क्रांतिकारी आंदोलन के लिए बुद्धिजीवियों का उतना ही महत्व है जितना एक व्यक्ति के सांस लेने के लिए ऑक्सीजन का. बुद्धिजीवी किसी भी आंदोलन का ऑक्सीजन होता है, जिसके बगैर कोई भी आंदोलन चल ही नहीं सकता है, क्रांतिकारी आंदोलन तो बहुत दूर की चीज हो गई. समस्या तब आती है जब बुद्धिजीवी इस ऑक्सीजन की कीमत की मांग करते हैं. वे क्रांतिकारी आंदोलन में अपनी मौजूदगी या सहयोग को एक व्यवसाय के नजरिये से देखते हैं.
उन बुद्धिजीवियों के मनमाफिक कीमत, जिसे वे ‘मेहनताना’ कहते हैं, नहीं मिलने की सूरत में वे क्रांतिकारी आंदोलन से न केवल संबंध ही तोड़ लेते हैं, बल्कि कई बार तो वे गद्दारी करते हुए शासक वर्ग के गोद में जा बैठते हैं और फिर भरपूर कीमत वसूलते हुए क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ खड़े होकर आंदोलन को भटकाते हैं या फिर शासकों को दमन के नये-नये तरीके सुझाते हैं. चूंकि वे क्रांतिकारी आंदोलन को नजदीक से जानते-समझते हैं, इसलिए उनके सुझाये तरीके आंदोलन को अन्य की बनिस्बत ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.
देश की इस अर्द्ध सामंती- अर्द्ध औपनिवेशिक ढ़ांचे में पनपे बुद्धिजीवियों के इस सौदेबाजी वाले चरित्र को मैं थोड़ा संक्षेप में कुछ उदाहरण के साथ बताना चाहूंगा –
- अभी हाल ही में एक ‘क्रांतिकारी’ बुद्धिजीवी से मुलाकात हुई. क्रांति करने, शहादत देने जैसी पर लंबे-लंबे जुमले देने के बाद जब मैंने उनसे एक सवाल (आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों की दुर्दशा) पर आलेख या यों कहें एक पर्चा लिखने का अनुरोध किया तब उन्होंने पूरी सहमति दी जल्दी ही उपलब्ध कराने का आश्वासन देने के बाद 20 हजार रुपये का अपना ‘मेहनताना’ मांगें. जब उन्हें यह बताया कि ठीक यही मांग आप उनसे क्यों नहीं किये जिनके चुनाव प्रचार में आप दिन-रात वोट मांगते घर-घर जा रहे थे ? तब उनका जवाब था कि ‘उनसे मांगना ठीक नहीं है. बदलेन हो जायेगा.’
- एक अन्य बुद्धिजीवी जो एक ‘जनवादी’ संगठन से जुड़े हैं और क्रांति की बात करते नहीं थकते, उनसे एक रिपोर्ट के हिन्दी अनुवाद के लिए बात की गई, चार पेज के आलेख के हिन्दी अनुवाद के एवज में उन्होंने 24000 (6 हजार रुपये प्रति पेज के हिसाब से) रुपये का ‘मेहनताना’ मांगे. और यह मेहनताना मिलने की संभावना न देख ‘समय का अभाव’ कहकर टरका दिये.
- एक अन्य क्रांतिकारी बुद्धिजीवी ने तो अपने लेख पर ‘कॉपीराइट’ का दावा ठोकते हुए अदालत (जिसे वे स्वयं उस व्यवस्था का रक्षक मानते हुए ढ़ाहने की बात करते थे) में जाने की बात किये. उनका मानना था कि चूंकि उनके लिखे से ही क्रांति होगी इसलिए क्रांति में उनका ऊंचा औहदा सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
- एक अन्य क्रांतिकारी बुद्धिजीवी जिनसे बहुत पहले बात हुई थी, उन्होंने तो गजब का मांग रखा था अपने मेहनताना के तौर पर. उनका मांग था – ‘किसी भी महानगर में एक बीघे में फैला विशाल बंगला, जहां सबसे आधुनिक वाहन (बुलेटप्रूफ) का काफिला हो, जब वे बाहर अपनी कार (बुलेटप्रूफ) से बाहर निकले तो उसके आगे चार वाहन और उसके पीछे चार वाहन, जिसमें आधुनिकतम हथियारों से लैश कमांडोज मौजूद हो, उसके ऊपर हथियारबंद कमांडो से भरा हेलीकॉप्टर साथ-साथ उड़े ताकि कोई दुश्मन उसपर बम से हमला न कर पाये. हर महीने कम से कम एक करोड़ रुपये का सहयोग राशि (जी हां, उसने सहयोग राशि ही कहा था क्योंकि उस बुद्धिजीवी में इतनी ‘तमीज’ थी) दी जाये. उसके बच्चों के लिए सबसे मंहगे स्कूल में शिक्षण की व्यवस्था की जाये. महीने में कम से कम चार बार उसे परिवार संग विदेश में घूमने के लिए व्यवस्था संगठन करें. उसके घरों में काम करने के लिए कम से कम एक दर्जन नौकर की व्यवस्था की जायें ताकि क्रांति के काम से उसका ध्यान न भटके…. इतनी व्यवस्था अगर संगठन कर दे तो वह क्रांतिकारी बुद्धिजीवी फौरन क्रांति के काम में जुट जायेगा और क्रांति करके ही दम लेगा.
मौजूदा व्यवस्था में कोई उचित मुकाम हासिल कर पाने में असफल ये तथाकथित बुद्धिजीवी थकहार कर क्रांतिकारी आंदोलन में जुटे लोगों के करीब आते हैं. चूंकि क्रांतिकारी आंदोलनकारियों के पास बुद्धिजीवियों का भारी अकाल होता है, ये तथाकथित बुद्धिजीवी वहां फौरन ही खप जाते हैं और फिर शुरु होता है उसके सौदेबाजी का वह दौर जहां वह दोनों को ही ब्लैकमेल करते हैं. आंदोलनकारियों से अपने मेहनताने की मांग करते हैं और उसी क्षण आंदोलन को नजदीक से जानने के कारण अपनी प्रसिद्धि को अपनी उपलब्धि बताते हुए शासक वर्ग से सौदेबाजी करते हैं.
जैसा कि अक्सर होता है, क्रांतिकारी आंदोलन की मार से बेहाल शासक वर्ग इन बुद्धिजीवियों से सौदा कर उसे कोई न कोई मुकाम जरूर दे देता है और इस तरह ये बुद्धिजीवी क्रांतिकारी आंदोलन को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हुए मौजूदा व्यवस्था में एक ‘मुकाम’ बनाने में कामयाब हो जाता है. क्रांतिकारी आंदोलन में घुसे ऐसे बुद्धिजीवियों का पर्दाफाश सबसे पहले किया जाना चाहिए क्योंकि यही वे लोग हैं जो क्रांतिकारी संघर्ष से गद्दारी करते हुए इसे भंजाकर कैश कराने में सबसे आगे निकल आते हैं.
सवाल है पैसों पर पलने वाले या क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अपनी आहुति देने वाले बुद्धिजीवियों की पहचान कैसे की जाये ? कभी कभी सोचता हूं क्रांति को अपने जीविकोपार्जन का माध्यम बनाने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों की जरूरत किसे हैं ? कभी कभी सोचता हूं भगत सिंह और उनके साथियों को कितनी मेहनतताना की मांग करनी चाहिए थी ? या आज हर दिन अपनी जान गंवा रहे लोगों को कितनी मेहनताना की मांग सर्वहारा वर्ग से करनी चाहिए ?
यह सच है कि किसी भी बुद्धिजीवी को जीने के लिए न्यूनतम धनराशि की जरूरत होती है और लगभग हर संगठन इस न्यूनतम राशि की व्यवस्था करती ही है लेकिन क्रांतिकारी संघर्ष कब से व्यवसाय, मौजूदा व्यवस्था में सफलता हासिल का जरिया बन गया, इसकी पड़ताल तो जरूर की जानी चाहिए.
अंत में, जब सर्वहारा अपनी सत्ता को स्थापित करती है तब वह बुद्धिजीवियों को पर्याप्त धनराशि जरूर देती है, जैसा कि सोवियत संघ ने किया और बुद्धिजीवियों का विशाल तंत्र खड़ा किया और सारी दुनिया को मार्क्सवाद का अध्ययन कराया. लेकिन आज जब सर्वहारा वर्ग की सारी सत्ता खत्म हो गई है, वह स्वयं हर दिन फासिस्टों की सत्ता के जूते के नीचे पीसे जा रहे हैं, उन्हें गोलियों से उड़ाया जा रहा है, थानों और जेलों में नृशंसता की हद तक उन्हें पीटा जा रहा है, फर्जी मुठभेड़ों में खत्म किया जा रहा है, तब उनसे अपनी ‘मेहनताने’ की मांग करना उन बुद्धिजीवियों के लिए न केवल क्रांति और संघर्ष का मजाक उड़ाना है बल्कि सबसे अश्लील हरकत भी है.
यही कारण है कि क्रांतिकारी आंदोलन में जुटे बुद्धिजीवियों या उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को संघर्ष के मैदान में सड़कों पर उतारना होगा, हर दिन उनकी नैतिकता की परख, दृढता की परीक्षा लेनी होगी. इसके सिवा और कोई विकल्प भी नहीं है सर्वहारा वर्ग के पास. सर्वहारा वर्ग अपना बुद्धिजीवी खुद तैयार करना होगा, जो उनके ही संघर्ष के बीच से निकलेगा. सर्वहारा वर्ग को अपने बुद्धिजीवियों को लेकर बेहद सचेत रहना ही चाहिए, वरना वे कब संघर्ष को बेचकर कैश करा लें पता ही नहीं चलेगा.
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