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‘राष्ट्र का विवेक’ क्या मृत्यु-शैय्या पर पड़ा है ?

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[यह आलेख ईपीडब्ल्यू में आनन्द तेलतुम्बड़े के कॉलम ‘मार्जिन स्पीक’ बंद कर देने के बारे में है, परन्तु आनन्द तेलतुम्बडे को ईपीडब्ल्यू जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका से निकाले जाने का सिलसिला न तो आखिरी है और न ही पहली. पुण्य प्रसून वाजपेयी का बार-बार मीडिया से निकाला गया, अभिषार शर्मा को निकाला गया, गौरी लंकेश की गोली मार कर हत्या कर दी गयी. एक पत्रकार को गुजरात में जिंदा जला दिया. रविश कुमार जैसे प्रतिष्ठित पत्रकार को आये दिन जान से मार डालने की धमकियां दी जा रही है, आदि-आदि ने देश के चौथे खम्भे मीडिया के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया है. आखिर यह कब तक कॉरपोरेट घरानों की जूती बनी रहेगी ?]

‘राष्ट्र का विवेक’ क्या मृत्यु-शैय्या पर पड़ा है ?

जिस इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली पत्रिका ने सन् 1949 में सचिन चौधरी की देखरेख में निकलना शुरू किया था, उसी का मौजूदा मालिक समीक्षा ट्रस्ट है. यह माना जाता रहा है कि ईपीडब्ल्यू एक ऐसी पत्रिका है, जिसके पास एक सामाजिक न्याय-बोध है. एक समय आईआईएम अहमदाबाद ने इस पत्रिका के बारे मेें कहा था कि यही एकमात्र ऐसा संस्थान है, जो भारत की सरकारी परियोजनाओं का विश्लेषण करता है. सचमुच ही यह ईपीडब्ल्यू एक मशहूर संस्थान के रूप में अब तक अपनी परम्परा का बहन करते आया है, गंभीर अनुसंधानों के जरिए प्राप्त तथ्यों के आधार पर सामाजिक तौर पर गहरे प्रभाव डालने वाले विभिन्न विषयों पर अपने विचार खुलकर रखता आया है और उन सभी विषयों का एक वैकल्पिक दृष्टिकोण से विवेचन करने का साहस इसने दिखाया है. इस पत्रिका के इतने लम्बे इतिहास में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, शिक्षाविदो, नीति-निर्धारकों से लेकर आया जनसमुदाय तक सभी लोग सामाजिक प्रभाव डालनेवाले समसामयिक घटनाक्रमों को समझने के लिए नियमित रूप से इस पढ़ते रहे हैं.




अपने जन्मकाल से ही पहले तो इकोनॉमिक वीकली और फिर 1966 से मौजूदा नाम से निकल रही यह पत्रिका निर्भीक होकर विभिन्न सरकारी नीतियों और सरकारों की आलोचना करती आयी है. पर मौजूदा दौर में लग रहा है कि इन तमाम चीजों का ही एक बदतर दिशा में परिवर्तन हो रहा है. हाल के पिछले दिनों में इस संस्थान में जो रद्दोबदल हुए हैं, उन पर एक निगाह डाली जाए तो पहले तो यही लगेगा कि ये परिवर्तन प्रशासनिक है. पर यदि गंभीरतापूर्वक इन्हें देखा जाए तब समझ में आएगा कि इस संस्थान को एक भयानक सड़न ने जकड़ लिया है, जिसे पिछले कई वर्षों से पाला-पोसा गया है और सड़न ऐसी है जिसके पास इस संस्थान की नैतिक एकजुटता को तहस-नहस करने की पर्याप्त क्षमता है.

पिछले करीब एक दशक से इस ईपीडब्ल्यू में आनन्द तेलतुम्बडे का कलम ‘मार्जिन स्पीक’ नियमित रूप से प्रकाशित होता था. इस कॉलम के बारे में सबसे पहले सोचा था पत्रिका के तत्कालीन सम्पादक सी- राम मनोहर रेड्डी ने औरर उसे वास्तविक आकार आनन्द ने दिया था. पाठकों के बीच जल्दी ही यह कॉलम लोकप्रिय हो गया था और ईपीडब्ल्यू की बौद्धिक सीमाबद्धताओं को तोड़ पाया था. बहुतों ने इस कॉलम के योगदान को काफी महत्वपूर्ण माना है, जिसमें एक उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा विशेषज्ञ के त्रुटिहीन विचार-शक्ति व बौद्धिक ईमानदारी का जैसे प्रतिफलन दिखता था, वैसे ही ऐसा एक दृष्टिकोण भी कि ‘हाशिए की’ जनता की जीवन-यात्र के इर्द-गिर्द दिख रहे या उससे जुड़े जो विभिन्न समसामयिक मामले सामने आ रहे हैं, उन्हें किस नजरिए से देखने की जरूत है.




इस कॉलम के अनगिनत पाठकों से लेेकर इस पत्रिका के पूर्व सम्पादकों तक सबों ने यह बात स्वीकार की है. सरकारों और सरकारी नीतियों की आलोचना करने में मार्जिन स्पीक हमेशा निर्भीक रहा है, चाहे वह सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो. अतः हमलोगों जैसे कईयों ने यह माना है कि यह ‘मार्जिन स्पीक’ ईपीडब्ल्यू की सबसे बेहतरीन पाठ्य सामग्री थी. हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, पंजाबी, उर्दू आदि सभी भाषाओं में ‘मार्जिन स्पीक’ के लेखों का अनुवाद होता था. समूचे देश भरर में विभन्न सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और संगठनों के बीच ये अनुवाद छापे और प्रचारित किये जाते थे. स्वाभाविक रूप से ईपीडब्ल्यू के दूसरे कॉलमों की अपेक्षा इस ‘मार्जिन स्पीक’ की लोकप्रियता और उसका प्रचार काफी ज्यादा था. ईपीडब्ल्यू के 20 अक्टूबर, 2018 के अंक के ‘मार्जिन स्पीक’ कॉलम में आनन्द तेलतुम्बडे का लेख अंतिम बार प्रकाशित हुआ. उसके बाद से पाठक चिन्तित थे कि हो सकता है कि राज्य द्वारा हैरान-परेशान किये जाने की वजह से आनन्द यह कॉलम अब लिख नहीं पा रहे हैं. पर धीरे-धीरे यह बात समझ में आयी कि यह मशहूर संस्थान ईपीडब्ल्यू भयंकर सड़न का शिकार हुआ है.

जब से गोपाल गुरू ने इसके सम्पादक का कार्यभार ग्रहण किया तभी से यह बदलाव शुरू हो गया था. मालूम हुआ कि सम्पादक मंडल के एक सदस्य के जरिए ईपीडब्ल्यू ने यह प्रस्ताव दिया है कि ‘मार्जिन स्पीक’ का दरवाजा अब दूसरे लेखकों के लिए भी खोल दिया जाएगा और आनन्द के लेख की जब जरूरत समझी जाएगी, तब उन्हें सूचना दे दी जाएगी. यह बात सभी लाग भली-भांति जानते हैं कि पिछले एक दशक से ‘मार्जन स्पीक’ ने अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनायी है. इससे आनन्द तेलतुम्बडे को अलग करना संभव नहीं है.

अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा निर्णय वस्तुतः इस कॉलम को ही खत्म कर देने की साजिश के सिवा और कुछ नहीं है. सबसे बड़ी बात यह कि यदि इस सबकी कोई पृष्ठभूमि नहीं रहती तो माना जाता कि ऐसा प्रस्ताव संभवतः कोई गलती है. पर अब मामला ऐसा है नहीं.




नये सम्पादक ने ईपीडब्ल्यू का कार्यभार जब से ग्रहण किया, तभी से वे आनन्द के लेखों पर अपने जवाब के क्रम में अपनी टिपण्णी के जरिए बता देते कि सरकार या प्रधानमंत्री की किसी भी आलोचना को पत्रिका स्वीकार नहीं करेगी. अतीत में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि आनन्द के लेख को वापस लौटा दिया गया हो. सम्पादक मंडल लेखों में इधर-उधर कुछ रद्दोबदल कर देता और लेखक की ओर से भी इस रद्दोबदल पर कोई अपील नहीं रहती. पर हाल के दिनों में दो बार आनन्द के लेखों को वापस लौटाने के जरिए उन्हें उकसावा दिया गया जिससे कि वे पत्रिका की सम्पादकीय नीतियों को लेकर अपनी आशंका प्रकट करें. हाल में यह चीज एक प्रवृत्ति के रूप में सामने आयी है कि लेख का कोई हिस्सा यदि मोदी या शासक पार्टी के प्रति आलाचनात्मक है तो सम्पादक मंडल उसे बदल दे रहा है तो ऐसे में सम्पादक के मंशे को लेकर सवाल उठाना ही पड़ता है.

इस कॉलम में आनन्द के अंतिम लेख ‘मेादी स्केयर से मोदी केयर तक’ को अन्ततः ‘डाइसेक्टिंग मोदी केयर’ के शीर्षक से प्रकाशित किया गया और वह भी प्रकाशित किया गया मोदीकेयर के नाम से परिचित आयुष्मान भारत – नेशनल हेल्थ प्रोटेक्टशन मिशन (एबीएनएचपीएम) के खिलाफ आलोचना की धार को काफी हद तक कम कर देने के बाद- जनसमुदाय पर मोदी ने जो आतंक बरपाया है, इससे संबंधित एक समूचे अनुच्छेद को ही हटा दिया गया था. समझना मुश्किल नहीं है कि मौजूदा शासक पार्टी की और उसके जरिए हिंस्र तरीके से लागू की जा रही नीतियों की आलोचना का मूंह बंद करने का फरमान ऊपर से आया है और स्वभाविक रूप से सर को थोड़ा झुकाने का हुक्म आते ही सम्पादकमंडल के साहब लोग और भी एक कदम आगे बढ़ गये हैं और सब के सब ने घुटनों के बल चलना शुरू कर दिया है.




इस घटना को अलग-थलग रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. हमें खासकर 2014 के बाद से ही एक-पर-एक जो घटनाएं घटती चली आ रही है, उन्हें एक साथ मिलाकर देखने की जरूरत है. एक लिजेंड के रूप में प्रख्यात कृष्णा राज के बाद 2014 में रामनोहर रेड्डी ने ईपीडब्ल्यू के सम्पादक का कार्यभार संभाला था और निष्ठापूर्वक इस जिम्मेदारी का पालन करते हुए उन्होंने इस पत्रिका के गुणात्मक स्तर को एक नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया था. पर 2016 में समीक्षा ट्रस्ट के साथ मतभेदों के चलते वे अलग हो गये. लम्बे समय से समूची दुनिया में फैले इसके पाठकों और लेखकों ने इस ‘दुखद और अशिष्ट विदाई’ पर अपनी चिन्ता जाहिर की थी.

कद्दावर अदानी के मामले में टांग अड़ाने के अपराध में बाद के सम्पादक परंजय गुहा ठाकुरता को भी अन्ततः हट जाना पड़ा. अभी जो सम्पादक हैं, उन्हें सम्पादन व संचलान का कोई भी पूर्व अनुभव नहीं है. ऐसे में लगता है कि उन्हें ईपीडब्ल्यू को साफ-सूथरा करने की जिम्मेदारी दी गयी है ताकि मौजूदा शासन के प्रति आलोचना करने वाला कोई भी शख्स अब इस पत्रिका में न रह जाए. महिलाओं पर आ रहे विशेषांक के लिए समूचे सलाहकार मंडल को ही, जिसमें कल्पना शर्मा नामक शख्सियत तक थी, ईपीडब्ल्यू से हटा दिया गया है. लम्बे समय तक सह-सम्पादक रहे बर्नार्ड डि मेलो भी अभी ईपीडब्ल्यू अंश नहीं रह गये. आनन्द के ‘मार्जिन स्पीक’ कॉलम को बंद कर देना, हो सकता है इसी सब की चरम परिणति हो.




ईपीडब्ल्यू के इतिहास में पहले कभी भी इस तरह का नैतिक व विचारधारात्मक अधःपतन नहीं घटा है. जिस तरह यूएपीए के जरिए आनन्द को भीमा-कोरेगांव मामले में झूठे आरोप लगाकर अभियुक्त बनाया गया है, इससे यह बात खुलकर सामने आ गयी है कि आनन्द की कठोर आलोचनात्मक कलम से राज्य-मशीनरी और सरकार वस्तुतः काफी असंतुष्ट है. साथ ही जिस तरह उनकी कलम और उनके क्रियाकलाप धारावाहिक रूप से जनविरोधी भारतीय राज्य के वास्तविक चरित्र को उद्घाटित करते आये हैं, उससे साफ-साफ समझा जा सकता है कि राज्य का उनके प्रति यह आचरण असल में प्रतिरोधमूलक है. पर सवाल है ईपीडब्ल्यू को क्यों शासकों के चरण-चिन्हों का अनुसरण करना होगा ?

एक बात और गौर करने लायक है. जिस प्रकार राज्य ने भीमा-कारेगांव मामले को झूठे व फरेबी तरीके से सजाया है और प्रख्यात विद्वानों एवं सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को ‘शहरी माओवादी’ के बतौर अभियुक्त बनाया है, उस पर जहां देश की अधिकांश पत्रिकाओं और अखबारों ने चिन्ता जाहिर की है, वहीं ईपीडब्ल्यू ने लेकिन अपना पूरी तरह मौन बनाये रखा है. तब क्या हमें यह मान लेना होगा कि पहले की परह सरकारी नीतियों का विश्लेषण करने वाले एक संस्थान के बतौर ईपीडब्ल्यू की अब कोई भूमिका नहीं रह गयी है ? मशहूर इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने, जो खुद भी ईपीडब्ल्यू के पाठक हैं और जिनका ईपीडब्ल्यू में योगदान भी है, सही ही कहा है – ‘ ईपीडब्ल्यू जिस दिन चला जाएगा, उस दिन राष्ट्र का विवेक भी चला जाएगा-’ तो क्या अब वही समय आ गया है ?




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