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रजनी पाम दत्त और फासीवाद

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रजनी पाम दत्त और फासीवाद
रजनी पाम दत्त और फासीवाद
जगदीश्वर चतुर्वेदी

रजनी पाम दत्त का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है. उन्होंने लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी अग्रणी नेता के रूप में भूमिका अदा की. वे कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार हैं. भारत इन दिनों नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की राजनीति के मोह में जिस तरह बंधा है, उससे मुक्त होने के लिए जरूरी है कि हम रजनी पाम दत्त के फासीवाद विरोधी नजरिए की प्रमुख धारणाओं को जानें.

भारत में जिसे अधिनायकवाद, तानाशाही या साम्प्रदायिकता कहते हैं, ये सब फासीवाद के ही रूप है. देशज परिस्थितियों के कारण उनके लक्षणों में कुछ भिन्नता जरूर नजर आती है, लेकिन उसकी बुनियादी प्रवृत्तियां फासीवाद से मिलती-जुलती हैं. रजनी पाम दत्त के अनुसार, ‘फासीवाद खास परिस्थितियों में आधुनिक पूंजीवादी नीतियों और प्रवृत्तियों में पतन की पराकाष्ठा आने से पैदा होने वाली चीज है और यह उसी पतन की संपूर्ण और सतत अभिव्यक्ति करता है.’

आमतौर पर यह धारणा रही है कि फासीवाद में तमाम किस्म की स्वतंत्रताएं स्थगित कर दी जाती हैं. संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार, मौलिक अधिकार आदि को स्थगित कर दिया जाता है. भारत में हम सबने यह आपातकाल में महसूस किया है. लेकिन यह भी संभव है कि संवैधानिक संस्थाओं, मूल्यों और मान्यताओं को लोकतंत्र के रहते निष्क्रिय बना दिया जाए, जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है.

रजनी पाम दत्त ने फासीवादी संगठनों की भूमिका पर रोशनी डालते हुए लिखा कि अनेक देशों में फासीवाद का जन्म जनता के बीच आंदोलन खड़ा करके और जनता के वोट से सत्ता हासिल करके हुआ है. फासीवादी आंदोलनकारी आम जनता में आतंक पैदा करके, कानून की परवाह न करने वाली गिरोहबंदियों को बनाकर, संसदीय परंपराओं की अनदेखी करके, राष्ट्रीय और सामाजिक तौर पर भड़काऊ भाषणबाजी करके, विरोधी दलों और मजदूरों के संगठनों का हिंसात्मक दमन और आतंक के राज की स्थापना करके एकाधिकारी राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं.

रजनी पाम दत्त ने लिखा है, ‘खुद फासीवादियों की नजर में फासीवाद एक आध्यात्मिक वास्तविकता है. ये इसे एक विचारधारा और दर्शन के रूप में परिभाषित करते हैं. वे इसे ‘कर्तव्य’, ‘आदेश’, ‘सत्ता’, ‘राज्य’, ‘राष्ट्’, ‘इतिहास’ आदि का सिद्धांत बताते हैं.’ रजनी पाम दत्त के अनुसार, ‘प्रत्येक देश में फासीवाद के सभी खुले और बड़े समर्थक बुर्जुआ वर्ग के ही हैं.’ यही हाल भारत का है.

दत्त ने लिखा, ‘फासीवाद अपने शुरूआती दौर में भले ही आम लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूंजीवाद विरोधी प्रचार और भाषणबाजी करे लेकिन शुरू से ही इसे जीवित रखने, बढ़ाने और पालने-पोसने का काम बड़े बुर्जुआ तथा बड़े धनपति, सामंत और उद्योगपति ही करते हैं.’

‘इतना ही नहीं फासीवाद को बढ़ाने और मजदूर वर्ग के आंदोलन से बचाने में भी बुर्जुआ तानाशाही की स्पष्ट भूमिका रही है. फासीवाद सरकारी बलों, सेना के उच्चाधिकारियों, पुलिस के अफसरों, अदालतों और जजों से मदद पाता रहा है क्योंकि वे सभी मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलना चाहते हैं जबकि फासीवादी गैरकानूनीपन को मदद करते रहते हैं.:

सन् 1928 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रम में फासीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या अभिव्यक्त हुई है, लिखा है, ‘कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों में बुर्जुआ, साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रामकता की प्रगति फासीवाद का रूप ले लेती है. ये स्थितियां है : पूंजीवादी संबंधों में अस्थिरता; काफी बड़ी संख्या में वर्गच्युत सामाजिक तत्वों की मौजूदगी;शहरी पेटीबुर्जुआ समूह और बौद्धिक वर्ग का दरिद्रीकरण; ग्रामीण पेटीबुर्जुआ वर्ग में असंतोष; और सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रांति कर देने का दवाब या डर. अपने शासन को जारी रखने और स्थिर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय प्रणाली को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने को मजबूर होता है, जो पार्टियों वाली व्यवस्था और जोड़-तोड़ से मुक्त होती है.

‘फासीवादी शासन प्रत्यक्ष तानाशाही की व्यवस्था है, जिस पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का मुखौटा चढ़ा होता है और खुद को ‘पेशेवर’ (जो शासक जमात के ही विभिन्न समूह होते हैं) वर्ग का प्रतिनिधि कहता है. पेटीबुर्जुआ वर्ग, बौद्धिकों और समाज के अन्य वर्गों की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए यह आडंबर और विद्वेषपूर्ण भाषणबाजी (कभी जाति और नस्ल को निशाना बनाना तो कभी संसद और बड़े उद्योगपतियों की तरफ निशाना साधना) करता है तथा एक ठोस और खाती-पीती सोपानात्मक फासीवादी शासन इकाई, नौकरशाही और पार्टी इकाई के जरिए भ्रष्टाचार करता है. इसके साथ ही फासीवाद मजदूर वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से को तोड़कर, उनकी नाराजगी को भुनाता है तथा सामाजिक लोकतंत्रवादियों की निष्क्रियता का लाभ भी लेता है.

‘फासीवाद का मुख्य उद्देश्य मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी हरावल दस्ते, अर्थात कम्युनिस्ट हिस्सों और सर्वहारा वर्ग की अगुआ इकाईयों को नष्ट करना है. सामाजिक रूप से भड़काऊ नारों को उछालना, भ्रष्टाचार तथा दमनकारी शासन के साथ ही विदेशी राजनीति में अति-साम्राज्यवादी आक्रमण फासीवाद के खास चरित्र हैं. बुर्जुआ वर्ग के लिए खास संकट के दौरों में फासीवाद पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का प्रयोग शुरू करता है. लेकिन जब वह शासन में जम जाता है तो उन सारी बातों को आसानी से भुला देता है और बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में सामने आता है.’

भारत में फासीवाद पर बातें करते समय अधिकांश समय समान विचारों के लोगों में अनेक बार विचलन भी नजर आता है, वे फासीवादी संगठनों की इस या उस चीज की प्रशंसा करने लगते हैं. फासीवादी संगठन को हमेशा समग्रता में उनकी राजनीति के आईने में देखना चाहिए. इनके पीछे बड़े कारपोरेट घरानों की सक्रियता, समर्थन और आर्थिक मदद की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए. मसलन् आरएसएसके पीछे सक्रिय कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.

कारपोरेट घराने ही हैं जो साम्प्रदायिक संगठनों के गुण्डों, अपराधियों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों का सारा खर्चा उठाते हैं. ये वे लोग हैं जो बहुत ही शांत भाव, साफ सोच और बुद्धिमानी से इस फौज के संचालन का काम कर रहे हैं. हमें इनके ऊपरी शोर-शराबे पर नहीं, उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली पर ध्यान देना चाहिए. फासीवादी राजनीति ऊपरी शोर-शराबे से समझ में नहीं आएगी. रजनी पाम दत्त ने लिखा है, ‘फासीवाद वित्तीय पूंजीवाद का ही एक कार्यनीतिक जरिया है.’

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ROHIT SHARMA

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