चन्द्रभूषण
राम-रावण युद्ध समाप्त होने के बाद, जब पूरी लंकानगरी तहस-नहस हुई पड़ी है, रावण समेत तमाम राक्षस योद्धाओं की लाशें जल रही हैं और मंदोदरी सहित हजारों राक्षस-स्त्रियां विलाप कर रही हैं, लंका के नए राजा विभीषण सीता को आदर सहित लिवाकर राम के पास पहुंचते हैं. वहां विजेता वानर योद्धाओं के बीच राम अपने साथियों की एक विरुदावली-सी गाते हुए कहते हैं कि हनुमान और अमुक-अमुक योद्धा की असाधारण वीरता और कौशल से तथा राक्षस शिरोमणि विभीषण द्वारा अवगुणी रावण के साथ अपने संबंध तोड़ लेने से ही वे नियति का रास्ता बदलने में सक्षम हुए और रावण जैसी अजेय शक्ति को परास्त किया जा सका.
लंबी पराधीनता से मुक्त हुई सीता यह वर्णन सुनकर गदगद हैं. तभी सीधे उन्हीं को संबोधित करते हुए राम कहते हैं – ‘तुम्हारा भला हो, लेकिन तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरे मित्रों का और मेरा यह सफल रण-परिश्रम तुम्हारे लिए नहीं किया गया था. यह सब मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने और अपने प्रख्यात वंश को अफवाहों से मुक्त रखने के लिए किया. संदेहास्पद चरित्र लिए हुए तुम अभी मेरे आगे खड़ी हो तो मुझे वैसा ही कष्ट हो रहा है, जैसा आंख के दर्द से पीड़ित व्यक्ति को उसके सामने दीया रख देने पर होता है. इसलिए हे जनकपुत्री, दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं. जहाँ चाहो वहाँ चली जाओ. तुमसे मुझे कोई काम नहीं है.’
विदितश्चास्तु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमः ।
सुतीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः ।। 6-115-15
रक्षता तु मया वृत्तमपवादम् च सर्वतः ।
प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यङ्गं च परिमार्जता ।। 6-115-16
प्राप्तचारित्रसंदेह मम प्रतिमुखे स्थिता ।
दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढम् ।। 6-115-17
तद्गच्छ त्वानुजानेऽद्य यथेष्टं जनकात्मजे ।
एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया ।। 6-115-18
ग्रंथ में यह प्रकरण ठीकठाक लंबा है. राम विस्तार से बताते हैं कि रावण ने तुम्हें अपनी गोद में बिठाया, कुदृष्टि से देखा, तुमसे दूर रहना उसके लिए आसान नहीं रहा होगा. बाद में व्याख्या भी करते हैं कि हनुमान या सुग्रीव के पास चली जाओ. लंकेश्वर विभीषण के पास चली जाओ. लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में से किसी को अपना लो. राम के ये वचन सीता के लिए वज्रपात जैसे हैं और शुरुआती झटके से उबरने के बाद वे सख्ती से इसका जवाब भी देती हैं. कहती हैं कि –
‘रावण के शरीर से मेरा स्पर्श इसलिए हुआ क्योंकि उसे रोकना मेरे वश में नहीं था. यह नियति का अपराध है, अपनी इच्छा से मैंने उसे नहीं छुआ था. शरीर पर तो नहीं लेकिन हृदय पर मेरा वश था, जो आपकी सेवा में रहा.’
बहरहाल, बात बिगड़ चुकी है, लिहाजा सीता अग्निपरीक्षा देने का फैसला करती हैं. लक्ष्मण से अपने लिए एक चिता बनवाती हैं और एक ही बात का हवाला तीन तरह से देती हुई उसमें प्रवेश कर जाती हैं – ‘यदि मैं हृदय से सदैव राघव के प्रति समर्पित रही हूं तो लोक का साक्षी बनकर अग्नि मेरी रक्षा करे. राघव मुझे दुष्टा मानते हैं लेकिन अगर मेरा चरित्र शुद्ध है तो लोक का साक्षी बनकर अग्नि मेरी रक्षा करे. सभी धर्मों के ज्ञाता राघव का अपने प्रति विश्वास यदि मैंने कर्म, मन और वाणी से कभी नहीं तोड़ा है तो अग्नि मेरी रक्षा करे.’
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् ।
तथा लोकस्य साक्षी माम् सर्वतः पातु पावकः ।। 6-116-25
यथा मां शुद्धचरितां दुष्टां जानाति राघवः ।
तथा लोकस्य साक्षी माम् सर्वतः पातु पावकः ।। 6-116-26
कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यहम् ।
राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा माम् पातु पावकः ।। 6-116-27
थोड़ी देर में हम सीता को एक बार फिर ऐसी ही कसमें अग्नि के बजाय पृथ्वी को सामने रखकर लेते हुए देखेंगे, लेकिन आत्मरक्षा का कोई भाव वहां नहीं दिखेगा. जैसा रामायण में अक्सर दिखाई देता है, इस अग्निपरीक्षा के बाद भी काफी धन्य-धन्य होती है. लगता है, सारा मामला निपट गया. रामायण के नए ज्ञाता इसी आधार पर उत्तरकांड को क्षेपक बताते हुए, यह कहकर इसे ग्रंथ से ही हटा दे रहे हैं कि अग्निपरीक्षा हो गई तो परित्याग जैसी घटना की गुंजाइश कहां रह जाती है. ऐसे सरलीकरण को गंभीरता से लेने के लिए मेरे यहां भी कोई गुंजाइश नहीं है.
ऊपर शंबूक प्रकरण में जिक्र आ चुका है कि राम के अयोध्या का राज संभालने के तुरंत बाद मित्रों की एक बैठकी में (जिसे आगे लक्ष्मण ने ‘खुली सभा’ कहा है) राम के बाल-सखा भद्र ने कैसे सकुचाते हुए कहा था कि सीता के चरित्र को लेकर राज्य में तरह-तरह की अफवाहें उड़ रही हैं. किस्से को हम उसी बिंदु से आगे बढ़ाते हैं.
रात का समय है, उस बैठकी से निकलते ही राम अपने भाइयों को बुलाते हैं. उनसे कहते हैं कि अग्निपरीक्षा के बाद भी अयोध्या में सीता के बारे में गंदी बातें कही जा रही हैं, जिसे सुनकर उनका कलेजा छलनी हो गया है. अपयश से ज्यादा बुरी चीज राजा के लिए कुछ भी नहीं हो सकती.
‘कीर्ति के लिए मैं अपना जीवन और आप जैसे पुरुषसिंह भाइयों को भी छोड़ सकता हूं, फिर सीता क्या चीज है !’ फिर वे लक्ष्मण को अगली सुबह ही सीता को कोसल के बाहर, गंगापार छोड़ आने के लिए कहते हैं. इस धमकी के साथ कि इस फैसले पर कोई सवाल किया या सीता के पक्ष में कोई बात कही तो मेरा-तुम्हारा रिश्ता टूट जाएगा.
आगे रामायण में वर्णन है कि सीता गंगापार ऋषियों के आश्रम जाने को लेकर बहुत उत्साहित हैं. वहां ऋषि पत्नियों को देने के लिए काफी सारे गहने-कपड़े भी उन्होंने रख लिए हैं. लक्ष्मण ने सुमंत्र को सुबह तड़के रथ ला खड़ा करने को कह रखा है. लेकिन रथ पर चढ़ते ही सीता को अपशकुन होने लगते हैं. मन मजबूत करती हुई वे लक्ष्मण से पूछती हैं कि धरती उन्हें उजड़ी हुई सी क्यों लग रही है ?
‘मेरी तीनों सासें स्वस्थ रहें, आपके भाई प्रसन्न रहें, नगर और देश के लोग प्रसन्न रहें !’ सीता की ये बिखरी हुई बातें सुनकर भीतर से रोते हुए लक्ष्मण ऊपर से खुश दिखते हुए कहते हैं- ‘आप भी प्रसन्न रहें.’
उन्हें गोमती पार करने में एक दिन लगता है, फिर अगले दिन गंगातट पर पहुंचकर लक्ष्मण का धीरज छूट जाता है और वे कराहने लगते हैं. इसपर सीता कहती हैं – ‘आप इस तरह कराह क्यों रहे हैं ? हम जाह्नवी के तट पर पहुंच गए हैं. यहां आने की मेरी बड़ी इच्छा रही है. मेरे लिए यह खुशी का क्षण है. आप मुझे दुःखी क्यों कर रहे हैं ? हे लक्ष्मण, क्या आप दो दिन राम से अलग रहने के कारण इतने कष्ट में हैं ? मेरे लिए राम जीवन से भी ज्यादा प्रिय हैं लेकिन मैं तो दुःखी नहीं हूं. बच्चों जैसा व्यवहार न करें. आइए हम गंगा पार करें, ऋषियों से मिलें, ये गहने-कपड़े मैं उन्हें दे दूं, फिर लौट चलेंगे. मेरा मन भी सिंह जैसी छाती और कमल जैसे नेत्र वाले राम से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा है.’
विह्वल कर देने वाले इस प्रकरण में वाल्मीकि की कला अपने शीर्ष पर है. गंगा के उस पार पहुंचकर लक्ष्मण को सच्चाई बता ही देनी है. वे कहते हैं-
‘सर्वगुणसंपन्न राम ने मेरे हृदय में एक खूंटा ठोंक दिया है. मेरे लिए आज मर जाना ही बेहतर था. जो काम मुझे सौंपा गया है, दुनिया जिसके लिए मुझपर थूकेगी, उसपर रवाना होने से पहले मौत मुझे उठा लेती तो कितना अच्छा रहता. मुझे क्षमा करें हे दैदीप्यमान राजकुमारी. इसका दोष मुझपर न धरें.’
ऐसा कहकर लक्ष्मण ने सीता की परिक्रमा करके उनको आदरांजलि दी और जमीन पर गिरकर रोने लगे. उन्हें ऐसा करते और बोलते देख सीता चौंक पड़ीं और लक्ष्मण से बोलीं- ‘यह क्या है ? मैं कुछ समझ नहीं पा रही ? लक्ष्मण आप इतने परेशान क्यों हैं ? राजा ठीक तो हैं न ? मुझे अपने दुःख का कारण बताइए ?’ वैदेही का यह प्रश्न सुनकर लक्ष्मण का हृदय क्षोभ से भर गया. उन्होंने सिर झुका लिया और रुंधे गले से बोले –
‘हे जनकसुता, खुली सभा में राम को नगर और देश में आपको लेकर कही जा रही बुरी बातों की जानकारी मिली. जो बातें गुप्त रूप में मुझे बताई गई हैं, उन्हें आपके सामने मैं दोहरा नहीं सकता. हे रानी, मेरी दृष्टि में आप निर्दोष हैं लेकिन राजा ने आपका परित्याग कर दिया है. बात का गलत अर्थ न लें. लोकनिंदा ने उन्हें तोड़ डाला. हे देवी, मुझे आपको इन्हीं पवित्र आश्रमों के पास छोड़ देना है. राजा ने आपकी इच्छा पूरी करने के बहाने यह काम कर डालने का आदेश मुझे दिया है. इस दुख के नीचे बिल्कुल पिस ही न जाएं. महर्षि वाल्मीकि आपके ससुर राजा दशरथ के मित्र हुआ करते थे. उनके चरणों में शरण लें और अपने सतीत्व में प्रसन्न रहें.’
अब हम घूम-फिर कर उसी जगह पहुंच रहे हैं, जहाँ से रामायण की कहानी शुरू हुई थी. वशिष्ठ मुनि, देवर्षि नारद, रामायण रचने का आग्रह, तमसा तट, क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक का मारा जाना, पहले श्लोक का फूटना. लेकिन यह दृश्य उसके जरा पहले का है. लक्ष्मण की बातें सुनकर सीता बेहोश हो जाती हैं. फिर कुछ चैतन्य होने पर कहती हैं-
‘निश्चित रूप से मेरा शरीर दुर्भाग्य के लिए ही रचा गया है. कौन सा पाप मैंने किया था, किसे उसके पति से अलग किया था, जो राजा ने मेरा परित्याग कर दिया. पहले तो मैं जंगल में राम के पीछे-पीछे चलती थी और अपने दुर्भाग्य में संतुष्ट थी. आज जब सबने मुझे छोड़ दिया है और मुझे अकेले ही रहना है, तब अपने ऊपर आ पड़ा यह दुख मैं किसको सुनाऊंगी? ऋषियों को क्या बताऊंगी कि मेरे किस पाप के लिए राघव ने मेरा तिरस्कार कर दिया? मैं तो अभी गंगा में डूब भी नहीं सकती, क्योंकि इससे राजवंश समाप्त हो जाएगा.’
विलाप के अंत में सीता लक्ष्मण से अपने पति के लिए आखिरी संदेश कहती हैं-
‘हे वीर, अपयश के भय से आपने मुझे त्याग दिया. लोकापवाद खड़ा हो जाने पर उसके जवाब में आखिर कहा भी क्या जा सकता है. फिर भी आपको मुझे छोड़ना नहीं चाहिए था, क्योंकि मेरी परम गति आप ही हैं.’ (यहां अंतिम पंक्ति के अर्थ को लेकर और स्पष्टता जरूरी है- चं.)
मयि त्यक्ता त्वया वीर अयशोभीरुणा जने ।
यंच ते वचनीयं स्याद् अपवाद समुत्थितम् ।
मया च परिहर्तव्यम त्वं हि मे परमा गतिः ।। 7-48-13
इससे आगे के किस्से की भनक शुरू में ही आ चुकी है. गर्भवती स्थिति में गंगा तट पर बैठी एक रानी की खबर पाकर वाल्मीकि का वहाँ पहुंचना. आश्रमवासिनी महिलाओं के साथ सीता के रहने की व्यवस्था करना. जुड़वां बच्चों का जन्म. लव-कुश के रामायण गायन की ख्याति अयोध्या पहुंचना. फिर यह चर्चा भी कि दोनों लड़के असल में उन्हीं के बेटे हैं. अश्वमेध यज्ञ पूरा होने पर राम का वाल्मीकि के पास संदेश भेजना कि वे सीता को लेकर वहाँ आएं. वाल्मीकि का सीता की पवित्रता और दोनों लड़कों के राम की संतान होने की पुष्टि करना.
राम भी इसे ठीक मानते हैं और लव-कुश को अपनी संतान के रूप में स्वीकार करते हैं. लेकिन सीता को अभी एक और परीक्षा देनी है.
यथाsहं राघवादन्यं मनसापि न चिंतये ।
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।। 7-97-15
मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये ।
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।। 7-97-16
यथैतत्सत्यमुक्तं मे वेद्मि रामात्परं न च ।
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।। 7-97-17
माधवी संभवतः पृथ्वी का ही कोई पर्यायवाची है.
‘यदि मैंने राघव के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति का चिंतन न किया हो, मन कर्म और वाणी से राम की ही अर्चना की हो, राम के सिवा किसी और को मैं जानती भी नहीं, मेरा यह कथन सत्य हो तो हे माधवी देवी, मुझे एक विवर (दरार या छेद) दे दो.’
यह वाल्मीकि का ही कमाल है कि उनकी नायिका की मिट्टी या उसकी राख का एक कण भी दुनिया में नहीं रह जाता. वह सिर्फ याद में बचती है, जिंदा लोगों के पछतावे के लिए. चरम शक्तिशाली ‘लोक’ का यही दंड है. क्रुद्ध राम पृथ्वी को हुक्म देते हैं कि वह तत्काल सीता को उन्हें वापस लौटाए. अतीत में समुद्र को उनका आदेश मानना पड़ा था. पाठक सोचता है, शायद वैसा ही कुछ इस बार भी हो. लेकिन कुछ नहीं होता. कहानी खत्म हो जाती है.
- ‘समालोचन’ में पिछले पखवाड़े प्रकाशित लंबे निबंध ‘वाल्मीकि रामायण का समानांतर पारायण’ से एक अंश.
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