1947 की तथाकथित आजादी के बाद से समाज में जो पूंजीवादी गैर बराबरी से उपजी संस्कृति व नैतिकता निर्मित हो रही थी, उसको प्यासा फिल्म शानदार ढंग से प्रस्तुत करती है. पूरी फिल्म में इंसानियत और पूंजीवादी संस्कृति आपस में टकराते रहते हैं. फिल्म की खास बात यह है कि वह सिर्फ अपने समय के ही नहीं बल्कि आगे आने वाले पूंजीवादी समाज के यथार्थ को भी सटीक ढंग से प्रतिबिंबित करती है. फ़िल्म बुर्जुआ प्रेम, बेरोजगारी की समस्या तथा पूंजीवादी व्यवस्था व संस्कृति की अमानवीयता को दर्शकों के सामने पूरी तरह से खोल कर रख देती है.
बतौर मुख्य नायक एक बेरोजगार नौजवान शायर ‘विजय’ का किरदार गुरुदत्त ने निभाया है. एक ‘वेश्या’ गुलाबो (अंत में जिसका साथ विजय को मिलता है) का किरदार वहीदा रहमान ने निभाया है. फिल्म की नायिका एक ‘वेश्या’ है, जो समाज की नजरों में तो पददलित है लेकिन तथाकथित सभ्य लोगों से ज्यादा मानवीय व संवेदनशील है.
यहां यह याद आना स्वाभाविक है कि कैसे सोवियत क्रांति के बाद वेश्यावृत्ति को समाप्त करने और उनको सामाजिक बराबरी दिलाने के लिए कम्युनिस्ट नौजवानों ने उनसे शादी कर ली थी जबकि आज यह कल्पना करना भी मुश्किल होता जा रहा है. उल्टे पूंजीवाद द्वारा वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा प्रदान किया जा रहा है.
वहीं दूसरी तरफ पूंजीवादी संस्कृति के एक प्रतीक के रूप में माला सिन्हा ने विजय की पूर्व प्रेमिका ‘मीना’ का किरदार अदा किया है. उसका पति एक बड़े प्रेस का मालिक है, जिसके यहां विजय कुछ दिन नौकर के तौर पर काम करता है और अपनी नज़्मों को छपवाना चाहता है. जबकि वह सिर्फ इसलिए नौकरी पर रखता है कि वह जान सके कि विजय का मीना से क्या संबंध रहा है.
अचानक से एक दिन एक प्रसंग के दौरान मीना से मुलाकात होने पर विजय कहता है कि ‘जिंदगी की असली खुशी दूसरों को खुश रख कर ही हासिल की जा सकती है और यह बात तुम कभी नहीं समझ सकी इसलिए दौलत-शोहरत होने के बावजूद भी तुम नाखुश हो.’
फिल्म यह दिखाती है कि व्यक्तिगत प्रेम कोई अलग चीज नहीं है बल्कि सामाजिक समस्या से अभिन्न रूप से जुड़ी हुयी है. यहां माओ की एक बात याद आती है कि ‘एक वर्ग विभाजित समाज में प्रेम भी वर्ग विभाजित होता है.’ सामाजिक समस्या ही व्यक्तिगत जीवन में भी प्रतिबिम्बित होती है.
फिल्म प्रेम में जो प्रतिबद्धता, साहस व आदर्श होना चाहिये उसे स्थापित करती है. वर्तमान समय में युवक-युवतियों के प्रेम में यह बड़ी समस्या के रूप मौजूद है. प्रेम के मूल्यों,आदर्शों व प्रतिबद्धता को लगातार पूजीवादी संस्कृति नष्ट कर रही है . कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स के कथन ‘पूंजीवाद हृदय शून्य संबंधों को जन्म देता है, जहां हर चीज भावना-प्रेम-संबंध-नैतिकता रुपए पैसे के मोल में तब्दील हो जाते हैं.’ इसको फिल्म ने बढ़िया ढंग से दिखाया है.
कहानी में तब मोड़ आता है जब अखबारों में विजय की आत्महत्या की खबर फैल जाती है जबकि मौत उस भिखारी की हुई रहती है, जो रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर ठंढ से ठिठुर रहा होता है जिसे विजय ठंडी से बचाने के लिए अपनी कोट दे देता है. कोट देकर विजय जब पैदल ही रेल की पटरियां पार करने के लिए आगे बढ़ता है तो एक ट्रेन को आते देखकर उस भिखारी को यह लगता है कि शायद यह नौजवान आत्महत्या करने जा रहा है. तभी उस भिखारी का पैर रेलवे ट्रैक की मोड़ पर दो जुड़ी हुई पटरियों के बीच फंस जाता है.
विजय उसे बचाने की पूरी कोशिश करता है लेकिन जब ट्रेन एकदम पास आ जाती है तो भिखारी विजय को धक्का दे देता है जिससे विजय तो बच जाता है लेकिन भिखारी की मौत हो जाती है. इस दृश्य के माध्यम से फ़िल्म यहां एक गरीब भिखारी की मानवीय संवेदना को दिखाती है. कोट की जेब में ‘मीना के नाम’ शीर्षक से नज़्म का एक पन्ना रहता है, जिससे यह बात फैल जाती है कि एक नौजवान शायर जिसका नाम ‘विजय’ था कि ट्रेन से कटकर मृत्यु हो गयी. रद्दीखाने से विजय की नज़्मों की कापियां जिसे उसके घर वाले रद्दी वाले को बेच दिए होते हैं वह गुलाबो के हाथ लग जाती है और वह उन्हें पसंद करने लगती है.
मरने की खबर के बाद गुलाबो नज़्मों की कॉपी लेकर उन्हें छपवाने जाती है. मीना उसकी कीमत लगाती है, तभी उसका पति वहां आ जाता है और मुनाफे के उद्देश्य से छापने के लिए राजी हो जाता है. बेरोजगारी का आलम और निराशा की वजह से विजय के नज़्मों का दर्द अब समाज के ज्यादातर लोगों का दर्द बन चुका था इसलिए किताब का पहला संस्करण हाथों-हाथ बिक जाता है.
मुनाफे में हिस्सा लेने के लिए लालच में विजय के भाई व दोस्त पहुंच जाते हैं जो पहले उसको ताने मारते रहते हैं, घर से निकाल देते हैं और उसकी नज़्मों की कॉपी रद्दी में 10 आने में बेच दिए रहते हैं. जब पता चल जाता है कि विजय अभी जिंदा है तब विजय को साजिश कर पागलखाने भेज दिया जाता है. उसके दोस्त और भाइयों ने उसे पहचानने तक से इंकार कर दिया.
शायर के रूप में विजय की प्रसिद्धि के बाद उसके जिंदा होते हुए भी उसकी बरसी मनाए जाने लगती है. विजय का एक गरीब दोस्त सत्तार भाई विजय को किसी तरह पागलखाने से निकालता है. इधर विजय की एक शायर के रुप में प्रसिद्धि को कैश करने के लिए एक बड़े जलसे का आयोजन होता है और विजय भी वहां पहुंच जाता है. वहीं पर साहिर लुधियानवी का एक मशहूर गीत ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ विजय द्वारा गाया जाता है.
बाद में जब मशहूर शायर बन चुके विजय के स्वागत में एक बड़ा जलसा किया जाता है तब विजय खुद भरे जलसे में यह मानने से इंकार कर देता है कि वो ही विजय है. ये सब होने के बाद जब विजय की पूर्व प्रेमिका मीना यह कहती है कि तुम इस तरह से दौलत और शोहरत क्यों ठुकरा रहे हो ? ठुकराना है तो उन भाइयों को, सेठ जी और उन दोस्तों को ठुकराओ जिनसे तुम्हें शिकायत है.
तब विजय कहता है कि ‘मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है, मुझे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं है. मुझे शिकायत है समाज के उस ढांचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है. मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बना देता है. दोस्त को दुश्मन बनाता है. मुझे शिकायत है उस तहजीब से उस संस्कृति से जहां मुर्दों को पूजा जाता है और जिंदा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है. जहां किसी के दु:ख- दर्द पर दो आंसू बहाना बुजदिली समझा जाता है. झुक कर मिलना एक कमजोरी समझा जाता है. ऐसे माहौल में मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी इसलिए मैं दूर जा रहा हूं.’
फिल्म में साहिर लुधियानवी के शानदार गीत हैं ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां है’ और ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.’ सभी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया है.
1957 की बनी फिल्म आज और प्रासंगिक होती जा रही है. आज जब ज्यादातर बेरोजगार नौजवान दंगे-नशे- पूंजीवादी, सम्राज्यवादी फैशन, छेड़खानी व मल्टी रिलेशन के रूप में अपनी भड़ास निकाल ले रहे हैं, वहीं विजय इस पूरे बजबजाते समाज को सिरे से नकार देता है, क्यों ? क्योकि वह मानवीय मूल्यों का पक्षधर है, उसके सामने एक बेहतर समाज का आदर्श व सपना है जिससे वह कोई समझौता नहीं करना चाहता.
फिल्म में कुछ बुनियादी कमियां है जिसे मार्क्स के ही इस कथन से समझ सकते हैं कि ‘अब तक दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या विभिन्न तरीके से की है लेकिन सवाल यह है कि इसको बदला कैसे जाए.’ फिल्म समस्या को खूबसूरत ढंग से उजागर करने के बावजूद भी कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाती है, जिसकी वजह से फिल्म अपना संदेश देने में भी असफल हो सकती है.
पहली कमी यह है कि फिल्म आर्थिक गैर बराबरी पर उतना मुखर नहीं है जितना कि सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू पर बल्कि मध्यम वर्ग की व्यक्तिगत समस्या के इर्द-गिर्द ही कहानी रह जाती है. इसलिए नायक मौजूदा समाज व्यवस्था को नकारता तो जरूर है लेकिन नए समाज के निर्माण का कोई विकल्प नहीं दे पाता है.
इस तरह की कमियां होने की कई वजह हैं. निर्देशक गुरुदत्त के मध्यमवर्गीय व्यक्तिगत समस्याओं में उलझे होना और समाज की समस्याओं की वैज्ञानिक ढंग (भौतिकवादी-वर्ग संघर्ष के दृष्टिकोण) से समझने के बजाय मानवतावादी-आदर्शवादी ढंग से समझना है. जो अधूरा अंत इस फ़िल्म का होता है वैसे ही गुरुदत्त के असल जीवन का भी अंत आत्महत्या से होता है जबकि वहीं निशांत, चक्रव्यूह, हजार चौरासी की मां जैसी फिल्मों में समाज व प्रेम के मानवीय मूल्यों व आदर्शों के लिए संघर्ष को दिखाया गया है.
निशांत में नायक जनता को संगठित करता है और जमींदार के साम्राज्य-संस्कृति को ध्वस्त कर देता है. फिल्म में संघर्ष के अधूरेपन को पूरा करने की जिम्मेदारी मौजूदा पीढ़ी के कंधों पर है. दूसरी वजह है उस समय का दौर जिसमें आजादी का एक भ्रम पैदा हो गया था, जो आज तक जारी है. हालांकि बहुत पहले ही भगत सिंह ने आगाह कर दिया था कि ‘गोरे साहब जाएंगे भूरे साहब आएंगे, अमीर और अमीर होते जाएंगे गरीब और गरीब होते जाएंगे.’ उसके बाद मुक्तिबोध जैसे बड़े साहित्यकार भी अंधेरे में चक्कर लगाने लगते हैं हालांकि वे कहते है ‘तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब, बिना संहार के सृजन असंभव है.’
1967 में जाकर सभी सामाजिक समस्याओं के समाधान व विकल्प के रूप में देश में बगावत की चिंगारी ‘नक्सलबाड़ी एक ही रास्ता’ फैल गई. उसके बाद से तो देश में आज तक सामाजिक समस्याओं की वैज्ञानिक व्याख्या और समाधान के आंदोलनों का एक सिलसिला ही चल पड़ा, चाहे वह कविता में, कहानी में या फिल्मों में हो.
इस दौर में ‘आजादी’ के बाद की यथास्थिति को साहित्य में पाश, गोरख पांडेय, महाश्वेता देवी आदि लोगों ने ब्रेक किया. इस सब के बावजूद गुरुदत्त की फिल्म प्यासा दर्शक के सोये हुए मानवतावादी ह्रदय को झकझोरकर जागृत कर देती है और पूंजीवादी संस्कृति के विरुद्ध नफ़रत को ताजा कर देती है, इस मायने में यह एक सफल फिल्म है. आग्रह है कि अगर आप यह फिल्म अब तक न देखे हों तो जरूर देखें.
- विजय
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