हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
यह उदाहरण है बिहार में नव स्थापित एक विश्वविद्यालय का, लेकिन इससे संकेत मिलता है कि हमारे संस्थानों की प्रकृति किस तरह शिक्षक-कर्मचारी विरोधी होती जा रही है.
बिहार के पूर्णिया विश्वविद्यालय में प्रोन्नति और वेतन निर्धारण जैसे कुछ मुद्दों को लेकर शिक्षक आंदोलित थे. उनका कहना था कि राज्य के अन्य विश्वविद्यालयों में जो प्रोन्नति दी जा चुकी है, वे भी उसके हकदार हैं लेकिन, विश्वविद्यालय प्रबंधन इस संदर्भ में सकारात्मक कदम नहीं उठा रहा था.
जाहिर है, इस गतिरोध से तल्खी बढ़ी. नतीजा, प्रबंधन ने विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के चुने हुए अध्यक्ष, सचिव और संयुक्त सचिव को ही सस्पेंड कर दिया.
इस घटना के कई महीने बीत चुके, लेकिन, हैरत की बात यह है कि विश्वविद्यालय प्रबंधन और शिक्षक-संघ के बीच जारी इस गतिरोध को खत्म करने के लिये उच्च प्राधिकारों की कोई सक्रियता नजर नहीं आई. हैरत के दायरे यहीं खत्म नहीं होते.
जिस शिक्षक समुदाय के हितों के लिये संघर्ष की राह पर बढ़े एसोसिएशन के नेताओं को सस्पेंशन की मार झेलनी पड़ी, उसकी निष्क्रियता भी खुल कर सामने आई. यह सुविधाभोगी हो चुके मध्य वर्ग की संघर्ष चेतना के सुप्त होते जाने का एक उदाहरण है, जो अब इस हालत में भी नहीं है कि अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिये जाग्रत हो सके.
प्रबंधनों की दमनकारी मानसिकता और कर्मचारी संगठनों की सुप्त चेतना हमारे दौर की ऐसी तल्ख सच्चाई है जो आने वाले समय की पदचाप भी सुनाती है.
जैसा कि नई शिक्षा नीति में कहा जा रहा है, आने वाले समय में संस्थानों को ‘स्वायत्तता’ दी जाने वाली है, ताकि वे अपने कोर्स ही नहीं, अपनी फीस का भी निर्धारण कर सकेंगे और साथ ही, अपने प्रबंधन में भी अधिक स्वायत्त हो सकेंगे. यह स्वायत्तता किस चरण में जाकर प्रबंधन के शीर्ष पर बैठे लोगों की स्वेच्छाचारिता में बदल सकती है, इसका अनुमान लगाना अधिक कठिन नहीं है.
सीधे शब्दों में कहें तो स्वायत्तता संस्थानों के कारपोरेटीकरण की दिशा में बढ़ने वाला पहला और निर्णायक कदम है. अपने कोर्स, अपना फीस स्ट्रक्चर, अपनी कार्य संस्कृति.
वह समय अधिक दूर नहीं है जब स्वतंत्रचेता प्रोफेसर साहेबान की चेतना अनगिनत घोषित-अघोषित प्रतिबंधों से जूझती नजर आएगी और किसी निजी या सामूहिक हित के मसले पर उनकी आवाज निकलनी मुश्किल होगी.
शिक्षा संस्थानों के कार्पोरेटाइजेशन का सबसे अधिक नकारात्मक असर वंचितों की शिक्षा के साथ ही शिक्षक अधिकारों पर ही पड़ने वाला है.
लेकिन, हमारा शिक्षक समुदाय आश्चर्यजनक रूप से इन मामलों से असंपृक्त नजर आ रहा है, जब रस्मी विरोध के अलावा हम और कोई आवाज नहीं सुन रहे. वे नितांत व्यक्तिगत हितों से संचालित हो रहे हैं और भविष्य की त्रासदियों का सामना करने के लिये उनकी कोई सार्थक सोच सामने नहीं आ रही.
यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जब वाजपेयी सरकार ने पेंशन का खात्मा कर दिया था और कार्यरत कर्मियों को आश्वासन दे दिया था कि आपकी पेंशन पर डाका नहीं पड़ेगा, आने वाले लोगों को इससे महरूम कर दिया जाएगा.
और महज़ कुछ रस्मी विरोध के साथ कर्मचारी संगठनों ने सरकार की इस कर्मचारी विरोधी नीति को स्वीकार कर लिया था. यह तो 2004-05 के बाद नियुक्त होने वाले कर्मी ही जानते होंगे कि उनके साथ सरकार ने तो अन्याय किया ही, उनके पूर्ववर्त्तियों ने भी उनके हितों के साथ सरासर धोखा किया, जब वे अपने पेंशन की गारंटी पा कर निश्चिंत हो गए और आने वाली पीढ़ी की कोई चिंता नहीं की.
पूर्णिया विश्वविद्यालय की घटना संकेत है कि प्रबंधन की मनमानियों के खिलाफ न शिक्षक समुदाय में वैसा कोई सामूहिक आक्रोश देखा गया, न इस अन्याय के खिलाफ राज्य सरकार या राज भवन जैसे उच्च प्राधिकारों ने रेखांकित करने योग्य कोई संज्ञान लिया.
सामूहिक हितों के लिये आवाज उठाने वालों का दमन और इस पर सामूहिक चुप्पी सिर्फ वर्त्तमान की त्रासदी ही नहीं है, बल्कि, यह आने वाले दौर की आहट भी है, जब आकार लेती कारपोरेट संरचना में शिक्षकों और कर्मचारियों के प्रतिरोध की आवाजें गुम होती जाएंगी.
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