कामरेड ! तो आखिरकार ‘लाल सिंह चड्डा’ हमने भी देख ही लिया. फिल्म की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी पत्नी को भी साथ लिया. मैं चकित इस बात से था कि देश के दुश्मनों का प्रभाव इस फिल्म पर इतना व्यापक असर डाल कैसे सकता है ! परन्तु वह डाल चुका है कि देश का लहू भय व घृणा में थरथराता पानी हो गया है.
यह मैं उनके द्वारा फैलाए डर, दहशत, घृणा और भ्रम की व्याप्ति में मैग्नेटो माल के दर्शक दीर्घा को देख महसूस कर रहा था, जहां बमुश्किल चालीस लोग रहे. जबकि देखें तो फिल्म अपने उत्कृष्टता व क्लासिकी की गवाही खुद है. वैसे मैं कम ही फिल्में देखता हूं किन्तु मित्र राजकुमार सोनी ने इस फिल्म पर जो विस्तृत टिप्पणी की है, के कारण देखना संभव हुआ और मानना पड़ा कि वाकई फिल्म लाजवाब है. इस पर उनकी प्रतिक्रिया गौर तलब है.
टुच्चे-लफंगे, लंपट और विचारहीन दर्शकों के लिए के लिए कश्मीर फाइल्स बनाई गई थी. आमिर की फिल्म सुरुचिपूर्ण दर्शकों के लिए हैं. इतिहास गवाह है कि कई अच्छी फिल्में नहीं चली लेकिन बाद में उन फिल्मों को दर्शकों ने सबसे ज्यादा देखा. वैसे अंधभक्त कितना भी कर लें यह फिल्म घाटे में जाने वाली नहीं दिखती. विदेशों में अच्छी चल रही हैं. अभी ओटीटी प्लेटफार्म पर आनी बाकी है.
फिल्म का आरंभ ही बेहद सजग और प्रतिकात्मक चिड़िएं के उस एक टूटे हुए पंख के मार्फत है कि जिसे कहीं कोई ठहराव न मिलता है. अर्थात् यह अभिव्यक्त किया गया कि कमोबेश देश का हर आम नागरिक ऐसे ही भाग रहा है. मुख्य किरदार में आमिर खान जो कि लाल सिंह चड्ढा हैं, के बचपन की दोस्त रूपा के पास जाने की कवायद में ट्रेन यात्रा से आरंभ होती है और पूरी कथानक के लिए एक कथा माध्यम में दृश्य तैयार कर जाता है.
फिल्म एक ऐसे नवयुवक के ईर्द-गिर्द बुनी गई है जो बचपन से अपाहिज की स्थिति में था और बावला था. ‘बावले लोग’ पर हमारे समय की चर्चित कवि Katyayani Lko ने एक बेहतरीन कविता लिखी, वह इस किरदार के साथ जबर्दस्त कनेक्टिविटी में दृष्टिगोचर होता है. यह नवयुवा जो सब कुछ को सरल और एक रैखिक ढंग से भावुक हो देखता है कि आर्मी में रहकर दुश्मन देश के आतंकी तक को बचाता है, इस बात से अनभिज्ञ कि वह खान मियां दुश्मन है, बल्कि उसका सगा नहीं दुश्मन देश का कारिंदा है, फिल्म का हासिल है.
कथा को तारतम्य देने के क्रम में जो सह किरदार व कथा है, उसे दरकिनार कर देखें तो यह फिल्म इस देश के प्रत्येक उस नागरिक की कथा भी है. जीरो माइल की उम्मीद करते सिर्फ दौड़ रहा है. तमाम असल कारणों से अज्ञान रह बावला हो दौड़ रहा है. फिल्म में 84 के सिक्ख विरोधी दंगे का जो चित्र प्रस्तुत है, वह हमारी व्यवस्था और आज के ताकतवर सत्ताओं के चेहरे में गुम्फित है कि दुनिया रोज घटती ही जा रही है.
पूंजीवादी संकीर्ण मनोवृत्ति की तरह इस फिल्म में भारत पाकिस्तान के आपसी रंजिश में आम मनुष्य को कहीं जिम्मेदार नहीं बनाया गया. (चूंकि वह है भी नहीं) यह भी फिल्म के हासिल चीजों की तरह है कि फिल्म पर असहमति जताने अथवा कि उसका बहिष्कार करने जैसा कहीं से कोई प्वाइंट नहीं मिलता कि संघी भक्तों पर नागवार गुजरे किन्तु रूग्ण मानसिकी के भक्तों की मानसिक अवस्था का भला कोई कर ही क्या सकता है ! ये गुर्गे हैं.
प्रस्तुति में कहानी गैर पारंपरिक है बद्धमूल नहीं है किन्तु उस सूत्र में लामबंद है जिससे जीवन और मनुष्यता का भान होता है. मुंबई के मसाले उद्योग की शह में बनने वाली फिल्मों के इतर अनूठे लहज़े में संवाद की इस फिल्म में आमिर खान ने अपने पूर्व के फिल्म की तरह ही कमाल की एक्टिंग की है. कमाल का दृश्य संयोजन और ध्वनि माध्यमों का प्रयुक्त किया है कि मुरीद स्वाभाविक तौर पर होना होता है. कल्पना का ताल्लुकात गहरे जीवन यथार्थ में दृष्टिगोचर हुआ है. वह समकाल से प्रागैतिहासिक इतिहास को भी अपने दायरे में लाता है. यह फिल्म भी इसकी ताकीद है.
- इन्द्रा राठौड़
मित्र राजकुमार सोनी ने इस फिल्म पर जो विस्तृत टिप्पणी की है, वह इस प्रकार है –
मासूम सरदार की ‘असरदार’ भूमिका निभाने वाले जानदार अभिनेता की शानदार फिल्म का नाम है-लाल सिंह चड्ढा
आज आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा देख आया हूं. फिल्म क्या देखी, खूबसूरत और शानदार कविता का पर्दे पर अवतरण देखकर लौटना हुआ है. पर्दे पर उतारी गई इस कविता ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. पता नहीं कब गिरफ्त से बाहर निकलना हो पाएगा !
इस फिल्म का जो लोग भी विरोध कर रहे हैं, मेरा उनसे अनुरोध है कि वे अपना विरोध जारी रखें. यह फिल्म उनके लिए बनी ही नहीं है, जो मनुष्य होने की तमीज़ सीखना ही नहीं चाहते हैं. धर्म के ठेकेदार, पंडे, चोर, डकैत, नफरती चिंटू और बलात्कारी अंधभक्तों के लिए यह फिल्म बनाई ही नहीं गई है. जिनकी त्वचा के भीतर संवेदनाओं की बूंद का प्रवेश नहीं होता, ऐसे लोग क्या करेंगे इस फिल्म को देखकर ?
मेरी पिछली लेख पर पर देश के चर्चित कथाकार और आलोचक रमाकांत श्रीवास्तव ने टिप्पणी की थी, उन्होंने लिखा था – ‘अंध भक्तों में न तो अक्ल होती है और न ही कला बोध होता है. वास्तव में भारतीय होने के लिए जिस बौद्धिक समझ की जरूरत होती है, वह उनमें खोजने पर भी नहीं मिलेगी.’
फिल्म को देखते हुए मुझे बार-बार रमाकांत की यह टिप्पणी याद आती रही. मेरा सौभाग्य है कि जिस शहर में रहता हूं वह देश के चर्चित कथाकार और उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल का शहर भी माना जाता है. अभी इस शहर में ऐसे लोग भी रहते हैं जो कला, साहित्य और संस्कृति की समझ रखते हैं. जो अच्छे-बुरे की तमीज़ जानते हैं.
ऐसा भी नहीं है कि इस शहर में अंधभक्त नहीं रहते. यहां भी रहते हैं, लेकिन उनके नाम के आगे या पीछे अभी ‘लंपट’ शब्द नहीं जुड़ पाया है. बेचारे तिलक-चंदन लगाने के बाद भी अपने दोस्तों को हांडी बिरयानी खिलाना पसंद करते हैं. पूरी हांडी बिरयानी खाने वाले बहुत से भक्त भी फिल्म देखने पहुंचे थे. शाम के शो में जिस आमिर खान के भीतर मासूम बच्चे को देखना अच्छा लग रहा था उसी शो की दर्शक दीर्घा में से बहुत से बड़े और मासूम बच्चों का रुदन मन को भींगो रहा था. अच्छा इंसान थोड़ा रोता भी है.
दोस्तों, आमिर खान ने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है. अगर आप नफरती गैंग का हिस्सा नहीं है तो पहली फुरसत में आपको यह फिल्म देख लेनी चाहिए. बाकी फिल्म की कहानी क्या है ? कैसी है ? यह सब बताने की यहां आवश्यकता नहीं है. फिल्म की शुरुआत कहीं से आ भटके हुए एक सफेद रंग के पंख से होती है. यह ‘पंख’ जाने कहां-कहां से गुज़रता हैं और हम सब भी महसूस करने लगते कि एक इंसान की ज़िंदगी पंख जैसी ही होती हैं.
बस, अभी इतना ही कहूंगा कि यह फिल्म मासूम सरदार की असरदार भूमिका निभाने वाले जानदार अभिनेता की शानदार फिल्म है. यह एक क्लासिक मूवी है, जिसका मूल्यांकन देर-सबेर अवश्य होगा. नफरत पर भारी इस फिल्म का जब कभी भी रेखांकन प्रारंभ होगा तब अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने कम पड़ जाएंगे.
इस चड्ढा ने उतार दी अंधभक्तों की चड्ढी
आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा के रिलीज होते ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर समीक्षाओं की बाढ़ आ गई हैं. हर कोई फिल्म की तारीफ कर रहा है. फिल्म की तारीफ में वह मीडिया भी लगा हुआ है जिसे भक्तों का मीडिया, मोदी और गोदी मीडिया कहा जाता है. इस फिल्म से संबंधित कई तरह की समीक्षाएं आप गूगल पर जाकर पढ़ सकते हैं.
अंधभक्त इस फिल्म का विरोध इसलिए भी कर रहे थे क्योंकि आमिर खान मुसलमान हैं. अंधभक्तों को अपने हर विरोध के दौरान यह लगता है कि यह देश उनके बाप ने ही बनाया है. जबकि सच्चाई यह हैं कि देश पर यहां के हर नागरिक का हक हैं. यह सबका देश है. इस देश की मिट्टी में हर किसी का खून शामिल है.
गंगा-जमुनी तहजीब को मानने वाले लोग यह नहीं देखते कि कौन सा कलाकार किस जाति का है और किस धर्म को मानता है ? लोग आज भी युसूफ खान यानी दिलीप कुमार साहब की फिल्में देखते हैं. नौशाद साहब के संगीत से प्यार करते हैं और मोहम्मद रफी साहब के हर गीत और भजन को बड़े चाव से सुनते हैं.
मुसलमानों से कितनी नफरत करोगे और कब तक करोगे ? बता दूं कि फिल्म में करीना सैफ अली खान भी है और हमारा प्यारा-सा वह हीरो भी है जिसके बेटे आर्यन को फंसाने के लिए सोशल मीडिया में अभियान चलाया गया था. खुशी की खबर यहीं हैं कि लाल सिंह चड्ढा को सुधि दर्शकों और क्रिटिक्स का जबरदस्त दुलार मिल रहा है. बहरहाल –
लाल सिंह चड्ढा ने
दो कौड़ी के अंधभक्तों की चड्ढी उतार दी हैं.
अब भक्तों का क्या-क्या लाल-पीला होना है
यहीं सोचकर मुस्कुरा रहा हूं.
आखिर में एक टीप और …
फिल्म की शानदार रिपोर्ट आने के बाद भक्तगण तिलमिला उठे हैं. वे अब भी फिल्म को फ्लाप करने के खेल में लगे हुए हैं. आईटीसेल के द्वारा निर्मित की गई इमेज फारवर्ड की जा रही है. किसी-किसी छबिगृह की खाली सीटों की तस्वीर भेजकर यह बताने की कवायद चल रही हैं कि देखिए पिक्चर खाली जा रही है. भक्तों का यू-ट्यूब चैनल भी दुष्प्रचार में सक्रिय है. इस पोस्ट पर भी देर रात भक्तों ने सूअरों की तरह झुंड में आकर गंदी टिप्पणियों के जरिए हमला बोला था. गंदी टिप्पणियां डिलीट कर दी गई हैं.
कला / साहित्य और संस्कृति से भक्तों का क्या लेना-देना ? भक्तों के झूठतंत्र का हिस्सा नहीं बनना है. ये लोग मनुष्य और मनुष्यता के विनाश लिए 2014 के बाद से पैदा हुए हैं. हमें अपनी समझदारी से इनका मुकाबला करना ही होगा. दो कौड़ी के भक्तों की टिप्पणियों का क्या जवाब दिया जाय ? भक्तों और उनकी घटिया टिप्पणियों को डिलीट करना, जवाब नहीं देना और ब्लॉक करना ही सही जवाब है.
यह फिल्म कमाई का कितना आकंड़ा पार करेगी और कितना नहीं, यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी, लेकिन यह तय है कि इस फिल्म की माउथ पब्लिसिटी ही इसे सफल बनाएगी. देर-सबेर ही सही ‘सम्रग संस्कृति’ के जीत के रुप में इस फिल्म का नाम अवश्य दर्ज होगा.
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