अर्जुन सिंह
वन अधिकार अधिनियम 2006 को जंगलवासियों के अधिकार की रक्षा के नाम पर बनाया गया था. इस कानून के कार्यान्वयन में आ रही कुछ कठिनाईयों को दूर करने के लिए 2008 में इसकी नियमावली बनाई गई, जिसमें 2012 में कुछ संशोधन किये गये. इस कानून में ग्राम सभा के किसी भी सदस्य को वनाधिकार का दावेदार घोषित किया गया.
ज्ञात हो कि इसके पूर्व ही दिसम्बर 1996 में पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून (पेसा) को बनाकर ग्राम सभा को अपने गांव के विकास की योजना बनाने एवं उसे लागू करने का अधिकार दे दिया गया था. वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में भी यह व्यवस्था की गई थी कि किसी भी वन भूमि का गैर-वानिकी उपयोग तबतक नहीं किया जायेगा, जबतक कि भारत सरकार से इसके लिए पूर्व अनुमति प्राप्त न हो जाये.
इस कानून में 1988 में संशोधन करके वन भूमि पर बड़े पैमाने पर अवैध कब्जों को विनियमित करने’ (यानी हटाने) हेतु दिशा-निर्देश दिये गए. अगस्त 2023 के प्रथम सप्ताह में जो वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम बनाया गया, उसमें वन भूमि की रक्षा करने के
ग्राम सभा के अधिकारों को छीन लिया गया और कॉरपोरेट घरानों के हित में वन भूमि के गैर-वन उदेश्यों के लिए व्यपवर्तन (डायवर्सन) का रास्ता खोल दिया गया.
इस तरह की कोशिश भारत की केन्द्र सरकारें काफी पहले से करती रही हैं, लेकिन वर्तमान संसद के सत्र में सत्ता एवं विपक्षी दलों के बीच चल रही टकराहट के बीच वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 पर बिना कोई चर्चा कराये उसे दोनों सदनों में पारित करा दिया गया.
हमारे देश के विभिन्न राज्यों में निवास करने वाली करीब 730 जनजातियां हैं, जिन्हें संविधान की धारा 342 के तहत अधिसूचित किया गया है. 2022 के आकलन के अनुसार भारत के कुल जनसंख्या में आदिवासियों की जनसंख्या करीब 8.6 प्रतिशत है. 2023 के एक आकलन के मुताबिक आदिवासियों की कुल आबादी करीब 12 करोड़ है. एक अन्य आंकड़े के अनुसार आजाद भारत’ के 75 सालों में विभिन्न परियोजनाओं के तहत करीब 6 करोड़ आदिवासियों को विस्थापित किया गया है.
वन (संरक्षण) संशोधन कानून 2023 के लागू होने के बाद जंगल की कटाई और आदिवासियों के विस्थापन में काफी तेजी से वृद्धि होगी. आईये, हम इस कानून के विभिन्न जन विरोधी एवं कारपोरेटपक्षीय प्रावधानों पर गौर करें –
- एक ओर इस कानून में भारत के 2070 तक शुद्ध शून्य के जलवायु लक्ष्यों की सेवा करने की घोषणा की गई है और
दूसरे कार्बन नियंत्रण के समृद्ध स्रोत वन क्षेत्र को गैर-वन उद्देश्यों के लिए अधिक से अधिक व्यपवर्तन (डायवर्जन) की छूट दी गई है. - इस कानून में वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 का नाम बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम 1980 करने का प्रस्ताव किया गया है. यहां ‘संवर्धन’ का सीधा अर्थ गैर-वन उपयोगों के लिए व्यावसायिक दोहन हेतु वन भूमि के विचलन वनों का ‘उन्नयन’ (अपग्रेडेशन) से है.
- इस कानून में वन क्षेत्र की अवधारणा को बदलकर संकुचित कर दिया गया है. 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने गोदावर्मन थिरूमुलपाद बनाम भारत सरकार से सम्बन्धित मामले में दिये गये फैसले में वन भूमि की परिभाषा को व्यापकता प्रदान की गई थी. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई भी वनोच्छादित क्षेत्र, चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक, वर्गीकृत हो या अवर्गीकृत, स्वतः जंगल की परिभषा में आता है. इसके संरक्षण का मुख्य दायित्व सरकार का है. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट को पता चला कि भारत के कई राज्यों में वनों के विशाल क्षेत्रों को किसी भी राज्य कानून के तहत वनों के रूप में दर्ज नहीं किया गया है. इसलिए स्वाभाविक रूप से ऐसे वन क्षेत्र 1980 के वन (संरक्षण) कानून के सुरक्षात्मक आवरण से बाहर रहे. इस विसंगति को दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड बुक में उनकी कानूनी स्थिति की परवाह किये बिना घने वनस्पति के तहत सभी क्षेत्रों को वन क्षेत्रों के रूप में फिर से परिभाषित किया और बाद में उन्हें ‘मानित वन’ के रूप में जाना जाने लगा. इस कानून में ‘मानित बन’ को वन नहीं माना गया और 1980 के वन (संरक्षण) कानून में दर्ज वन को ही वन क्षेत्र कहा गया. इस तरह, यह कानून सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले का घोर उल्लंघन करता है और रियल एस्टेट माफिया को संवेदनशील पश्चिमी घाट एवं मुन्नार या ऊटी के विशाल क्षेत्रों की वन भूमि हड़पने की छूट देता है.
- इस कानून में वन भूमि से जुडी विकास परियोजनाओं के लिए मंत्रालयों से मंजूरी लेने की जो व्यवस्था थी, उसमें छूट दे दी गई है. इस कानून के प्रावधान के मुताबिक रेलमार्गों या राजमार्गों के दोनों ओर की बस्तियों एवं प्रतिष्ठानों को जोड़ने के नाम पर 0.10 हेक्टेयर वन भूमि का व्यपवर्तन किया जा सकता है. ज्ञात हो कि रेलवे लाईनें एवं सड़कें पहले ही बड़ी मात्रा में वन क्षेत्र हड़प चुके हैं, इस कानूनी प्रावधान के लागू होने पर भारी मात्रा में और वन भूमि का डायवर्जन हो जायेगा. जब आंध्र प्रदेश सरकार ने केन्द्रीय मंजूरी के बिना वन भूमि का अधिग्रहण राज मार्गों के लिए करना चाहा तो आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय ने इसे रोक दिया. लेकिन विडम्बना है कि इस न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करते हुए रेल मार्गों एवं राज मार्गों के लिए वन भूमि का अधिग्रहण करने का कानूनी रास्ता बनाया गया है.
- इस कानून में ‘सार्वजनिक उपयोगिकता’ को परिभाषित किये बगैर किसी भी ‘सार्वजनिक उपयोगी परियोजना के लिए वामपंथी उग्रवादी क्षेत्रों’ में 5 हेक्टेयर वन भूमि प्रदान करने का प्रावधान किया गया है. ध्यान देने की बात है कि ऐसी सार्वजनिक उपयोगी परियोजना’ की संख्या असीमित’ रखी गई है.
- इस कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि इकोटूरिज्म गतिविधियों, वन सफारी, प्राणी उद्यान एवं वन कर्मचारियों के लिए सहायक बुनियादी ढांचा आदि वन भूमि पर शुरू किए जा सकते हैं. उक्त गतिविधियों के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को गैर-वन गतिविधियों के लिए डायबर्जन नहीं माना जायेगा, क्योंकि ऐसी वन गतिविधियों को भी कानून का हिस्सा माना गया है.
- इस कानून के तहत सरकार द्वारा शुरू की जाने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी परियोजनाओं के लिए नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा जैसी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के साथ की 100 किलोमीटर भूमि को छूट देना है. ज्ञात हो कि भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं की कुल लम्बाई लगभग 15,200 किलोमीटर है। ऐसी स्थिति में 15.2 लाख वर्ग किलोमीटर पर वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 लागू नहीं होगा. करीब 100 हेक्टेयर में एक वर्ग किलोमीटर होता है तो कुल 1,500 लाख हेक्टेयर वन भूमि को वन संरक्षण से छूट दी गई है. इस कानून के प्रावधान के अनुसार इन क्षेत्रों में 10 हेक्टेयर वन भूमि को किसी भी सुरक्षा सम्बंधी परियोजना के लिए डायवर्ट किया जा सकता है. इस तरह इस कानून के लागू होने पर जैव विविधता से समृद्ध हिमालय की तलहटी के पूरे हिस्से और पूर्वोत्तर भारत के विशाल क्षेत्रों को किसी प्रकार के ‘वन संरक्षण’ से छूट मिल जायेगी. इस छूट का फायदा उठाकर सैन्य नौकरशाही एवं भूमि माफिया सुरक्षा परियोजनाओं के नाम पर वन भूमि के विशाल क्षेत्रों को हड़प सकते हैं. इसमें कई परियोजनाओं तो ऐसी होंगी, जो कभी भी शुरू नहीं होगी, लेकिन हड़पे गये वन क्षेत्रों के सारे पेड़ काट लिए जायेंगे. इस तरह इस कानून ने देश की जैव विविधता एवं पर्यावरण को नुकसान करने का जिम्मा ले लिया है.
- विडम्बना यह है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने जिस दिन वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 को राज्य सभा द्वारा पारित किया था, उसी दिन जैव विविधता विधेयक 2023 भी पारित किया. सरसरी नजर से देखने पर दोनों विधेयक परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में दोनों कॉरपोरेट हितों का समर्थन करता है. जैव विवधिता विधेयक के प्रावधानों के अनुसार अगर कोई कारपोरेट घराना अपने लाभ का एक हिस्सा स्थानीय समुदायों के साथ साझा करता है तो उसे जैव विविधता संसाधनों से सम्बंधित सभी अपराधों से मुक्त कर दिया गया है.
- ज्ञात हो कि वन संविधान के समवर्ती सूची में आता है, यानी वनों के प्रबंधन में राज्यों की भी बराबर की भागीदारी होनी चाहिए. इस कानून में 1980 के वन (संरक्षण) कानून में यह शामिल करने का प्रावधान किया गया कि समय-समय पर केन्द्र सरकार, राज्य सरकार या केन्द्र शासित प्रदेश प्रशासन के तहत किसी भी पदाधिकारी, या केन्द्र सरकार राज्य सरकार या केन्द्र शासित प्रदेश प्रशासन द्वारा मान्यता प्राप्त किसी संगठन, इकाई या निकाय को वन भूमि के डायवर्सन सम्बंधी निर्देश जारी कर सकता है. इसका आर्थ हुआ कि किसी केन्द्रीय नौकरशाह द्वारा किसी निर्देश का राज्य सरकार एवं केन्द्र शासित प्रदेश प्रशासन को पालन करना होगा. संविधान इस तरह के नौकरशाही अधिनायकवाद की इजाजत नहीं देता है, फिर भी इस कानून में ऐसा असंवैधानिक प्रावधान किया गया है.
- यह कानून पहले के वन अधिनियम द्वारा प्रदान किए गए पारम्परिक वन समुदायों के वन अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहता है. संविधान की अनुसूची पांच एवं छह में शामिल किसी भी भूमि का ग्राम सभा की सहमति के बिना खनन जैसी गैर-वन गतिविधि के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, चाहे वह भूमि वन क्षेत्र के रूप में दर्ज हो या ना हो. वन (संरक्षण) संशोधन कानून 2023 इस प्रावधान की पूरी तरह अनदेखी करता है. इस कानून के लागू होने पर कम्पनियां नियामगिरी में भी बाक्साइट खनन शुरू कर सकती है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है.
उपर्युक्त बिन्दुवार विवरण से स्पष्ट है कि वन (संरक्षण) संशोधन कानून 2023 पूरी तरह गैर संवैधानिक एवं गैर कानूनी है. भाजपा नीत नरेन्द्र मोदी की केन्द्र सरकार ने इसे कारपारेट हितों को पूरा करने के लिए लाई है. उक्त विवरण से स्पष्ट है कि उसे न तो जैव विविधता एवं पर्यावरण की रक्षा की चिंता है और न ही आदिवासियों-वनवासियों के हितों की रक्षा की.
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