Home गेस्ट ब्लॉग जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा है

जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा है

18 second read
0
0
138
जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा है
जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा है
इन्दरा राठौड़

जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा दिखाई देता है. कह सकते हैं कि उनमें प्रगतिशील दृष्टि है ही नहीं. वह शून्य है. समय-समय पर वह उनके जातीय श्रेष्ठता और धार्मिक आकर्षण में, नमूदार होते रहता है. श्रेष्ठता बोध अहंकार की चरम परिणति है. इसकी जड़ें इतनी विस्तारित है कि वर्गों के समाज में विरले ही इससे अछूते हैं.

धर्म आधारित शिक्षा व्यवस्था अंतिम तौर पर तालिबानी या कि बंग्लादेशी हो जाया करती है. देश इससे गौरवान्वित नहीं होता बल्कि रीढ़ के अभाव में वह केंचुआ सा हो जाता है. अक्सर हम बात-बात पर जो धर्म की दुहाई देते ख़ून ख़राबे पर उतारू होने लगे हैं, उसके पैरोकार बन रहे हैं, इससे यह गर्व भूमि और नस्लें विस्तार पाने की जगह बंजर बन जाएंगे !

धर्म एक अवधि के लिए ही मनुष्य का पक्षधर अथवा अन्वेषक बना दिखता है ! इसके उलट वह किसी भी टकराव की स्थिति में घोर प्रतिक्रियावादी है. पाखंडी और हिंसक होता है. मनुष्यों के संसार का सर्वाधिक बेड़ा ग़र्क धर्म ने ही किया.

आज़ादी या कि स्वतंत्रता के दीवाने लोग इस झांसे से जितनी जल्दी हो मुक्त हो जाएं कि यह देश कभी हिंदू राष्ट्र भी बन सकता है. दरअसल ऐसे किसी स्पेशलाइजेशन की आवश्यकता ही नहीं है इस देश को. पड़ोसी मुल्क बंग्लादेश पाकिस्तान या फिर नेपाल, यहां तक श्रीलंका भी जो धर्म आधारित हैं, अभी किस दौर से गुजर रहें हैं देखें. बाकी यहां कभी अमृत काल कि स्वर्ण काल अथवा प्लेटिनम काल भी आते रहेंगे क्योंकि राजनीति अपने ओछी कामों को करते रहता है.

सच कहूं तो – इन व्यवस्थाओं से लाख असहमतियों के बाद भी मुझे इस देश से जो प्यार है, उसका बयां नहीं कर सकता. मेरी चिंता में यहां के लोक जन, उनका जीवन, उनके सुख-दुख किसी भी छद्मी, उग़्र हिंदू राष्ट्रवादियों से ऊपर है. मेरी चिंता में बाबरी है न राम हैं. लोक रूझान के सम्मान से भी अधिक मेरी चिंता में मेरा विरासत है.

भेद रहित मनुष्यों का संसार ही मेरा सुप्रीम कोर्ट है. वही मेरी न्याय और समझ की प्रक्रिया है. उसे ही खाता-पीता ओढ़ता-बिछाता हूं. कोई छप्पन इंच का सीना नहीं है मेरे पास और न हीं यह मेरा अभिमान का विषय है. मैं हत्यारों का समर्थक हूं, न हथियारों का. मैं सत्ता पोषित किसी भी युद्धोंन्माद का हिस्सा नहीं हूं.

तथाकथित राष्ट्रवाद के ढोंगियों के दल के घोषित घर घर तिरंगा अथवा कि तिरंगा यात्रा के अभिमानी अभियान का हिस्सा नहीं हूं. मैं अमन शांति, सौहार्द्र, भाईचारे का पूजक किसी भी ढिंचक पूजा का समर्थक नहीं. यही एक बड़ी वजह है जब राष्ट्रगीत की धुन बजने लगता है या राष्ट्रध्वज लहराते दिखता है तो खड़े हो जाते रोंगटे मेरे. उल्लास से भर उठता हूं मैं.

मुझे मेरे भारतीय होने का जो गर्व है वह मुझे कुरान ने नहीं दिया, बाइबिल ने नहीं दिया, ग्रन्थ साहिब ने नहीं दिया, नहीं दिया हिन्दू होने के दंभ ने भी. इस राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस की पावन बेला पर मुझे वे तमाम दबे कुचले मजूर, किसान, छूत-अछूत, दलित, आदिवासी याद रहते हैं, जिनके हिस्से के हक को मार लिया गया कि मटके पानी ज़हर हो गया !!

मुझे उन लोगों के साथ होती अमानवीय त्रासद यातनाएं याद रह जाते हैं. याद रह जाते हैं वे भारत के तमाम बलात्कार पीड़ित बेटियां, उनके सबल बनाए जाने के निर्देश नारे सरकारी विज्ञापनों में कैद है और कराह रही है, जिनका क्रियान्वयन बाक़ी है. प्राप्ति में बाक़ी है बुद्ध, गांधी और मार्क्स का दिया समता मूलक जीवन दर्शन. बाबा नागार्जुन भी कुछ ऐसे ही स्वप्नदर्शी रहे. पढ़ें उनकी कविता का सच जो आज भी है जस का तस –

किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है ?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है ?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झुठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है…

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है ?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्र‍िज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
फै़शन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है !

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ़्रि‍ज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में

उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं ! कुच्‍छो नहीं !
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं…..
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है !
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है !
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है !

चूंकि मैं अपने देश से अगाध प्रेम करता हूं इसलिए ही शर्म से गड़ रहा हूं. आजादी के सत्तर ही नहीं पूरे सतहत्तर साल बाद आयाराम आए, गयाराम ग‌ए. आते-जाते आयाराम, गयारामों ने बहुतो देश बदला-बेचा लेकिन नहीं बदला तो इन्होंने समाजिक सुरक्षा, यौन हिंसा, बलात्कार उत्पीड़न की घटनाओं को.

दरअसल ये जो आए ग‌ए लोग हैं वे नीयत के स्तर पर अब भी सामंती अवशेष को जिंदा रखने के प्रति कटिबद्ध हैं. इनके लिए कानून या संविधान में बदलाव की जो अवधारणा है, वह आदमी के लहू के स्वाद में अंतर्निहित है. जबकि धूमिल बेहद गहरे में उतर इसकी शिनाख्तगी करते कहते हैं –

लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है

साथी कैलाश मनहर ने भी मार्के की कविता की है. इस कविता से वे देश के इलीट और मध्यवर्ग के भीतर जो रूग्ण मानसिकी का विस्तार, सत्ताओं के द्वारा समय समय पर की गई है, उसे टारगेट करते हैं और ताजातरीन तिरंगा यात्रा तथा घर-घर तिरंगा के जश्न में डूबे लोगों को आगाह कर रहे होते हैं. अर्थात् कि इन नादानियों और बेवकूफियों का कहीं कोई खास मतलब नहीं है. यह बात धूमिल भी पूछ चुके हैं अथवा बता चुके हैं, बहुत पहले / कि –

आज़ादी क्या सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है

कैलाश मनहर उसी औपनिवेशिक मानसिकता के भंवर से इस कविता के मार्फत हमारी चेतना को झकझोरने की कवायद कर निकाल लाना चाहते हैं हमें. पिछली सदी के 8वें दशक से लगातार जिन कवियों ने बड़ा काम बिना कोई शोरगुल के करते हुए किया, उनमें कैलाश मनहर भी एक बड़े हस्ताक्षर हैं. पढ़ें उनकी कविता, मेरी ‘कविता पर थोड़ी बहुत बातचीत’ के साथ –

जय जयकार करते हैं अपनी सरकार की ,
(सरकार के) ग़ुलाम लोग

सरकार को ही देश समझते हैं और जब
सरकार उन्हें ठोकरें मारती है तो बड़े चाव से

चाटते हैं उन घावों को जैसे
चाटता है कुक्कुर अपने जख्मों को

सरकार के तलवे चाटते हुये ग़ुलाम लोग
अपनी सरकार की बुराई नहीं करते
कभी सपने में भी वे

मुग्ध होते हैं

ग़ुलाम लोग तो जूठन पर जीवित रहते हैं
अधाई सरकार की डकार से सांस ग्रहण करते हैं

सदैव वे पाद को भी इत्र की महक से तौलते हैं

ग़ुलाम लोग कभी स्वयं नहीं सोचते और
केवल सरकारी सोच की हवा फैलाते हैं चारों तरफ़ या
सरकार के इशारे पर बताई गईं

अफ़वाहें उड़ाने लगते हैं जहां, तहां

ग़ुलाम लोगों का काम होता है
सरकार के फर्जीवाड़े को
सही बताना और शामिल होना स्वयं भी
हर काले क़ानून को
उज्ज्वल और चमकदार बताते हुये

ग़ुलाम लोग उत्सव मनाते हैं
नाचते-गाते हैं

अघाते नहीं डुगडुगी बजाते
हत्यारे, खूनी, बलात्कारी और देश तथा
अपनी मां बहिन को गिरवी रखते,
खुद की आजादी पता रहे,न रहे
सर्टिफिकेट जारी करते हैं वे

ग़ुलाम लोग हर कहीं पाये जाते हैं
शहर कस्बे गांवों में

ये ग़ुलाम लोग हर कहीं पाये जाते हैं
शहर कस्बे, गांवों में

भक्ति में आदमी सिर्फ बावला नहीं होता
पागल हो जाता है
न कुछ समझना चाहता है
न ही मानना. बल्कि

रटे हुये अपनी रूढ़ियों के ही अंधग्रन्थ वे
सरकार के प्रति अंधभक्ति द्वारा ही
पाते हैं अंधज्ञान जैसे
ग़ुलाम लोग प्राय: पूर्ण स्वामिभक्त होते हैं

सिविलाइजेशन का अर्थ कर्तव्य से है. कैलाश मनहर इसलिए ठीक हैं / कहते हैं कि –

मुझे क़तई कोई परेशानी नहीं
ग़ुलाम लोगों से और न मैं
ग़ुलाम लोगों की ग़ुलामी से कुछ चिढ़ता हूं
किन्तु दिक्कत तो तब होती है
जब सरकार इसी तरह के
ग़ुलाम लोगों के बहुमत को आधार मानती है
और
आज़ाद लोगों को भी
ग़ुलाम बनाना चाहती है जबर्दस्ती

आज़ादी के लिये लड़ने वाले प्रतिबद्ध विचारवान लोग
जब आज़ादी पा लेते हैं किसी एक दिन
तो अधिकतर ग़ुलाम लोग दूसरे ही दिन
आज़ादी के यौद्धा का पुरस्कार पाने को खड़े हो जाते हैं

यह हमारा देश काल की अंतर्कथा है. जो कहनी थी, कह दिया कैलाश मनहर ने. बेहद प्रभावी संप्रेषण, कहन शैली में बेबाक कैलाश मनहर ने ठोस और तगड़ा कहा है. इस मार्के कविता के लिए साथी के प्रति आभार और कृतज्ञता, सस्नेह सादर –

गुलाम लोग

जय जयकार करते हैं अपनी सरकार की ग़ुलाम लोग
सरकार को ही देश समझते हैं और जब
सरकार उन्हें ठोकरें मारती है तो बड़े चाव से सहलाते
सरकार के तलवे चाटते हुये ग़ुलाम लोग
अपनी सरकार की बुराई नहीं करते कभी सपने में भी
ग़ुलाम लोग तो जूठन पर जीवित रहते हैं
अधाई सरकार की डकार से सांस ग्रहण करते हैं सदैव

ग़ुलाम लोग कभी स्वयं नहीं सोचते और
केवल सरकारी सोच की हवा फैलाते हैं चारों तरफ़ या
सरकार के इशारे पर बताई गईं अफ़वाहें

ग़ुलाम लोगों का काम होता है सरकार के फर्जीवाड़े को
सही बताना और शामिल होना स्वयं भी
हर काले क़ानून को उज्ज्वल और चमकदार बताते हुये
ग़ुलाम लोग उत्सव मनाते हैं नाचते-गाते
ये ग़ुलाम लोग हर कहीं पाये जाते हैं शहर कस्बे गाँवों में

रटे हुये अपनी रूढ़ियों के ही अंधग्रन्थ वे
सरकार के प्रति अंधभक्ति द्वारा ही पाते हैं अंधज्ञान जैसे
ग़ुलाम लोग प्राय: पूर्ण स्वामिभक्त होते हैं

मुझे क़तई कोई परेशानी नहीं ग़ुलाम लोगों से और न मैं
ग़ुलाम लोगों की ग़ुलामी से कुछ चिढ़ता हूं
किन्तु दिक्कत तो तब होती है जब सरकार इसी तरह के
ग़ुलाम लोगों के बहुमत को आधार मानती
आज़ाद लोगों को भी ग़ुलाम बनाना चाहती है जबर्दस्ती

आज़ादी के लिये लड़ते वाले प्रतिबद्ध विचारवान लोग जब आज़ादी पा लेते हैं किसी एक दिन
तो अधिकतर ग़ुलाम लोग दूसरे ही दिन

आज़ादी के यौद्धा का पुरस्कार पाने को खड़े हो जाते हैं

यह वैज्ञानिक युग है. नित नए-नए और तरह-तरह के अविष्कार ने जीवन को प्रत्येक तरह से सुगम बना दिया है. ऐसे में ‘अवस्था’ का टेक्नोलॉजी से क्या संबंध ?? आप टेक्नोलॉजी में जितने सुदृढ़ होंगे, चीजें उतनी ही आसान हो जाएगी. आज समय के रफ़्तार के साथ बढ़ चलना ही व्यवहारिक है. दादा बेटे को पार कर पोते का दोस्त हो जाए, पोते की तरह अग्रिम हो जाए, बेहद जरूरी है.

वे लोग भयंकर ईर्ष्यालु लोग हैं, जो किसी के विस्तारवादी दृष्टिकोण को अपनी क्षुधा मिटाने में प्रयोग कर लेना चाहते हैं. मैं तो चाहता हूं बढ़ती उम्र के साथ भी आप अपने ऊपर उम्र को हावी न होने दें. बल्कि वह सब जाने-सीखें जो आपके पोते सीख पढ़ रहे हैं. कोने में दुबक कर बैठे रहने से अच्छा.

Read Also –

संतों और धर्म की पूंजीपतियों को जरूरत क्यों पड़ती है ?
धर्म और कम्युनिकेशन के अंतस्संबंध की समस्याएं
धर्म वास्तव में सारे मानवीय अवगुणों का समुच्चय है
धर्म को टूल बनाकर औरतों का शोषण किया जाता है
आरएसएस सांप्रदायिकता के ज़हर और नशे को धर्म और संस्कृति के पर्दे में छिपाकर पेश करता है – हिमांशु कुमार
सेंगोल राजदंड या धर्मदंड : प्रतीकात्मक रूप से यह लोकतांत्रिक राज्य को ब्राह्मण राज्य में बदलने की कार्यवाही है 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग

पिछले तीन दिनों से अखबार और टीवी न्यूज चैनल लगातार केवल और केवल सचिन राग आलाप रहे हैं. ऐसा…