जगदीश्वर चतुर्वेदी
लोकतंत्र में क़ानून के शासन, संविधान, संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता, भारतीय दंड संहिता एवं प्रशासनिक नियमों का महत्व है. उनके ज़रिए ही नियमन और सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों के प्रशासनिक नियमन का प्रावधान है. लेकिन इसके समानांतर विगत 75 साल में दमनकारी राष्ट्र का जन्म हुआ. सत्ता के दमनतंत्र के चरमोत्कर्ष के रुपों को हम इन दिनों देख रहे हैं. इसे लोकतंत्र के मुखौटे में फासिज्म कह सकते हैं.
इस दौर में धार्मिक पर्व-उत्सव, इवेंट, धार्मिक कट्टरतावाद और अनुदार राजनीति खूब फल-फूल रही है. ख़ासकर इवेंट संस्कृति और धार्मिक उत्सवधर्मिता ने व्यक्ति और समुदाय विशेष के लोगों को गोलबंद कर लिया है. कहने के लिए धार्मिक उत्सव निरस्त्र होकर मनाए जाते हैं. इनमें शिरकत और श्रद्धा का तत्व सबसे अधिक व्यक्ति और समुदाय को अपनी ओर खींचता हैं या यों कहें उत्सव और संस्कार इन दो तत्वों का व्यक्ति में विकास होता हैं.
यह शिरकत और श्रद्धा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से राजनीतिक गतिविधियों और राजनीतिक आह्वान से भी जुड़ी है. अब राजतंत्र खुलकर धार्मिक इवेंट के प्रबंधन और आयोजन में मदद कर रहा है. इन इवेंट में बड़ी संख्या में अपराधी भी शिरकत कर रहे हैं. अनेक स्थानों पर वे अप्रत्यक्ष प्रबंधन कर रहे हैं.
आरंभ में इस तरह के आयोजन स्वाधीनता संग्राम में जनता को एकजुट करके ब्रिटिश साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिक सद्भाव की अभिव्यक्ति के नाम से इस्तेमाल किए गए, लेकिन उनसे पुनरुत्थानवाद को मदद मिली. मसलन्, गणेश उत्सव या दुर्गा पूजा या रक्षाबंधन पर्व का ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ जनता को गोलबंद करने के प्रयास के रुप में इस्तेमाल किया गया, लेकिन यह एक तरह से धर्म और राजनीति का अंतस्संबंध स्थापित किया. लेकिन ज़मीनी और वैचारिक तौर पर इसने धार्मिकता और पुनरुत्थानवाद को निर्मित किया. इससे समाज के आधुनिकीकरण की बजाय साम्प्रदायिकीकरण में मदद मिली. धर्म और राजनीति के आधुनिक संबंध को जन्म दिया.
इन उत्सवों के अवसर पर परंपरागत अखाड़े शस्त्र कला का प्रदर्शन करते निकलते थे. परंपरागत अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित लोग निकलते थे लेकिन इन दिनों धार्मिक उत्सवों, धार्मिक मेलों या धार्मिक सार्वजनिक इवेंट का चरित्र बदल गया है. इसका प्रधान कारण यह है कि समाज का चरित्र, समाज में सक्रिय विभिन्न समूहों, मध्यवर्ग और बाज़ार का चरित्र बुनियादी तौर पर बदल गया है. अब उत्सवों, इवेंट आदि की धुरी है पूंजी, सत्ता समर्थन, प्रचार कला और सत्तातमंत्र. इन चार चीजों ने प्रत्येक इवेंट को घेर लिया है.
अब हरेक इवेंट बाज़ार को मदद पहुंचाने, स्थानीय अर्थव्यवस्था को चंगा करने के साथ राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक बन गया है. इन आयोजनों से धार्मिक उपभोग और धार्मिकता बढ़ी है लेकिन धर्म के मूल्यों का बाज़ार के मूल्यों में रुपान्तरण हुआ है. धर्म का क्षय हुआ है. धर्म के प्रति निरक्षरता बढ़ी है. प्रतिक्रियावादी राजनीति को अपना वैचारिक आधार बढ़ाने में मदद मिली है. धर्मनिरपेक्षता और उससे जुड़ी संरचनाएं कमजोर हुई हैं. सामाजिक संरचनाओं का विकास बाधित हुआ है.
जब धार्मिकता करते हैं तो इससे धार्मिक प्रतिस्पर्धा जन्म लेती है, जिसमें इज़ाफ़ा हुआ है. धार्मिक प्रतिस्पर्धा वस्तुतः धर्म को राजनीतिक बनाती है. इससे जातिभेद और जाति प्रतिस्पर्धा बढ़ती है. ये इवेंट जाति के शक्ति प्रदर्शन के प्रतीक में रुपान्तरित कर दिए गए हैं. इन उत्सवों ने देश को लोकतांत्रिकीकरण करने बजाय उपभोग के माहौल पुख़्ता बनाया है. समाज में प्रतिक्रियादी मूल्यों की खपत बढ़ायी है. लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के प्रति विद्वेष और अवहेलना का भाव बढ़ा है.
धर्मशास्त्रीय मान्यताओं और मनुस्मृति के मृत भेदों को पुनर्रुज्जीवित करने में मदद मिली है. समग्रता में सनातन हिन्दू धर्म मज़बूत हुआ है. यह धर्म वह है जिसका व्यापक स्तर पर राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फुले, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि ने जमकर विरोध किया था.
सनातन हिन्दू धर्म के समाज में ताकतवर बनने के कारण ही आरएसएस जैसे संगठनों को तेज़ी से अपना वैचारिक आधार फैलाने में मदद मिली है. उत्सवों का राजनीतिकरण अंततः सामाजिक भेद और सामाजिक हिंसा को सहज, स्वाभाविक और वैध बनाता है. यही वजह है कि एक ओर उत्सवों की समाज में धूम मची है दूसरी ओर स्त्री, मुसलमान, आदिवासी, किसान आदि पर बेइंतिहा ज़ुल्म बढ़े हैं. आरएसएस जैसे प्रतिक्रियावादी संगठन सारे देश में मज़बूत हुए हैं.
इन उत्सवों का वैचारिक-सामाजिक प्रतिक्रियावाद के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है. इसने धार्मिक, साम्प्रदायिक और जाति हिंसा को वैधता प्रदान की है. इस तरह के हिंसाचार को कई गुना बढ़ा दिया है. मानवीय तर्क और मानवतावाद को समाज से तक़रीबन बेदख़ल कर दिया है. समाज में हिंसा, बाहुबल और प्रतिक्रियावाद के वर्चस्व की स्थापना और विस्तार में मदद मिली है. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान इनके ज़रिए पुनर्रूत्थानवाद आया, साम्प्रदायिकता जन्मी, भारत विभाजन हुआ.
आज़ादी हासिल करने के बाद इनसे प्रतिक्रियावाद मज़बूत हुआ और लोकतंत्र कमजोर हुआ. इन उत्सवों में शुरु से राष्ट्रवाद का तत्व शामिल रहा है. इधर के तीन दशकों में यह और भी अधिक मुखर होकर सामने आया है. मुश्किल यह है कि प्रतिक्रियावाद को हमारे यहां अपराध नहीं मानते, जबकि यह सबसे ख़तरनाक वैचारिक अपराध है. प्रतिक्रियावाद सभी के क़िस्म सामाजिक-राजनीतिक अपराधों का जनक है.
धर्म और प्रतिक्रियावाद
पर्व, उत्सव, धार्मिक आयोजनों के पीछे सक्रिय प्रतिक्रियावाद से बचने का एक ही तरीक़ा है, इन उत्सवों का अ-राजनीतिकरण किया जाय. मानवीय तर्क और मानवतावाद के नज़रिए से आयोजित किया जाय. राजनीतिक वर्चस्व प्रदर्शन और व्यक्ति की सामाजिक हैसियत के प्रदर्शन के रुप में जब भी इनका आयोजन होगा, इससे प्रतिक्रियावादी राजनीति को मदद मिलेगी, राष्ट्र-राज्य कमजोर होगा. राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी. इससे प्रतिक्रियावादी व्यक्तिवाद पुख़्ता होगा. समाज में मृत मूल्यों को संजीवनी मिलेगी.
भारत में सात दिन में तेरह पर्व मनाने की जो कहावत चली आ रही है वह असल में हमारे समाज के प्रतिगामी चरित्र को उजागर करती है. हमने कभी खुलकर संवाद ही नहीं किया कि आख़िरकार इन पर्व-उत्सवों के आयोजनों से किस तरह का समाज, किस तरह के जीवन मूल्य विकसित और प्रसारित हो रहे हैं. यह एक तरह से वैचारिक पलायन है. पर्व-उत्सव असल में प्रतिक्रियावाद का सबसे बड़ा ईंधन हैं. ये हमें लोकतंत्र से पलायन के लिए तैयार करते हैं.
उत्सव संस्कृति देश में चल रहे हिंसाचार, अपराधों और भ्रष्टाचार पर से ध्यान हटाने और उसे छिपाने में मदद करती है. भ्रष्ट और हिंसक नेता इसलिए हमेशा धार्मिक इवेंट, धार्मिक यात्रा, धार्मिक उत्सवों पर अधिक से अधिक खर्च करते हैं. जो सबसे अधिक भ्रष्ट है, हिंसक है, संयोग से वही इस तरह की गतिविधियों का भोक्ता, सर्जक और दीवाना है.
उत्सव संस्कृति जितनी तेज़ी से फैली है उतनी तेज़ी से विभिन्न स्तरों पर समाज का अपराधीकरण बढ़ा है. समाज और अधिक शस्त्र संस्कृति और उनके संरक्षकों या बाहुबलियों की पूजा करने लगा है. समाज में समानांतर स्थानीय सत्ता केन्द्रों के निर्माण में ये उत्सव अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष भूमिका अदा करते हैं. इससे समाज में सामंजस्य और सभ्यता क्षतिग्रस्त हुई है. बंगाल की दुर्गा पूजा आदर्श उदाहरण है.
एक ज़माने में उत्सवों के ज़रिए पंथों और मिथों की संस्कृति व्यापक स्तर पर प्रसार-प्रचार हुआ लेकिन इन दिनों मिथों का राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक गोलबंदी के लिए इस्तेमाल हो रहा है. मिथों और उत्सवों की संस्कृति में ग्राम्यबोध, ग्राम्य मूल्य और सामाजिक दासता के विभिन्न मूल्य भी चले आए हैं. पतनशील मूल्यों को वैधता मिली है, इससे ग्राम्य बर्बरता का प्रसार हुआ है.
मिथों से जुड़ी सभ्यता-संस्कृति की बजाय ग्राम्य बर्बरता का शहरों से लेकर गांवों तक विकास नई परिघटना है. पहले ग्राम्य बर्बरता गांवों तक सीमित थी लेकिन उत्सव संस्कृति और धार्मिक संस्कृति के नए उभार ने इसे शहरों तक फैला दिया है. इसके कारण मासकल्चर, मिथक संसार, राजनीति और ग्राम्य बर्बरता का विलक्षण मिश्रण तैयार हुआ है. इस सबने व्यक्ति को यथार्थ से आंखें चुराना सिखाया है. इसने ‘संस्कृति उद्योग’ और ‘धर्म उद्योग’ को जन्म दिया. ये दोनों कारपोरेट उद्योग से अभिन्न रुप से जुड़े हैं.
मिथ जब संस्कृति में दाखिल होते हैं तो वर्चस्व स्थापित करने में मदद करते हैं. मिथों का जितना प्रचार होता है, सामाजिक कट्टरता और अनुदारवादी राजनीति उतनी ही फलती-फूलती है. खुले मन की बजाय बंद दिमाग़ की संस्कृति, घेटो संस्कृति अपील करने लगती है. समाज में खुलकर बोलने, प्रतिवाद करने से डर लगने लगता है. सामान्य नागरिक सार्वजनिक स्पेस में खुलकर बातें कहने से परहेज़ करने लगता है और घर के अंदर लौट जाता है.
ऐसी अवस्था में बेचैनी, असुरक्षा, असमानता, गुलामी, नरसंहार और भेदभाव पैदा करने में मदद मिलती है. ऐसी अवस्था में प्रगति पदबंध विवादास्पद और अप्रासंगिक लगने लगता हैं और प्रगतिशील लोग अप्रासंगिक लगते हैं. सभ्यता के प्रश्न विवादास्पद हो जाते हैं. स्वतंत्र विचारों और आस्थाओं पर लोग ध्यान नहीं देते, उनकी अवहेलना करते हैं, नफरत करते हैं.
देवोत्सव संस्कृति में पशुओं के मिथों, पशुरुप में देवताओं के मिथों, रहस्यमयी देवकथाओं, रहस्यमय देवी-देवताओं की सबसे अधिक चर्चा मिलती है. इससे सार्वजनिक जीवन में विवेकवादी चिन्तन को खदेड़ने में मदद मिलती है. मिथकीय देवी-देवताओं, पौराणिक आख्यानों से मनुष्य की ज्ञानात्मक संवेदनाओं को अनेक स्तरों पर गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ता है.
दूसरी ओर देवी-देवताओं के मिथ व्यक्ति को भावुक बनाते हैं. यही भावुकता उसे विवेकहीन भी बनाती है. इसके कारण राजनीति में व्यक्ति को विवेकहीन विचारधाराएं, विवेकवाद का विरोध करने वाली विचारधाराएं अपील करने लगती हैं. इसके कारण व्यक्ति अपने जीवन में यथार्थ को देख ही नहीं पाता. उसका दिमाग़, कान और आंखें तीनों पर भावुकता क़ब्ज़ा कर लेती है.
सत्य की कसौटी
सत्य की कसौटी है जीवन का यथार्थ, सत्य को जानने के लिए जीवन में प्रवेश करने, उसे जानने, समझने, विश्लेषित करने की ज़रूरत है. धर्म के आधार पर सत्य की परीक्षा संभव नहीं है. प्रतिक्रियावादी ताक़तें बार-बार यही कहती हैं कि सत्य तो अज्ञेय है, जो हो रहा है उसे रोक नहीं सकते. सत्य को धर्म के आधार पर परखो. जबकि सच यह है सत्य को धर्म के आधार पर कभी परखा नहीं जा सकता. धर्म और सत्य दो अलग चीजें हैं. जीवन सत्य और धर्म के मूल्य दो अलग-अलग चीजें हैं. आज जीवन की संचालक शक्ति है विज्ञान और विज्ञान की खोजें. जीवन का संचालन धर्म नहीं करता है.
मिथकों के ज़रिए यथार्थ जीवन की समस्याओं के समाधान संभव नहीं हैं. हक़ीक़त यह है कि धर्म तो व्यक्ति को यथार्थ जीवन देखने ही नहीं देता. जीवन के वास्तविक प्रश्नों पर विवेकवादी-वैज्ञानिक ढंग से सोचने नहीं देता. धर्म निजी पूजा-उपासना की चीज है. साधना की चीज है. वहां व्यक्ति को आध्यात्मिक सुख मिलता है लेकिन जीवन सुख के लिए व्यक्ति को यथार्थ जीवन में प्रवेश करना होगा. धर्म को निजी बनाना होगा. धर्म को सार्वजनिक कार्यों की धुरी बनाने से धर्म में भ्रष्टाचार का जन्म होता है इसलिए धर्म को निजी रखना चाहिए.
सार्वजनिक राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के समाधान धर्म के पास नहीं हैं. जो लोग कहते हैं कि धर्म सभी समस्याओं के समाधान देता है, वे ग़लत कहते हैं. इस तरह बोलकर वे धर्म का निहित स्वार्थी लाभ के लिए दुरुपयोग करते हैं. जो लोग धर्म की ओर चलो, ईश्वर की ओर चलो, का नारा दे रहे हैं, वे असल में दिग्रभ्रमित हैं और दूसरे लोगों को दिगभ्रमित कर रहे हैं. कायदे से व्यक्ति की धर्म -ईश्वर से प्रगाढ़ता- मैत्री के स्थान पर सामाजिक जीवन के साथ प्रगाढ़ मैत्री होनी चाहिए.
ईश्वर प्रेम या धर्म प्रेम को पूजा-उपासना तक सीमित रखो. उसे सार्वजनिक प्रदर्शन की चीज़ न बनाएं. धर्म-ईश्वर की उपासना निजी चीज है. उसकी प्राइवेसी बनाए रखें. जो लोग ईश्वर या धर्म की प्राइवेसी का उल्लंघन करते हैं, वे असल में धर्म के बुनियादी उसूलों का उल्लंघन करते हैं.
धर्म-ईश्वर जब प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं तो धर्म की प्राइवेसी का उल्लंघन होता है. धर्म की प्राइवेसी का उल्लंघन धार्मिक भ्रष्टाचार है. यह धर्म विरोधी आचरण है. जो लोग धार्मिक भ्रष्टाचार करते हैं, वे ही लोग सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्टाचार करते हैं. धर्म की प्राइवेसी का उल्लंघन भ्रष्टाचार की जड़ है.
धर्म-ईश्वर पर विचार करते समय यह भी देखें कि धर्म के प्रचारक कौन हैं ? क्या व्यक्ति स्वेच्छा से धर्म की ओर जा रहा है ? या उसे मीडिया-विज्ञापन-राजनेता-राजनीतिक दल मिलकर धर्म की ओर ठेल रहे हैं ? धर्म के प्रचार के उपकरण कौन से है ? धर्म का प्रामाणिक प्रचारक वही है जो शास्त्रज्ञ हो, संबंधित धर्म से जुड़े शास्त्र और उसकी परंपराओं में दीक्षित और निष्णात हो. इसके बाहर जो लोग हैं वे अनुयायी हो सकते हैं प्रचारक नहीं.
मुश्किल यह है कि धर्म के क्षेत्र में बड़ी संख्या अप्रामाणिक प्रचारकों की भीड़ लगी है. अप्रामाणिक प्रचारकों ने ही धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन किया है और धर्म को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बना दिया है. यह धर्म विरोधी काम है. धर्म को राजनीति के आगे रखकर काम करने की परंपरा ईसाई और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की परंपरा है.
उल्लेखनीय है ब्रिटिश साम्राज्य जहां गया, उसके पहले ईसाई धर्म गया, बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवाद गया. धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल की परंपरा साम्राज्यवाद की परंपरा है. पूंजीवादी परंपरा है. सामाजिक शोषण की परंपरा है. उसका भारत में पालन करने वाले अनेक संगठन हैं. ये ही संगठन आए दिन धर्म को आगे रखकर राजनीति कर रहे हैं.
आधुनिक काल आने के साथ धर्म की सार्वजनिक आलोचना का जन्म होता है. धर्म सार्वजनिक विमर्श का विषय बनता है. धर्म बंद समाज से खुले समाज में दाखिल होता है. धर्म, धार्मिक मान्यताओं की सार्वजनिक आलोचना अंततः धर्मनिरपेक्षता को जन्म देती है. धर्मनिरपेक्षता ने धर्म को पाखंड से मुक्त किया. धर्म को निजी बनाया. धर्म के सामाजिक दुरुपयोग की तीखी आलोचना विकसित की. धर्म को धर्मशास्त्र के बंधनों से मुक्त करके धर्मनिरपेक्ष बनाया.
धर्मनिरपेक्षता ने धर्म को वाद-विवाद-संवाद के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया.
आधुनिक काल में हरेक चीज, वस्तु, घटना आलोचना के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया. इसने धर्म को अंधविश्वास और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त किया. धर्म को आडम्बर, दिखावे, प्रदर्शनप्रियता से मुक्त किया. हरेक वस्तु, विचार, मनुष्य पर मध्यकाल में जो पर्दे डाले गए थे, उन सभी पर्दों से धर्म को मुक्त करके धर्म की नई पहचान को निर्मित किया. अब धर्म माने कर्मकांड या अंधविश्वास नहीं बल्कि धर्म निजी चीज थी. निजी उपासना और आराधना की चीज थी. इन दिनों धर्म को प्रदर्शन, राजनीतिक गोलबंदी, वोट बैंक की राजनीति के लिए जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है, इससे धर्म की बुनियादी भूमिका ही बदल गई है. धर्म अब साम्प्रदायिकता का उपकरण बन गया है. यह धर्म में भ्रष्टाचार है.
Read Also –
हिन्दुत्ववादियों को पत्थर की रक्षा में तो धर्म दिखाई देता है, पर…
हिंदु, हिंदू-शब्द और हिंदू-धर्म : आज का हिंदू-धर्म, असल में ब्राह्मण-धर्म है
धर्मनिरपेक्षता पर हमला मोदी सत्ता की रणनीति का मूल लक्ष्य
धर्मान्ध यानी चलता फिरता आत्मघाती बम
धर्म और कार्ल मार्क्स : धर्म के अंत का अर्थ है मनुष्य के दु:खों का अंत
पोस्टमार्टम : उदयप्रकाश का लेख एवं साक्षात्कार – राजतंत्र, धर्म और समाज
‘विज्ञान की न कोई नस्ल होती है और ना ही कोई धर्म’ – मैक्स वॉन लाउ
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]