मस्जिद में प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है.

सबकुछ प्रायोजित और प्रीप्लांड था, अतः 23 दिसंबर को प्रातःकाल होते ही आरएसएस के गुर्गे बड़ी संख्या में लोगों की भारी भीड़ एकत्रित कर बाबरी मस्जिद पर कब्ज़ा करने निकल पड़े और बहाना था राम के दर्शन का. इधर पीएसी सकते में थी कि उनकी थोड़ी से नींद ने कितना बड़ा बवाल खड़ा कर दिया था ?

लेकिन बवाल तो और ज्यादा बढ़ा क्योंकि आयोध्या में आरएसएस और हिंदू सभा के लोग सक्रिय रूप से क़ब्ज़े की कार्यवाही में सहयोग कर रहे थे. बाद में ये बात सामने आयी कि ज़िला कलेक्टर के. के. नायर और सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह दोनों आरएसएस से जुड़े थे. ये गुरुदत्त वही था, जिसने 10 अक्टूबर 1949 को अपने एक पत्र में यूपी की ततकालीन सरकार को मस्जिद तोड़कर मंदिर बनाने की सिफारिश की थी और तुरंत इसकी सूचना प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी भेजी गयी थी.

अतः केंद्र को आरएसएस द्वारा किसी ऐसे ही शफुगे का अंदेशा था और इसीलिये जब ये मुर्तियांं रखने का कांड अंजाम दिया गया तो नेहरूजी आरएसएस की इस चाल को भांप गये और नेहरू जी ने पटेल के साथ मशवरे के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत को कहा कि किसी भी स्थिति में मस्जिद से हिन्दू प्रतिमाओ को तत्काल हटा दी जानी चाहिये और इस बाबत 26 दिसंबर को एक तार भी भेजा, जिसमें लिखा था कि – अयोध्या की घटना से मैं बुरी तरह विचलित हूंं. मुझे पूरा विश्वास है कि आप इस मामले को व्यक्तिगत रीति लेंगे. ख़तरनाक मिसाल क़ायम की जा रही है,
इसके परिणाम बुरे होंगे.

बहरहाल, चार लाइनों वाले तार में नेहरूजी की दूरदर्शिता का स्पष्ट ज्ञान होता है और इसका परिणाम आज हम देख ही रहे हैं. इसलिये हमेशा याद रखिये बहुमत होने से कोई सच्चा नहीं होता और अल्पमत या एकाकी होने से कोई गलत नहीं होता.

उस समय नेहरूजी ने दो गलतियांं की. एक गलती तो नेहरूजी ने पटेल के मना करने के बावजूद आरएसएस से प्रतिबंध हटा कर की. मगर फिर भी नेहरूजी ने अयोध्या मामले में न सिर्फ सरदार पटेल से मशवरा लिया बल्कि उनकी तीखी और तल्ख़ भाषा वाली खरी-खरी भी चुपचाप सुनी. नेहरू चुपचाप इसलिये सुनते रहे क्योंकि वे असली लोकतान्त्रिक प्रधानमंत्री थे और जानते थे कि पटेल सही थे लेकिन वे ही आरएसएस के झांसे में आ गये थे.

उस समय उन्हें तुरंत ही अपने फैसले को पलटते हुए आरएसएस पर दुबारा प्रतिबंध लगाना था मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, ये उनकी दूसरी गलती थी. इन गलतियों का कारण संभवतः ये था कि वे ऐसे प्रधानमंत्री थे जो हमेशा अपने विरोधियों की भी बात शांति से सुनते थे. डॉ. अम्बेडकर जैसे प्रखर विरोधी को अपने मंत्री मंडल में शामिल करना कोई हंसी खेल का काम नहीं था.

आज के दौर वाले प्रधानमंत्री तो विरोधी की तो छोड़िये अपने खुद के लोगों की भी नहीं सुनते. भाषण हो या मन की बात सिर्फ सुनाते ही हैं जबकि मोदी का कद नेहरू के घुटने के बराबर भी नहीं है और न ही मोदी में नेहरूजी जैसा धैर्य है. नेहरू जी जैसे महान नेता जो न सिर्फ स्वतन्त्रता सेनानी ही थे बल्कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भी थे. और ऐसे विद्वान और दूरदर्शी नेता से भी एक साधारण महिला उनका कॉलर पकड़ के सवाल पूछ लेती थी और आज के पीएम मोदीजी तो तीन किमी एरिया को ही सील करवा देते हैं ताकि कोई उन तक पहुंंच ही न सके.

उस वक्त प्रधानमंत्री नेहरू ने सांप्रदायिक चाल को देखते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को जो निर्देश दिया, मुख्यमंत्री पंत ने उसका पालन करने की पूरी कोशिश की और हिंदुओं को मस्जिद से बाहर खदेड़ने का आदेश दिया लेकिन के. के. नायर अड़े रहे और मुख्यमंत्री के फैसले को स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया. इतना ही नहीं उन्होंने इस मूर्तियों को वहां से हटाने से ये कहकर मना कर दिया कि हिंदू उस स्थल पर पूजा कर रहे हैं !

ऐसी स्थिति के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव भगवान सहाय ने लखनऊ बुलाकर के. के. नायर को खूब डांट लगायी और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और प्रधानमंत्री कार्यालय के सीधे आदेश के बावजूद सुबह मूर्तियांं क्यों नहीं हटवाईं ?

मगर ढ़ीठ संघी के. के. नायर ने परोक्ष रूप से धमकी दी कि जन समर्थन जुटाकर बहुत बड़ा दंगा भी तामील किया जा सकता है, जिसे नियंत्रित करना सरकार और प्रशासन के वश में नहीं होगा. लेकिन प्रकट में जो शब्द प्रयोग किये वो ये कि – ‘व्यापक जन समर्थन के कारण प्रशासन के लोग इसे रोक नहीं सकते और हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता है तो हालात और ख़राब हो सकते हैं.’ साथ में ये राग भी गाया कि मूर्ति का प्राकट्य हुआ है. नायर किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे. अंततः नायर के इस रवैये को देखते हुए सीएम गोविंद वल्लभ पंत ने नायर को सस्पेंड कर दिया.

बाद में अपने निलंबन को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिससे उसका निलंबन उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया (हालांंकि ये जांंच का विषय है कि उपरोक्त जज ने उसका निलंबन किस आधार पर निरस्त किया और उसका आरएसएस से कोई कनेक्शन तो नहीं था) लेकिन आरएसएस का असल एजेंडा तो सफल हो ही चुका था, अतः के. के. नायर ने स्वेच्छा सेवानिवृत्ति ले ली और 1952 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत शुरू कर दी ताकि मामला अगर अदालत में पहुंचे तो केस लड़ा जा सके क्योंकि उस समय जो भी वकील थे, उनमें से अधिकतर आरएसएस से नफरत करते थे और उन्हें देशद्रोही और अंग्रेजों के मुखबिर कहते थे. अतः अदालती तौर पर राहत दिलवाने के लिये आरएसएस को एक अदालती मोहरे की जरूरत थी और के. के. नायर के रूप में अदालत में अपना मोहरा आरएसएस ने फिट कर दिया.

बाबरी मस्जिद का सबसे बड़ा विलेन यही के. के. नायर था जिसने हिन्दू पक्ष के किये गये जबरन क़ब्ज़े को सरकारी सहायता के रूप में पुख़्ता किया था और इसका प्रतिफल उसे आरएसएस की तरफ से जनसंघ के लोकसभा टिकट के रूप में मिला. जी हांं, 1967 में दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी की मौजूदगी में इसने जनसंघ की सदस्यता ली और बहराइच की लोकसभा सीट का इनाम हासिल किया और ये इनाम सिर्फ इस तक ही सीमित न रहा बल्कि इसकी पत्नी शकुंतला नायर को भी कैसरगंज लोकसभा की टिकट दी गयी. और तो और उसके ड्राइवर तक को विधान सभा से टिकट दिया गया ताकि उसका मुंह बंद रखा जा सके क्योंकि वो सारा सच जानता था.

आरएसएस ने हमेशा से ही देश को सांप्रदायिक दृष्टी से तोड़कर टुकड़े-टुकड़े करने की कोशिश की है. 50 साल तक तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज नहीं माना लेकिन जब उच्चतम न्यायालय ने अल्टीमेटम दिया तब कहीं जाकर नागपुर कार्यालय में तिरंगे को ध्वज के रूप में लगवाया. ये वो लोग हैं जिन्होंने संविधान बनने पर संविधान की प्रतियांं संसद भवन के आगे जलाई और आज दूसरो को देशभक्ति का पाठ पढ़ाते नजर आते हैं लेकिन असल में इन्होने अपना स्टाइल बदला है रवैया नहीं क्योंकि अब ये खुले तौर पर नहीं बल्कि छुपे रूप में अपने कार्योंं को अंजाम देते हैं और देश तोड़ने और बर्बाद करने की इनकी कोशिश आज भी जारी है. के. के. नायर हो या एल. के. आडवाणी, जय प्रकाश नारायण हो या मोदी साक्षात् उदाहरण है देश की बर्बादी के. (ये सच है या झूठ ये मैं नहीं जानता मगर सोशल मीडिया पर कहीं पढ़ने में आया था कि एक अमेरिकन सीनेटर नेता ने कहा है कि ये रोज-रोज सरकारी कम्पनियों को बेचने के बजाय एक ही बार में पूरे देश की कीमत बोल दो मोदीजी, हम खरीद लेंगे).

नेहरू के बाद इंदिरा की लगातार चुनावी जीत और इंदिरा का दबंग होना इन्हें कभी रास नहीं आया. 62 – 65 और 71 के युद्ध में भी आरएसएस की भूमिका की जांंच होनी चाहिये कि पाकिस्तान और चीन को भड़काने में और भारत के साथ युद्ध के लिये प्रेरित करने में तत्कालीन किन-किन संघी नेताओ का कितना हाथ था क्योंकि 71 के बाद इंदिरा का कद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा हो गया कि आज भी उसके कद से बराबरी करने वाला कोई नेता पैदा नहीं हुआ, लेकिन उसी इंदिरा को 75 में आपातकाल लगाना पड़ा और इसका कारण था जय प्रकाश नारायण, जिसने सेना को भड़काकर बगावत करवाने की कोशिश की लेकिन इंदिरा इनकी मंशा भांप गयी और इतनी मुश्किल और लम्बी लड़ाई के बाद मिली आज़ादी फिर से पाकिस्तान की तरह सेना की तानाशाही में न बदल जाये, इसलिये तुरंत ही आपातकाल लगाने का फैसला लिया. हालांंकि वो जानती थी कि इससे उसका कॅरियर ख़त्म हो सकता है, मगर देश की भलाई के लिये उसने वो भी कुर्बान करने की ठान ली और 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल से घोषणा कर दी.

हालांंकि इस आपातकाल के असली कारणों को छुपाकर संघी हमेशा झूठा प्रचार करते रहे हैं और बार-बार बोले जा रहे इस झूठ पर देशवासी विश्वास भी करते जा रहे हैं मगर कॉमन सेन्स का एक सवाल किसी के दिमाग में नहीं उठता कि जब सब कुछ कांग्रेस के नियंत्रण में था और नेहरू के बाद इंदिरा न सिर्फ उनकी उत्तराधिकारी थी बल्कि देशव्यापी लोकप्रिय नेता थी तो उसे इमरजेंसी लगाने की जरूरत क्यों पड़ी ? अगर इंदिरा को तानाशाह ही बनना था आपातकाल 21 महीने बाद स्वेच्छा से उसे हटा क्यों लिया ? हटाया तो हटाया एक साल से भी ज्यादा समय बाकी रहते अपनी ही सरकार को भंग कर चुनाव की घोषणा भी करवा दी, क्यों ?

ऐसा क्या था जो उसे पहले हासिल नहीं था और आपातकाल के 21 महीनों में हासिल हो गया और उसके बाद उसे तृप्ति भी हो गयी और बाद में उसे उसकी जरूरत भी महसूस नहीं हुई. ऐसे सभी प्रश्न आप सभी कभी-कभी सोचा कीजिये, आपको सच और झूठ का अंतर स्वतः ही पता चलने लग जायेगा.

असल में इंदिरा ने देश को बचाने के लिये आपातकाल लगाया था ताकि सेना की बगावत रोकी जा सके, जिसे जय प्रकाश नारायण ने भड़का दिया था. अगर तुरंत ही सबके अधिकार समाप्त कर सर्वाधिकार इंदिरा नहीं लेती तो देश में आज भी पाकिस्तान की तरह फौजी शासन होता. ये संघी अगर खुद नहीं खा पाते तो दुसरों को भी खाने नहीं देते बल्कि गिराने की कोशिश करते हैं. इसलिये ही तो आज अपने आपको शहंशाह समझने वाला मोदी इमरजेंसी में हिन्दू धर्म छोड़कर सिख धर्म में दीक्षित होकर छुपता-फिरता था.

उससे पूछा नहीं जाना चाहिये कि इंदिरा ने देश विरोधी तत्वों को कैद किया था, मगर मारा किसी को भी नहीं और परिस्थिति के अनुकूल होते ही सबको छोड़ भी दिया गया था तो फिर अगर आप सही थे तो धर्म परिवर्तन कर छुपकर भागते क्यों फिरते थे ? पकडे जाते तो क्या होता, कुछ समय जेल में ही तो बिताना पड़ता न. बाद में तो छूट ही जाते न. इंदिरा आपको जान से थोड़े ही मारने वाली थी, जो आप किसी अपराधी की तरह छुपते-भागते रहे !

भावनाओ की रौ में विषय भटकने लगा हूंं. मुद्दे पर लौटता हूंं. यथा – इंदिरा गांंधी ने आपातकाल लगाया तो के. के. नायर और शकुंतला नायर दोनों को गिरफ्तार किया गया था. नायर को लगा कि इंदिरा उसे छोड़ने वाली नहीं इसलिये उसे बड़ा सदमा लगा जिससे वो बीमार पड गया या फिर शायद मुफ्त के मुर्गे खाने वालों से जेल की कड़क रोटी और बेरस खाना (वो भी मेहनत करके खाना) रास नहीं आया, इसलिये भी ऐसा होना संभव हुआ होगा.

बहरहाल 21 मार्च, 1977 को आपातकाल समाप्ति की घोषणा कर दी गयी और नायर दम्पति को भी बाकी सभी के साथ रिहा कर दिया गया लेकिन के. के. नायर के पाप का घड़ा भर चुका था. अतः 7 सितंबर, 1977 को यमराज स्वयं आये और के. के. नायर की नारकीय आत्मा को नर्कनसीन किया, जहांं वो आज भी अपने कर्मोंं की सजा भुगत रही होगी.

1947 में देश विभाजन के समय पाकिस्तान से भागकर आये डाकू को आरएसएस ने इस शर्त पर दोनों देशो की सरकारों से बचाने का वादा किया था कि अगर वो उनका कम्युनिकल एजेंडा आगे बढ़ाये तो उसे कुछ नहीं होने देंगे और उसने ये शर्त मानी भी, क्योंकि उसके पास और कोई चारा नहीं था. पाकिस्तान में उस समय का मोस्टवांटेड क्रिमिनल डाकू भागकर भारत आया था, मगर जिन्ना से विरोध के बावजूद अगर वो नेहरूजी को इसकी बाबत कहते तो नेकदिल नेहरूजी तुरंत कार्यवाही कर उसे पकड़कर पाकिस्तान को सौंप देते मगर, आरएसएस ने असली आइडेंटी छुपाकर उसे भारतीय हिन्दू बताकर नये नाम के साथ भारत में प्रतिस्थापित कर दिया जिसका नाम आज लालकृष्ण आडवाणी है.

के. के. नायर की मौत के बाद अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए आरएसएस ने आयोध्या मामले की कमान का कमांडर एल. के. आडवाणी को बना दिया. 1986 में जब बाबरी मस्जिद का ताला खोला गया, तब राम की प्रतिमा के बगल में इस के. के. नायर की एक फोटो भी रखी गयी थी और आरएसएस की तरफ से दीवार पर इसके नाम का नारा भी लिखा गया था. उसके बाद आडवाणी को एजेंडा तेजी से आगे बढ़ाने को कहा गया.

आडवाणी ने उस समय दूसरी सहायक संस्थाओं की मदद से इतना ज्यादा सांप्रदायिक माहौल खड़ा किया कि दोनों समुदायों के हजारों-लाखों लोगों का न सिर्फ देशभर में कत्लेआम हुआ बल्कि बाबरी मस्जिद का एक ढांचा भी गिरा दिया गया (हलांंकि मंशा तो उनकी पूरी मस्जिद तोड़ने की थी मगर मंसूबा पूरा नहीं हो पाया).

उसके बाद उसी दौर में मोदी को आडवाणी के उत्तराधिकारी के रूप में चुन लिया गया था. मगर जो रिस्पॉन्स आरएसएस ने सोचा था उतना कुछ हुआ नहीं,  जिस तरह का रिस्पॉन्स आरएसएस को चाहिये उसमें दस साल और लगेंगे. अतः लगातार लोगों में सांप्रदायिकता का मानसिक जहर भरा जाने लगा और समय नजदीक आने पर मोदी को 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनवा दिया गया, ताकि मोदी सही उत्तराधिकारी हो सकता है या नहीं, इसका आंकलन भी हो जाये साथ ही, लोग आरएसएस के एजेंडे में कितना गाफिल हुए हैं उसका पता भी लग जाये.

इन दोनों ही शगूफों का 2002 में परीक्षण किया गया. परिणाम की अनुकूलता देख मोदी को ब्रांड बनाकर प्रचार किया जाने लगा. इसके लिये विदेशी पीआर कम्पनियांं हायर (नियुक्त) की गयी और 2012 में अनुकूलता का उत्कर्ष देखकर प्रचार में तेजी लायी गयी. 2014 में भारत की मुख्य सत्ताशक्ति वाली गद्दी पर मोदी को साम-दाम-दंड-भेद लगाकर अर्थात ईवीएम हैकिंग, धन, शराब इत्यादि के सहारे मोदी की नैया पार लगायी गयी ताकि भारत को बर्बाद करने की सारी शक्ति परोक्ष रूप से आरएसएस के हाथ में रहे. मुर्ख देशवासी मोदी को अवतार समझे हुए है जबकि मोदी की नीतियांं स्पष्ट सन्देश दे रही है कि वो सिर्फ आरएसएस का मोहरा है और आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए देश को बर्बाद कर रहा है !

जब तक नेहरू इंदिरा की बनायी सरकारी कम्पनियांं रहेगी तब तक देश को बर्बाद किया नहीं जा सकता इसीलिये सभी सरकारी कम्पनियों की बर्बादी शुरू करने की नींव 2014 से ही चालू कर दी गयी थी और अब या तो उन्हें बेचा जा रहा है या निजी क्षेत्र के आकाओं को ठेके पर दिया जा रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब भारत फिर से पुराने जमाने की बिखरी रियासतों की तरह टूटकर बिखर जायेगा इसलिये संभल जाओ. अगर नहीं संभले तो ऐसा फ़िसलोगे कि फिर संभलने का मौका नहीं मिलेगा (याद रखना मेरी बात).

बहुत जगह कठोर शब्दों का प्रयोग किया उसके लिये क्षमा नहीं मांगूगा क्योंकि – ‘यह सच है ‘किशन’ को वतन पर मरने का शौक नहीं, मगर मैं चाहता हूंं जीते-जी इसकी तस्वीर बदल दूंं.’

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