अंत में मनुष्य अवश्य अपने ध्येय पर पहुंचेगा. वह ध्येय है- समस्त मानवों की समता, परस्पर प्रेम और सार्वत्रिक सुख-समृद्धि !
— राहुल सांकृत्यायन
लोकहित में सच की खोज की अनवरत जिज्ञासा और कोई भी कीमत चुका कर सच के पक्ष में खड़ा होने के साहस के एक प्रतीक का नाम राहुल सांकृत्यायन है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1937 में जिनका भाषण सुनकर जवाहरलाल नेहरू के मुंह से बरबस निकल पड़ा, ‘राहुल की तरह चिंतक हमारे विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं पैदा होते !’ यही आज का भी सच है.
भारत के किसी विश्वविद्यालय ने तो राहुल सांकृत्यायन को अपने यहां शिक्षक के योग्य नहीं समझा लेकिन श्रीलंका और सोवियत संघ (समाजवादी) ने विशेष निवेदन करते हुए आदर के साथ उन्हें अपने यहां के विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के लिए बुलाया और अपने विशिष्ट विद्वत अतिथि के रूप में सम्मान दिया. वे श्रीलंका के विद्यालंकर विश्वविद्यालय में दर्शन-विभाग के अध्यक्ष (डीन और प्रोफेसर) नियुक्त हुए थे. सोवियत संघ में वे लेनिनग्राद विश्वविद्यालय के प्राच्य-विभाग के इंडो-तिब्बती उपविभाग में संस्कृत के प्रोफेसर नियुक्त हुए थे.
राहुल सांकृत्यायन के लिए कौन-सा उपमान सटीक है, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के किसी भी अध्येता के लिए इसका जवाब दे पाना मुश्किल है. वे पुनर्जागरण कालीन यूरोप के उन अगुवा दार्शनिकों-चिंतकों और अध्येताओं की तरह दिखते हैं, जो बहुआयायी प्रतिभा और व्यक्तित्व के धनी थे. राहुल सांकृत्यायन कभी पुरातत्वविद् नजर आते हैं, कभी इतिहासकार, कभी भाषाविद्, कभी कोशकार, कभी साहित्यकार और कभी मजे हुए जननेता !
ज्ञान-यात्रा
उन्होंने 70 वर्ष के अपने जीवन में करीब 140 से अधिक किताबों की विभिन्न भाषाओं और विधाओं में रचना की. तीव्र जिज्ञासा वृत्ति और ज्ञानपिपासा उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम पहलू है. इस जिज्ञासा और पिपासा ने उन्हें आधुनिक भारत का सबसे बड़ा घुमक्कड़ बना दिया. यह घुमक्कड़ी सिर्फ प्रकृति दर्शन के लिए नहीं, बल्कि ज्ञान की भूख और जीवन-जगत के यथार्थ को जानने-समझने से प्रेरित थी.
इस घुमक्कड़ी ने राहुल को ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ – दोनों से गहन परिचय कराया और उन्हें चलता-फिरता विश्वकोश बना दिया. उन्होंने एशिया का बड़ा हिस्सा नाप डाला. तीन बार सोवियत संघ गए और पश्चिमी यूरोप के महत्वपूर्ण देशों की यात्राएं की. तिब्बत ने उन्हें बार-बार अपनी ओर खींचा (वहां पांच बार गए), क्योंकि उन्हें वहां बौद्ध संस्कृति से संबंधित अकूत सामग्री मिलने की उम्मीद थी, जो भारत में करीब-करीब नष्ट हो चुकी थी. उनकी यह उम्मीद पूरी भी हुई.
तिब्बती स्रोतों को आधार बनाकर अनूदित किए गए और नए सृजित किए गए ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने ‘बौद्ध धम्म’ को भारत में वैचारिक तौर पर पुनर्जीवन प्रदान किया और बौद्ध धम्म के अध्येताओं के लिए स्रोत-सामग्री मुहैया कराई. इस संदर्भ में उन्होंने स्वयं लिखा है- ‘मैंने श्रीलंका में रहकर त्रिपिटक का अध्ययन किया, लेकिन बौद्ध धम्म के सभी ग्रंथ वहां प्राप्य नहीं हैं, इसलिए उनके पढ़ने के लिए मैं तिब्बत जाना चाहता हूं. भारत में बौद्ध धम्म का प्रचार करना चाहता हूं.’
बाद के दिनों में साम्यवाद के पुरजोर समर्थक बने राहुल को अंतिम समय तक बौद्ध संस्कृति और मूल्यों से गहरा लगाव बना रहा. करीब 37 वर्ष की उम्र में उन्होंने 1930 में ‘बुद्धचर्य्या’ नामक ग्रंथ लिख डाला था. 56 वर्ष की उम्र में 1949 में उन्होंने ‘बौद्ध संस्कृति’ ग्रंथ लिखा. करीब पांच सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में राहुल ने भारत, श्रीलंका, बर्मा, इंडोनेशिया, हिंद-चीन, अफगानिस्तान, मध्यएशिया, तिब्बत, मंगोलिया, कोरिया और जापान में फली-फूली बौद्ध संस्कृति का परिचय दिया है.
उनके लेखन एक बड़ा हिस्सा किसी न किसी रूप में बौद्ध धम्म और उसके साहित्य से संबंधित है, जिसमें प्रमुख बौद्ध धम्म ग्रंथों का अनुवाद भी शामिल है. बौद्ध धम्म और श्रमण-बहुजन वैचारिकी के स्रोत -पाली भाषा- एवं साहित्य-संस्कृति को आधुनिक युग में पुनर्जीवन देने का श्रेय राहुल सांकृत्यायन को जाता है.
जब उन्होंने पाली और बौद्ध धम्म का अध्ययन आरंभ किया था, तब देवनगारी (हिंदी) में ‘धम्मपद’ को छोड़कर कोई पाली ग्रंथ उपलब्ध नहीं था. उन्होंने ‘पाली काव्यधारा’ और ‘पाली साहित्य का इतिहास’ जैसे ग्रंथ लिखे. उन्होंने अपभ्रंश साहित्य को भी नया जीवन दिया. उन्होंने ‘हिंदी काव्यधारा’ (अपभ्रंश काव्यधारा) लिखकर अपभ्रंश के साहित्य से नया परिचय कराया. उन्होंने ‘सरहपा: दोहा-कोश’ (हिंदी छायानुवाद सहित) तैयार कर सरहपा के समग्र काव्य-जगत से हिंदी पाठकों को परिचित कराया.
उन्होंने प्राकृत भाषा के साहित्य पर भी काम किया. उन्होंने ‘तिब्बती व्याकरण,’ ‘तिब्बती पाठावलि’, भाग-1, 2, 3 और ‘तिब्बती बाल शिक्षा’ जैसे ग्रंथ और किताबें लिखकर तिब्बती भाषा एवं साहित्य को समृद्ध किया. राहुल सांकृत्यायन पाली के बड़े अध्येता थे या संस्कृत के या तिब्बती भाषा या भोट भाषा (तिब्बती भाषाओं का सामूहिक नाम) या हिंदी के, यह निर्णय करना मुश्किल है !
उन्होंने ‘पाली काव्यधारा’ और ‘पाली साहित्य का इतिहास’ के साथ ही ‘तिब्बती-हिंदी कोश’ भी तैयार किया. इतना ही नहीं, उन्होंने 1955 में संस्कृत के विशाल साहित्य भंडार से हिंदी पाठकों को रूबरू कराने के लिए करीब एक हजार पृष्ठों की किताब ‘संस्कृत काव्यधारा’ नाम से किताब तैयार किया. इसके पहले वे संस्कृत स्रोतों का उपयोग करके ‘संस्कृत पाठमाला’ और ‘ऋग्वैदिक आर्य’ जैसी किताब भी तैयार कर चुके थे. उन्होंने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में करीब आठ किताबें लिखी, जिसमें ‘मेहरारुन की दुरदसा’ ज्यादा चर्चित हुई.
हां यह सच है कि उन्होंने अपनी सैकड़ों किताबों, अनुवादों और कोशों से सबसे अधिक हिंदी भाषा को समृद्ध किया. उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा कोश’ और ‘शासन शब्दकोश’ तैयार करके हिंदी में पारिभाषिक शब्दों की कमी को दूर करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
उन्होंने इस्लामिक संस्कृति का परिचय देने के लिए ‘इस्लाम की रूपरेखा’ शीर्षक से किताब लिखी. उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ जैसी महत्वपूर्ण किताब लिख कर दुनिया के विभिन्न दर्शनों का परिचय प्रस्तुत किया. उन्होंने करीब दर्जन भर जीवनियां लिखी, जिसमें ‘कार्ल मार्क्स’, ‘लेनिन’, ‘स्तालिन’ और ‘माओ त्से तुंग’ की जीवनी भी शामिल है. इन जीवनियों ने भारतीय समाज को रचने और पाठकों के मनोमस्तिष्क को प्रगतिशील परिवर्तन के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया. उनकी किताब ‘मध्य एशिया का इतिहास’ (दो खंड)’ के लिए 1958 में जवाहरलाल नेहरू के हाथों उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला.
उनकी दर्जनों किताबों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुआ, जिसमें ‘वोल्गा से गंगा’, ‘बाईसवीं सदी’, ‘सिंह सेनापति’, ‘जय यौधेय’, ‘विस्मृति के गर्भ में’, ‘मानव समाज’, ‘दर्शन-दिग्दर्शन’, ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ आदि शामिल हैं. उनकी सबसे चर्चित किताब ‘वोल्गा से गंगा’ तक का भारत की विभिन्न भाषाओं में सर्वाधिक अनुवाद हुआ. वे बौद्ध संस्कृति और प्रगतिशील वैचारिकी का आजीवन प्रचार करते रहे. उन्होंने बौद्ध धर्म और संस्कृति से जुड़े करीब 10 ग्रंथों की रचना की या अनुवाद कर उन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया.
हालांकि 1939 में ही वे कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुके थे और मार्क्सवादी विचारधारा स्वीकार कर चुके थे. उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा और बौद्ध संस्कृति के प्रचार-प्रसार के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता था, क्योंकि वे कोई जड़सूत्र मार्क्सवादी नहीं थे. जिस तरह के मार्क्सवादियों के बारे में वे लिखते हैं –
‘वस्तुत: उनमें (भारतीय वामपंथियों) पंथाई संकीर्णता दिखलाई पड़ती है. वे अपने विचारों और मित्र-मंडली की एक खोल बनाकर उन्हीं के भीतर रहने में संतोष कर लेते हैं.’
कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने के बाद भी उन्होंने अपने भीतर कभी पंथाई संकीर्णता की जगह नहीं बनने दिया और न ही अपने खोल में कभी सिमटे. जब पार्टी ने पंथाई संकीर्णता स्वीकार करने के लिए उन्हें बाध्य करने की कोशिश किया तो उन्होंने पार्टी छोड़ दिया. हालांकि अंत में वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में मरे. यही उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश भी थी.
कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में वे एक तरफ ‘साम्यवाद ही क्यों’ लिख रहे हैं, तो उसी समय ‘विनय पीटक’ का अनुवाद भी कर रहे हैं. वे स्वयं को बौद्ध संस्कृति और बुद्ध का अनुयायी कहते हुए भी खुद को बौद्ध धर्म का अनुयायी नहीं मानते थे. उन्होंने इस संबंध में बेबाक शब्दों में लिखा है-
‘संस्कृति और धर्म एक चीज नहीं है, इसका उदाहरण मैं स्वयं हूं. बुद्ध के प्रति बहुत सम्मान रखते हुए भी, उनके दर्शन को बहुत हद तक मानते हुए भी, मैं अपने को बौद्ध धर्म का अनुयायी नहीं कह सकता.’
क्योंकि धर्म (मजहब) के बारे में उनका कहना था कि – ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’
इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना ! अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पागल क्यों है ? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है ? और कौन गाय खाने वालों को गोबर खाने वालों से लड़ा रहा है ? असल बात यह है कि ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को सिखाता है भाई का खून पीना.’
हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर. कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता. कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता. मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है. उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं है.’
अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में उन्होंने धर्म, ईश्वर और जाति के क्षय की पुरजोर वकालत की है.
राहुल के समग्र बौद्ध साहित्य संबंधी लेखन को देखकर कोई भी यह कह सकता है कि उनके लिए बौद्ध धर्म, धर्म नहीं, भारत की प्राचीन संस्कृति की सबसे प्रगतिशील कड़ी है, जो ईश्वर और आत्मा में विश्वास नहीं करता. समता और सबके लिए न्याय पर टिका एक भौतिकवादी जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य है. जो सब कुछ को नित्य परिवर्तनशील मानता है और किसी तरह के अंतिम सत्य में विश्वास नहीं करता, जिसमें ईश्वर और ईश्वर की वाणी के लिए कोई जगह नहीं है.
राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893) का स्वयं का जीवन अनवरत बहती नदी की धारा है. उनका जन्म एक ब्राहमण परिवार में हुआ था. वह वेदान्ती, आर्य समाजी, बौद्ध मतावलंबी से होते हुए मार्क्सवादी बने. विचार बदले, चोला बदला और तदनुसार नाम भी बदलता गया. बचपन में रखा गया नाम केदारनाथ पांडे, वेदांती साधु बनने पर रामउदारदास हो गया (1912-13), वेदांती साधु रामउदारदास 1915 तक आते-आते पक्के आर्यसमाजी बन गए. 22 जून 1930 को विद्यालंकर विहार (श्रीलंका) में उनकी प्रव्रज्या (बौद्ध भिखु बनना) के साथ रामउदारदास का नया नाम राहुल सांकृत्यायन हो गया.
विद्रोही चेतना, न्यायबोध और जिज्ञासावृत्ति ने पूरी तरह से ब्राहमणवादी जातिवादी हिंदू संस्कृति के खिलाफ खड़ा कर दिया. उन्होंने अपनी किताब ‘तुम्हारी क्षय’ में लिखा-
‘हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात-पांत भी एक है. पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होता है कि हिंदुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था.
‘जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊंच-नीच का भाव पैदा करता है. ब्राह्मण समझता है कि हम बड़े हैं, राजपूत छोटे हैं. राजपूत समझता है, हम बड़े हैं, कहार छोटे हैं. कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं. चमार समझता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटा है. और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को छोटा कह ही लेता है.’
वे ब्राह्मण धर्म को एक संकुचित धर्म मानते थे और जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष समता के पक्षधर थे. ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ शीर्षक किताब में उन्होंने इस संदर्भ अपने विचारों को इन शब्दों में प्रकट किया है –
‘कोई-कोई महिलाएं पूछती हैं – क्या स्त्रियां भी घुमक्कड़ी कर सकती हैं, क्या उनको भी इस महाव्रत की दीक्षा लेनी चाहिए ? इसके बारे में तो अलग अध्याय ही लिखा जाने वाला है, किंतु यहां इतना कह देना कि घुमक्कड़-धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्थान नहीं हो. स्त्रियां इसमें उतना ही अधिकार रखती हैं जितना पुरुष.
यदि वह जन्म सफल करके व्यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उन्हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए. घुमक्कड़ी-धर्म छुड़ाने के लिए ही पुरुष ने बहुत से बन्धन नारी के रास्ते में लगाए हैं. बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए घुमक्कड़ी करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका वहीं उपदेश था.’
जीवन प्रवाह की एक कड़ी के रूप में राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध भिक्षु का चोला भी उतार दिया और पक्के मार्क्सवादी बन गए, लेकिन बौद्ध संस्कृति से गहरा नाता आजीवन कायम रहा. नाम परिवर्तन या चोला परिवर्तन भीतर के वैचारिक परिवर्तन के वाह्य रूप थे.
‘अंत में मनुष्य अवश्य अपने ध्येय पर पहुंचेगा. वह ध्येय है- ‘समस्त मानवों की समता, परस्पर प्रेम और सार्वत्रिक सुख-समृद्धि.’
यही उनका असल ध्येय था. इस ध्येय को पाने के लिए ही वे आजीवन संघर्ष करते रहे. उन्हें बुद्ध का यह वचन बहुत प्रिय था कि ‘नौका की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया, न कि सिर पर उठाए-उठाए फिरने के लिए.’
राहुल सांकृत्यायन की जीवन-यात्रा को उनके जीवनीकार गुणाकर मुले ने सटीक तौर पर इन शब्दों में प्रस्तुत किया है –
‘राहुल सतत तैरते रहे-एक ज्ञान सागर से दूसरे ज्ञान सागर, दूसरे से तीसरे ज्ञान सागर…और ये सागर थे-संस्कृत और अपभ्रंश के, तिब्बती और बोलियों के, बौद्ध धर्म से संबंधित पाली और संस्कृत साहित्य के, इतिहास और पुरातत्व के, पारिभाषिक शब्दावली के. वे अनवरत ज्ञान-साधना करते हुए कभी दुर्गम भूखंडों में विचरते रहे, तो कभी जेल की कोठरियों में बंद रहे…’
राहुल सांकृत्यायन जन-जीवन और जन-संघर्षों से दूर सिर्फ ज्ञान की दुनिया में गोता लगाने वाले जीव नहीं थे, जनता के सुख-दु:ख उन्हें तेजी से अपनी ओर खींचते रहे.
रूसी क्रांति (1917) ने उन्हें गहरे स्तर पर प्रभावित किया था. उस क्रांति से उनका नेह जब एक बार कायम हुआ, तो आजीवन बना रहा. वे उसके आधार पर एक खूबसूरत दुनिया की कल्पना करते हैं. इस कल्पना को उन्होंने अपनी ‘बाईसवीं सदी’ किताब में मूर्त रूप दिया. इस किताब को उन्होंने हजारीबाग जेल में (1923) में पूरा किया.
राजनीतिक यात्रा
ज्ञान-यात्रा की तरह उनकी राजनीतिक यात्रा भी विभिन्न चरणों से गुजरी. पहले कांग्रेसी बने (1921-27), फिर सोशिलिस्ट (1931 बिहार सोशिलिस्ट पार्टी के मंत्री), उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी (1939). 1922 में पहली बार छह माह के लिए जेल गए, उसके बाद हजारी बाग (1923-1925 के बीच) जेल में करीब दो साल से अधिक समय तक रहे. 1927 का वर्ष उनके जीवन में वैचारिक तौर एक निर्णायक वर्ष बनकर आया, जिसके संदर्भ में उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा में स्वयं लिखा है –
‘ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है. लंका (देश) ने मेरे लिए ईश्वर की बची-बचाई टांग ही नहीं तोड़ दिया, बल्कि खाने की भी आजादी (शाकाहारी से मांसाहारी बने) दे दी और साथ में मनुष्यता के संकीर्ण दायरे को तोड़ दिया था. अब मुझे डार्विन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय में और बैठती जाने लगी.’
इसकी सांगठनिक परिणति 1939 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता के रूप में सामने आई. 1939 में किसानों मजदूरों के लिए संघर्ष करते हुए छपरा और हजारीबाग की जेलों में रहे. मेहनतकश जनता के प्रति उनके सरोकार और राजनीति के प्रति उनके रुझान के संदर्भ में गुणाकर मुले लिखते हैं –
‘यह सच है कि राहुल जी को अध्ययन, अनुसंधान और घुमक्कड़ी का जीवन बेहद पसंद था, लेकिन वे शोषित जनता के उद्धार के लिए सामाजिक और राजनीतिक कार्य को ही सबसे ज्यादा महत्व देते थे.’
इसकी पुष्टि राहुल सांकृत्यायन को शुद्ध अनुसंधान कार्य से जोड़े रखने की कोशिश करने वाले काशी प्रसाद जायसवाल के इस कथन से भी होती है कि ‘वे वस्तुत: जनता के आदमी थे.’
राहुल सांकृत्यायन ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत (1921) कांग्रेस पार्टी के साथ किया. उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन में बैरागी साधु के वेश में हिस्सेदारी की. इस वर्ष बिहार में आई बाढ़ में लोगों की जी-जान लगाकर इस कदर मदद किया कि लोग कहने लगे कि बाबा तो साम्यवादी है. पहली बार जेल गए. बोध गया का महाबोधि मंदिर बौद्धों को सौंपने (जिस पर हिंदुओं का कब्जा था) का प्रस्ताव प्रांतीय कांग्रेस कमेटी में पास कराया.
गांधी की विचारधारा ने कभी उन्हें ज्यादा आकर्षित नहीं किया. इस संदर्भ में उन्होंने स्वयं लिखा है –
‘इसी काम (सर जयतिलके को तार और पत्र भेजने) के सिलसिले में मैं गांधीजी के पास गया हुआ था. इससे पहले भी गांधीजी से मिलने का एक से अधिक बार अवसर मिला, लेकिन मुझे कभी कोई अधिक बात जानने की इच्छा नहीं हुई. उनके आदर्शवाद का सम्मान करते हुए भी मैं बौद्धिक तौर पर उनसे बहुत दूर था, इसलिए मैं कभी उनके यहां गया भी तो कुछ मिनटों से अधिक नहीं ठहरा.’
1938 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल के शासन और काश्तकार किसानों की जगह जमींदार समर्थक रुख ने राहुल को पूरी तरह कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर दिया. राहुल ने जमींदारों के खिलाफ किसानों का नेतृत्व करना शुरू किया. इसी संघर्ष में हथुआ राज के जमींदार के लठैतों ने राहुल का सिर फोड़ दिया ! उनके सिर फूटने की खबर गांव-गांव पहुंची. उसी दौरान यह चर्चित कविता लिखी गई –
राहुल के सिर से खून गिरे,
फिर क्यों वह खून उबल न उठे,
साधू के शोणित से फिर क्यों,
सोने की लंका जल न उठे ?
राहुल को छपरा जेल में डाल दिया गया. इसी जेल में उन्होंने ‘तुम्हारी क्षय’ किताब लिखी. जेल से निकलने के बाद वे 19 अक्टूबर 1939 में स्थापित बिहार की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली. 1940 में वे अखिल भारतीय किसान सम्मेलन के सभापति चुने गए. 15 मार्च 1940 को उन्हें भारत-रक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. दो साल 9 महीने ( मार्च 1940 से जुलाई 1942 तक) हजारीबाग जेल और देवली कैंप में गिरफ्तार रहे.
इसी जेल-यात्रा के दौरान उन्होंने ‘विश्व की रूपरेखा’, ‘मानव-समाज’, ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ और ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ जैसी चार महत्वपूर्ण किताबें लिख डालीं. 23 जुलाई, 1942 को उन्हें हजारीबाग जेल से रिहा कर दिया गया.
राहुल सांकृत्यायन के जीवन और कार्यों को देखते हुए लगता है, कैसे कोई 70 वर्ष के जीवन में इतना कार्य कर सकता है ? इसका वस्तुगत जवाब उनके जीवनीकार गुणाकर मुले इन शब्दों में देते हैं –
‘समझना ज्यादा कठिन नहीं है. राहुल जी के जीवन में रहस्य जैसा कुछ नहीं था. उनमें प्रतिभा थी, तीव्र ज्ञानपिपासा थी और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपूर्व क्षमता थी.’
मुझे लगता है कि सबसे बड़ी बात यह कि दुनिया को सुंदरतम बनाने का उनके आंखों में सपना था. बीसवीं शताब्दी में ऐसा सपना देखने वाले दुनिया के कई व्यक्तित्वों ने मनुष्यता की ऊंचाइयों को छुआ, राहुल सांकृत्यायन भी उनमें एक हैं. एक न्यायपूर्ण, समता और सबकी सुख-समृद्धि पर आधारित भारत का सपना देखने वालों के लिए राहुल सांकृत्यायन महान पुरखे हैं, जिनके जीवन, विचारों और संघर्षों से बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है.
राहुल सांकृत्यायन भारत की महान प्रगतिशील परंपरा के आधुनिक युग में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं. ग्राम्शी से शब्द उधार लेकर कहें, तो आर्गेनिक जनबुद्धिजीवी के एक प्रतिमान थे.
- डॉ. सिद्धार्थ
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