Home गेस्ट ब्लॉग राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा चुइंगम है, बस चबाते रहिए

राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा चुइंगम है, बस चबाते रहिए

8 second read
0
0
972

राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा चुइंगम है, बस चबाते रहिए

हर व्यवस्था अपने को स्थापित करने, प्रतिष्ठापित करने, स्थायित्व प्राप्त करने और अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए अपने समर्थक दार्शनिकों, विचारकों, चिंतकों, साहित्यकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और दूसरे बौद्धिकों द्वारा विभिन्न दर्शनों, विचारों, अवधारणाओं, मान्यताओं और सिद्धांतों का प्रतिपादन, व्याख्या, विश्लेषण और प्रचारित-प्रसारित करवाती है, ताकि व्यवस्था के ये सिद्धांत, दर्शन, विचारधारा और अवधारणाएं जनमानस में गहरे बैठ जाएं, और जनता व्यवस्था द्वारा प्रतिष्ठापित किए गए इन सिद्धांतों, विचारधाराओं और अवधारणाओं को स्वीकार कर ले.

इसी क्रम में पूंजीवादी व्यवस्था ने भी अपने को प्रतिष्ठापित करने और स्थायित्व प्राप्त करने हेतु यूरोप में उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही, और विशेषकर इस सदी के उत्तरार्ध से, राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सिद्धांत और अवधारणा का अपने समर्थक दार्शनिकों, चिंतकों और विचारकों के माध्यम से प्रतिपादन, व्याख्या और प्रचार-प्रसार करवाया, ताकि एक खास नस्लीय समूह के लोगों को एक राजनीतिक इकाई के रूप में एक शासन के अंतर्गत संगठित किया जा सके.

सबसे पहले राष्ट्र और राष्ट्रवाद को प्रतीकों के माध्यम से सामान्य लोगों के मस्तिष्क में गहरे बैठाया गया, जैसे, एक नस्ल, एक धर्म, एक भाषा, एक भौगोलिक क्षेत्र, एक राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय सेना. 15वीं शताब्दी तक यूरोप में राष्ट्रभाषा जैसी कोई भाषा नहीं थी. शिक्षित वर्ग उच्च शिक्षा के लिए रोमन या ग्रीक भाषा पढ़ता था, और निम्न श्रेणी के लोग स्थानीय बोली का प्रयोग करते थे.

धीरे-धीरे इन पुरानी भाषाओं के बदले स्थानीय बोली में सुधार कर और व्याकरण के माध्यम से एक मानक भाषा को गढ़ा गया. इसके फलस्वरूप महज सौ वर्षों में ही रोमन और ग्रीक की जगह अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालियन, जर्मन, स्पेनिश, पुर्तगीज, डच, रूसी आदि भाषाओं का प्रचलन यूरोप में शुरू हुआ. राष्ट्रीय सेना के माध्यम से एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र का सीमांकन हुआ. एक राष्ट्रीय ध्वज के माध्यम से सामान्य जनता की निष्ठा को राष्ट्र के प्रति समर्पण भावना के रूप में प्रक्षेपित किया गया. इन प्रतीकों को जन-जन तक पहुंचाने में राष्ट्रव्यापी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का योगदान सबसे महत्वपूर्ण रहा है.

ऐसी सारी कवायदें अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमा में अपने बाजार को सुरक्षित करने के लिए की गई थीं, ताकि दूसरे देशों का माल उनके सीमाक्षेत्र में न बिक पाए. यह यूरोप में औद्योगिक युग का शुरूआती दौर था, जिसमें बाजार को अपने औद्योगिक उत्पादों की सुरक्षित बिक्री के लिए संरक्षित किया जा सके. लेकिन, जैसे-जैसे औद्योगिक उत्पादन बढता गया, और भी बड़े बाजार की जरूरत महसूस की जाने लगी, और यहीं से यूरोपीय युद्धों का श्रीगणेश होता है, जिसका निदान दुनिया के दूसरे राज्यों को अपना उपनिवेश बनाकर खोजा गया.

सेना, ध्वज, भाषा, धर्म, और बाजार की एकता ने एक सरकार के प्रति वफादारी का भाव पैदा करने में सफल हुआ. पर, राष्ट्र की वास्तविकता ये प्रतीक न होकर बहुसंख्यक समुदाय के बीच एकता की भावना पैदा करनी थी, जो समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना के आधार पर होनी थी. इसकी पूर्ति हुई फ्रांस की क्रांति में प्रयुक्त समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना से.

लेकिन, असली राष्ट्रनिर्माण अभी भी बाकी था, और वह था कि राज्य की बहुसंख्यक आबादी अपने को एक और बराबर समझे. इसके लिए जरूरी था कि राज्य के बहुसंख्यक आबादी के बीच सामान्यता की भावना का नागरिकों द्वारा अपनी जिंदगी में आत्मसातीकरण, और साथ ही यह उच्च नैतिक मानदंड का स्थापन भी कि हम सबके भाग्य एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, और यही भाग्य की एकता बनी राष्ट्र का वास्तविक आधार, जिसे पूरा करने के लिए संविधान में न सिर्फ बराबरी का हक दिया गया, बल्कि आर्थिक , राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी उन सिद्धांतों का न सिर्फ प्रतिपादन और निरूपण किया गया, बल्कि नागरिकों को बराबरी का हक देने के लिए राजसत्ता स्वयं वचनबद्ध, प्रतिबद्ध और कटिबद्ध हुए, और इसी का यह नतीजा था कि एक नन्हा-सा यूरोप पूरी दुनिया का मालिक बन बैठा. बहुसंख्यक समुदाय के बीच यही सामान्यता का भाव ही राष्ट्र की बुनियाद है, जिसके बिना किसी राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

भारत आज भी राष्ट्र और राष्ट्रवाद के इन मानदंडों से कोसों दूर है. एक राष्ट्रीय ध्वज, एक राष्ट्रीय सेना, एक संविधान, एक शासन, एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र और एक संसद होने के बावजूद भी हम अभी राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में बहुत पीछे हैं. संविधान के प्रावधानों का पालन और क्रियान्वयन बराबरी के स्तर पर आज तक भी नहीं हो सका है. संविधान में वर्णित ‘हम भारत के लोग’ का संविधान के पन्नों से बाहर निकल जमीन पर रूपांतरण अभी बाकी है. समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना सिर्फ संविधान के पवित्र उद्देश्य बनकर रह गए हैं, जमीनी हकीकत यह आजतक भी नहीं बन सका है.

सिर्फ सेना और प्रशासन के माध्यम से कभी भी किसी राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है. भाषा, धर्म, क्षेत्र, जाति और संस्कृति की विभिन्नताओं के बावजूद भी भारत वास्तविक अर्थ में एक राष्ट्र बन सकता था, पर आज तक कभी भी ऐसा प्रतिबद्ध प्रयास नहीं हुआ. सरकार खुद को ही राष्ट्र मानने का भ्रम पालते रही. सिर्फ राजसत्ता द्वारा कानूनों का जनता पर लाद देना राष्ट्रनिर्माण नहीं है. इसके लिए यह जरूरी है कि जनता में ऐसी भावना खुद ही विकसित होनी चाहिए थी कि वह कानून को अपना समझकर स्वत: अनुपालन करती. लेकिन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर भेदभाव के साथ ही भाषा, रीति-रिवाजों और जीवन-पद्धति का भेद ऐसी समस्या है, जिससे निजात पाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अनवरत सक्रीयता की जरूरत है, जिसमें सबकी सहभागिता हो.

जबतक भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के बीच सामान्यता की भावना का विकास नहीं होगा, और जबतक वे यह नहीं समझ पाएंगे कि उनके भाग्य एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, तबतक भारत में राष्ट्र महज एक कल्पना के सिवा और कुछ भी नहीं है. किसी के लाख चिल्लाने से भी भारत में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा की हकीकत नहीं बदलने वाली है. जबतक सरकार स्वयं को बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम से नहीं जोड़ती, उनके जीवन यापन के लिए जरूरी संसाधनों को मुहैया नहीं कराती, आर्थिक विषमता दूर करने के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध नहीं होती, कानून का अनुपालन बराबरी के स्तर पर करने की गारंटी नहीं देती. राष्ट्र चुइंगम के अलावा और कुछ भी नहीं है, बस चबाते रहिए, कुछ मिलने वाला नहीं है.

  • राम अयोध्या सिंह

Read Also –

सेना और लोकतंत्र
अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए का देशी एजेंट है आरएसएस और मोदी
आरएसएस का ‘राष्ट्रवादी मदरसा’
‘आप बोलेंगे, और अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे’

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…