‘सुधार’ शब्द को साज़िशन बहु आयामी बना दिया गया है. साधारण अर्थ में सुधार मतलब कोई भी ऐसा कदम जो बेहतरी के लिए लिया गया हो, चाहे वह व्यक्ति के लिए हो या समाज, राजनीति, न्याय व्यवस्था, प्रशासन, अर्थ नीति या चुनाव हो.
बाल अपराधियों को सुधार गृह में भेजने की परंपरा रही है, न कि चोर-उचक्कों और हत्यारों-रेपिस्ट लोगों के बीच. मंशा यह है कि बच्चे एक सुरक्षित और नियमित वातावरण में अपने खोये हुए नैसर्गिक व्यक्तित्व को फिर से पा सकें.
जब बात राजनीति या राजनीतिक अर्थशास्त्र की आती है आजकल तो ठीक इसके उलट हुआ दिखता है. नब्बे के दशक से बाज़ारवाद की अवधारणा ने सुधार को एक नया और प्रतिगामी अर्थ दिया है.
अर्थव्यवस्था में सुधार के वकील नेहरू-इंदिरा युग के फ़ेबियन समाजवाद से अलग हट कर पूंजीवादी वर्चस्व को स्थापित करने की बेशर्म और अमानवीय कोशिश को ही व्यवस्था में सुधार के नाम पर पैरवी करते दिखे.
ऐसा नहीं है कि भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र में नब्बे के दशक से पहले सुधार नहीं हुए. ज़मींदारी उन्मूलन कानून से लेकर हदबंदी क़ानून तक और राष्ट्रीयकरण से लेकर आरटीआई और भोजन के अधिकार तक जितने भी क़ानून बने सारे सुधारात्मक ही थे.
एमआरटीपी, आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे सैकड़ों क़ानून बने जो उदारवादी पूंजीवादी मॉडल को लागू करने का प्रयास था. इन क़ानूनों के सहारे हम मध्ययुगीन अंधकार से निकलकर पश्चिमी देशों के उन्नत लोकतंत्र के क़रीब आने की कोशिश कर रहे थे.
व्यक्तिगत पूंजी की पकड़ राजसत्ता पर सीमित थी. देश के महत्वपूर्ण फ़ैसलों में जन भागीदारी और जन भावनाओं को आदर देने की छटपटाहट दिख रही थी. यह सब मध्यममार्गी कांग्रेस और सशक्त वामपंथी आंदोलन के चलते संभव हुआ.
यूपीए-2 के समय अमरीका के साथ परमाणु करार के सवाल पर जब संसदीय वाम ने कांग्रेस की सरकार से दूरी बना ली, तब मनमोहन सिंह ने कहा कि वे अब आज़ाद महसूस कर रहे हैं. परवर्ती काल में कांग्रेस ने इसी आज़ादी की क़ीमत सरकार और जनता का विश्वास खोकर चुकाई. इस पर अलग से लिखने की ज़रूरत है.
बहरहाल, अब धीरे-धीरे सुधार शब्द का अर्थ बदल रहा था. मोदीकाल में अर्थव्यवस्था में सुधार का पहला मतलब नोटबंदी के ज़रिए जनता और विरोधी दलों को एक झटके में कंगाल करना हो गया. देश की आधारभूत आर्थिक संरचना का बोझ जो छोटे और मंझोले उद्योग संभाल रहे थे, एक झटके में धराशायी हो गए. करोड़ों बेरोज़गार हो गए और लाखों यूनिट तबाह हो गए.
तब मोदी ने सगर्व कहा था कि वे छोटा सोच नहीं सकते. दरअसल उनका मतलब है कि वे तथाकथित छोटे लोगों (ग़रीबों) और छोटी पूंजी वाले उद्यमियों के बारे सोच नहीं सकते. सोचेंगे भी कैसे, कॉरपोरेट दलाल जो ठहरे.
इस तरह शुरु हुआ एक के बाद एक सुधार का सिलसिला. योजना आयोग की प्रबुद्ध और स्वतंत्र संरचना के बदले अमिताभ कांत
जैसे कॉरपोरेट कुत्ते के अधीन नीति आयोग बना, जिसका काम अडांबानी से डिक्टेशन लेकर आर्थिक नीतियों को तैयार करना रह गया.
इन्हीं नीतियों के परिणामस्वरूप बैंक दिवालिया होते गए और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के जो लाभ थे, सारे बिसरा दिये गये. हालत यह है कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के सिवा आज हर सरकारी बैंक खुद एनपीए है. निजीकरण पिछले दरवाज़े से लाया गया.
अपने कॉरपोरेट मितरों की ऋण माफ़ी सरकारी बैंकों को दिवालिया करने के मक़सद से ही किया गया. जनता की गाढ़ी कमाई रक्त पिपासु सेठों की तिजोरी में बंद हो गई. अब निजी उद्योगपतियों को बैंकिंग लाईसेंस देने को बैंकिंग क्षेत्र में सुधार का नाम दिया जा रहा है. हकीकत में हम 1969 से पीछे लौट गये.
इसी तरह तीन काले कृषि क़ानून भी हमें अंग्रेजों के ज़माने में लौटने के लिए है. चुनावी बॉंड चुनावी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए है और टी. एन. शेषन की लीगैसी को ख़त्म करने के लिए है. आरटीआई और लोकपाल को पंगु बनाना भी नागरिकता क़ानून जैसे ही जनता को उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर राजशाही की ओर ले जाने की कोशिश है.
क्या इसे सुधार कहते हैं ? माना कि भारत में राज्य के stated objectives and policies और उनके क्रियान्वयन के बीच फ़र्क़ रहा है, लेकिन इसके लिए सिस्टम को पारदर्शी और ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाना ही सुधार की असल परिभाषा है. एक बच्चे की लिखावट को सुधारने के लिये उसे अक्षर ज्ञान रहित नहीं किया जाता. नव पूंजीवाद में सुधार का अर्थ यही है.
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