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भूलने की सजा

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भूलने की सजा
भूलने की सजा

भूलना बहुत आसान है
लेकिन याद करना एक संघर्ष है
जैसे गहरे कुएं से पानी निकालना

याद करते हुए अक्सर चेहरे पर उभर आती है पीड़ा
जैसे खेत कोड़ते हुए ऊपर आ जाती है नम मिट्टी

तुम जो आज हमारे सर पर बैठे हो
हमारे भूल जाने की ही तो औलाद हो

हम तो भूल ही गए थे वे गुप्त मार्ग
जो तुम्हारे अंधेरे तहख़ानों तक जाते थे
उन तहख़ानों तक
जहां सीलन और दुर्गंध में तुम
एक हाथ से लिखा करते थे प्रार्थना-पत्र
और दूसरे हाथ से बनाते थे जहर की गोलियां
इन्हीं तहख़ानों के एक द्वार से
निकलते थे प्रार्थना-पत्र
और दूसरे से पेटी दर पेटी जहर

प्रार्थना-पत्र पहुंचा करते थे सात समुंदर पार
और जहर की पेटी
पहुंचती थी पड़ोस के खेतों में

हमें अपनी मिट्टी की
उर्वरा शक्ति पर बहुत भरोसा था
हमने सोचा था कि ये दो चार पेटियां जहर की
मिट्टी का क्या बिगाड़ लेंगी

और हम भूल गए…

हम तो प्रार्थना-पत्र और
ज़हर का रिश्ता भी भूल गए थे
हम तो मान चुके थे कि मनुस्मृति जल चुकी है
लेकिन हम भूल गए कि
उसी सीलन और दुर्गंध भरे तहखाने में
मनुस्मृति की छपाई कभी रुकी ही नहीं

हमे लगा कि देश संविधान से चल रहा है
हम भूल गए कि ठीक संविधान के नीचे
हजारों लाखों मनुस्मृतियां
गांव गांव घर घर पसर चुकी हैं

हम तो अपने ही सपनों में खोये रहे
और भगत सिंह का सपना भूल गए
हम भूल गये कि अंग्रेजों का जाना,
सफर का एक पड़ाव भर है
हमारी मंजिल नहीं

हां,
विद्रोहियों ने जरूर समय समय पर
हम पर ‘याद’ के गोले दागे
लेकिन हमने उन्हें यह कहकर ख़ारिज कर दिया
कि ‘लोकतंत्र’ में उनके लिए कोई जगह नहीं

हमने सत्ता के साथ मिलकर
वाम को मंच से धक्का दे कर गिरा दिया
और हम भूल गए कि अब
सत्ता के लिए हम ही ‘वाम’ हैं
और अब वह हमें मंच से
गिराने की पूरी तैयारी में है

यह भूलने की ही तो सजा है
कि किसी ‘जादू सा’
वही ‘प्रार्थना पत्र’ अब
‘संविधान’ में बदल रहा है
मनुस्मृति अब दिन के उजाले में छप रही है

दुर्गंध युक्त सीलन भरे तहखाने पर
अब विशाल महल खड़ा किया जा रहा है

दुर्गंध तो अब भी बहुत आ रही है
बल्कि कई गुना ज्यादा आ रही है
लेकिन इसका महज जिक्र करना भी
अब ‘ईश निंदा’ बन चुका है

भूलते हुए दुर्गंध में रहना
या याद करते हुए संघर्ष में रहना…

‘बीच का (अब) कोई रास्ता नहीं…’

  • मनीष आजाद

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