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राजकीय हमलों पर शर्तें कैसी ?

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राजकीय हमलों पर शर्तें कैसी ?

Rizwan Rahmanरिजवान रहमान, समाजिक कार्यकर्ता

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूंं.

मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूंं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है.

– केदारनाथ सिंह

इस देश में न्याय तभी ध्वस्त हो गया, जब एक दंगाई संविधान की कसमें खाकर प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ ले रहा था. इस देश की आत्मा तभी मर गई जब कब्र से औरतों को खींच कर रेप करने की घोषणा करने वाला हत्यारा, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गया.

लिखने, पढ़ने, बोलने वाले मुस्लिम एक्टीविस्ट को उठाने का काम नए फेज के साथ शुरु हो चुका है. इस सिलसिले में क्राइम ब्रांच ने कई एक्टीविस्ट को नोटिस भी दिया है. ये तमाम लोग मुसलमानों पर होने वाले दमन और हिंसा के खिलाफ लगातार बोल रहे थे. एएमयू के स्टूडेंट एक्टिविस्ट शरजील उस्मानी को आजमगढ़ से उठा लिया गया. हाल यह है कि इस देश में हर दिन कोई न कोई मुस्लिम एक्टिविस्ट सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है.

मुसलमानों को लेकर इस देश के बुद्धिजीवी वर्ग में अलग ही सलेक्टिव एप्रोच है. एक तरह से खतरनाक स्तर पर पुर्वाग्रह के शिकार पाए जाते हैं. किसी मुस्लिम एक्टीविस्ट पर होने वाले दमन के खिलाफ बोलना है या नहीं, यह सोचते-सोचते इन्हें 2, 4 दिन का समय लग जाता है. इतनी देरी के बाद भी कोई सपोर्ट में आएगा, कोई नहीं आएगा और ज्यादातर तो चुप्पी मार जाएंगे.

लेकिन यही लोग एक्टिव होते हैं जब मसला उच्च वर्ग और सवर्ण तबके से जुड़ा हो अथवा कुछ ऐसा कंटेंट हो जिस पर बोलते, लिखते लिबरल टाइप फील आए. सोशल मीडिया के धुरंधर भी तभी हाइपर एक्टिव होते हैं बशर्ते मुद्दा वंचित, शोषित, उपेक्षित समुदाय से जुड़ा न हो. अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर कदम ऐसे डगमगाए रहते हैं कि कभी तो आपको कोफ्त हो और कभी हंसी आ जाए. बहुत ही कम लोग मिलेंगे जो साफ और बगैर किसी दांव-पेंच लिए समर्थन में खड़े दिखे.

इन्हें भारतीय मुसलमान कट्टर लगता है. उनकी आवाज़-आंदोलन, फसाद लगता है. उनकी राजनीति इन्हें जिहाद लगता है. उनका एप्रोच मध्ययुगीन लगता है. आप बात करेंगे मुस्लिम आईडेंटिटी पॉलिटिक्स की, समझा जाता है धर्म की स्थापना की जा रही.

वे दुनिया की तमाम आईडेंटिटी की आवाज को किसी भी हद तक सपोर्ट कर सकते हैं, मुसलमानों की आवाज को नहीं. इसके लिए उनका एक फ्रेम है जिसमें वे नापते हैं, मापते हैं कि मुसलमान कहां तक जा सकता है. और अगर कोई सीमा से आगे बढ़ गया तो खौफनाक करार दिया जाना तय है. तुलना में वे तमाम शब्द लाए जाते हैं, जिनका भारतीय मुसलमान से दूर-दूर तक नाता नहीं है.

शरजील इमाम को लेकर लिबरल समुदाय का प्रोपगंडा ही अलग था. मैं यहीं बैठे-बैठे देख रहा था कि 3 दिन, 4 दिन तक वे किस प्रकार का डॉयलॉग नरेटिव बना रहे थे. कुछ ने कहा शरजील को डिसओन कर दो, सेकुलर इंडिया के फैब्रीक के लिए खतरनाक है. कुछ का तर्क था कि हमने फलां को नकार दिया तो मुसलमान भी शरजील को नकार दें.

दिलचस्प है शुरुआती कई दिनों तक हुआ भी यही, आम मुसलमान से लेकर ओवैसी साहब तक ने शरजील से किनारा कर लिया. लिबरल्स ने (इनमें मुसलमान लिबरल भी शामिल हैं) शाहीन बाग के मंच से घोषणा करवाई कि ANTI-CAA प्रोटेस्ट और शाहीन बाग का शरजील से कोई संबंध नहीं.

यह हाल है, जब स्टेट अटैक करता है किसी मुसलमान पर. समर्थन देने से पहले शर्तें रखी जाती है. इस Oppressed Identity को उन शर्तों को मंजूर करना पड़ता है. यही लिबरल हिप्पोक्रेट लोग अमेरिका के ब्लैक आंदोलन को सपोर्ट भी करते हैं, दिन में 10 ट्वीट और पोस्ट करते देखे गए, जिससे वहां के आंदोलन को मोरल सपोर्ट के अलावा कुछ भी नहीं मिला.

लेकिन इस जमीनी लड़ाई में एक-एक आवाज की अहमियत है. समर्थन में खड़े हर एक की गिनती मायने रखती है. और होता यह है कि ये लोग इस जमीनी लड़ाई को नो-मेंस लैंड में बदल देते हैं ! अजीब हिप्पोक्रेसी है, अजीब मक्कारी है. इस तबके को हॉंगकोंग में तो आजादी चाहिए लेकिन कश्मीर तक आते-आते कंडीसन लग जाता है. मुसलमान तक पहुंचते चार-पांच लेंस ऊपर से लगा लेते हैं.

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ROHIT SHARMA

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