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रोटी और सरहद

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वोह नफ़रत के जो बीज बोए थे तुमने,
फ़सल आज तैयार पक के खड़ी है.
चलो बांट लो कुछ बचा के न रखना,
चुनावों में इसकी ज़रूरत बड़ी है.

न तुम हमको चाहो, न हम उसको चाहें
वफ़ा की गली अब तो वीरान पड़ी है.
यह बंटवारा तुमको बोहोत हो मुबारक,
हमें तो अभी भी वतन की पड़ी है.

वोह पैरों के छाले,
वोह मासूम चीख़ें.
वोह पटरी के तकिए,
पत्थर के बिछौने.
ज़रा मुड़ के देखो
वोह लाशें पड़ी हैं.
वोह रोटी जो बिखरी है
लाशों पे उनकी.
वोह मांगे है इंसाफ़
अदल की घड़ी है.

वोह लालों को अपने लिए कोख में,
सड़क नापती थीं कड़ी धूप में.
क़यामत सी हिजरत क़यामत से पहले
के दम तोड़ा लाखों ने मंज़िल से पहले।

तेरी राह तकती महीनों तलक,
वोह मंज़िल तेरे गम में गुमसुम खड़ी है.
वोह हिजरत, वह रस्ते,
वोह इंसां तड़पते
रहेंगे गवाह सब, जिरह की झड़ी है.

क्या कम थे वोह ज़ुल्मों के टूटे पहाड़,
सरहद बन गई जो फरेबों की आड़.
भुला तो न दोगे सरहद पर शहादत,
निहत्थे जवानों ने जो जंग लड़ी है।

  • राबिया परवीन,
    बिहार

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