सुब्रतो चटर्जी
आदतन सुबह-सुबह अख़बार पढ़ता हूंं. हो सकता है कि मैं अख़बार पढ़ने वाली आख़िरी पीढ़ी का वो अजूबा हूंं जो आज भी दिन दुनिया से अपना राब्ता दुहराने के लिए रोज़ दस बीस रुपए ख़र्च करता हूंं. टीवी देखना छोड़े हुए क़रीब पांंच साल हो गए. समाचार रहे नहीं, और मनोरंजन परोसने लायक भी नहीं बचे.
कुल जमा एक दो अख़बार. कल से ही पुलवामा हमले की जांंच एनआईए द्वारा संपन्न हो जाने की ख़बरें आ रही हैं. वही पुलवामा, जिसकी कश्ती पर सवार हो कर क्रिमिनल लोगों के एक गिरोह ने पिछले साल चुनावी वैतरणी पार की थी.
मुझे पता था कि सारा दोष किसी पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुट के माथे मढ़ दिया जाएगा, और वही हुआ. वही मसूद अज़हर, वही जैश, वही पाकिस्तान, वही सबकुछ. स्क्रिप्ट थोड़ा बासी है लेकिन बिहार रेजिमेंट के निहत्थे सैनिकों को गलवां में मरवाने का दांव शायद बिहार चुनाव में उल्टा पड़ जाए इसलिए अतिरिक्त सावधानी के तहत जांंच की फाईनल रिपोर्ट को दायर करना ज़रूरी था. यही हुआ. सरकारी जांंच रिपोर्ट की विशेषता यह होती है कि उनको ऐन वक़्त पर पेश किया जाता है, यानि जब सरकार बचाव की मुद्रा में हो.
दो दिन पहले भारत के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ पत्रकारों में एक, स्वर्गीय कुलदीप नैयर जी को देश ने याद किया. मुझे याद है, ब्लिट्ज के एक संपादकीय में सन 1974 में उन्होंने लिखा था, ‘Enquiry Commission : A Smoke Screen. 1947 से लेकर आज तक देश में जितने भी दंगे, बवाल, जनसंहार, आतंकवादी घटनाएंं, सरकारी दमन इत्यादि हुए, सबके लिए जांंच कमीशन बने. कुछ रिपोर्ट आई, कुछ नहीं. जो रिपोर्ट सरकारी पक्ष के समर्थन में थे, उनको मान लिया गया, जो विरुद्ध में थे, उनको नहीं माना गया. गोधरा और उसके उपरांत गुजरात दंगों में मोदी और संघ की भूमिका को स्पष्ट रूप से रेखांकित करने वाली यू सी बनर्जी की रिपोर्ट को तत्कालीन यूपीए की सरकार ने नहीं माना. फलतः, आज कॉंंग्रेस हाशिए पर है, और हत्यारे सत्ता शीर्ष पर.
इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी की ज़्यादतियों पर हुई जांंच का कोई नतीजा नहीं निकला. जनता पार्टी का क्या हश्र हुआ, अब इतिहास है. मुंबई बम धमाकों के लिए कसाब को फांंसी दे कर हम निश्चिंत हो गए. किसी ने नहीं पूछा हेमंत करकरे की हत्या संघियों ने कैसे की ? अब तो बात बहुत आगे बढ़ गई है. क्रिमिनल लोगों के गिरोह आतंकवादियों को संसद भेज रही है और उन पर लगे केस हटा रही है, ख़ासकर जब विश्व के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री उनकी पहचान कपड़ों से कर लेते हैं !
जनभावनाओं का आदर लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा है. इन्हीं भावनाओं का आदर करते हुए कभी रामजन्मभूमि का ताला खोल दिया जाता है, तो कभी शाहबानो को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, तो कभी बिना पर्याप्त सबूत के अफ़ज़ल गुरु को फांंसी पर लटका दिया जाता है. ऐसे माहौल में अगर सुप्रीम कोर्ट यह मानते हुए कि अयोध्या में राम लला के मंदिर का कोई अस्तित्व कभी नहीं था, या इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मीर बकी ने मस्जिद बनाने के लिए कभी किसी मंदिर को तोड़ा, फिर भी जन भावनाओं का आदर करते हुए वहांं राम मंदिर की इजाज़त देता है, तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
पुलवामा जांंच की पूरी रिपोर्ट मैंने नहीं पढ़ी है, इसलिए इसपर सार्थक टिप्पणी करने में असमर्थ हूंं. उम्मीद ज़्यादा है कि यह रिपोर्ट सिर्फ दो प्रश्नों का सही उत्तर दे. पहला, पुलवामा के जवानों को एयरलिफ़्ट करने से किस पाकिस्तानी अफ़सर ने रोका था, और दूसरा, जैश को किसने बताया था कि कौन-सी बस में एंटी लैंड माईंन्स और बम निरोधक नहीं लगे थे ? यह बात कि हमलावरों ने नेट का प्रयोग साज़िश को पूरा करने के लिए किया होगा, आज भारत का कोई भी स्कूली बच्चा भी जानता है, इसके लिए किसी जेम्स बांड की ज़रूरत नहीं है. जेम्स बांड की असली उपयोगिता उस मसूद अज़हर को कंदहार पहुंंचाने में है, जो कि वह सालों पहले सिद्ध कर चुका है.
दरअसल हम दोगले हैं. व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में दोहरे मापदंडों के आदी हैं. थोड़े से लोग जो सच के साथ बेख़ौफ़ खड़े थे या हैं, हमें आकर्षित तो करते हैं, लेकिन प्रेरित नहीं करते. आज अगर कुलदीप नैयर हमारे बीच होते तो गर्व से कहते, ‘देखो, मैंने कहा था न कि जांंच कमीशन बस एक धुंए की दीवार होती है ?
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