Home गेस्ट ब्लॉग निजी चिकित्सा प्रणाली : बेहिसाब मुनाफे के लिए अमानवीयता और जालसाजी की दुकान

निजी चिकित्सा प्रणाली : बेहिसाब मुनाफे के लिए अमानवीयता और जालसाजी की दुकान

2 second read
0
0
215
निजी चिकित्सा प्रणाली : बेहिसाब मुनाफे के लिए अमानवीयता और जालसाजी की दुकान
निजी चिकित्सा प्रणाली : बेहिसाब मुनाफे के लिए अमानवीयता और जालसाजी की दुकान
हेमन्त कुमार झा,एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

पटना का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें एक निजी अस्पताल के सामने एक आदमी रो रहा है. अस्पताल में भर्ती उसके पिता की मौत हो गई है लेकिन डेड बॉडी उसको नहीं दी जा रही है. कुल 11 लाख 50 हजार का बिल है, जिसके भुगतान के बाद ही बॉडी उसे दी जा सकती है.

मृत व्यक्ति का बेटा शिकायत कर रहा है कि अस्पताल में भर्ती करते समय उसके पिता की स्थिति उतनी खराब नहीं थी, लेकिन भर्ती होने के बाद स्थिति खराब ही होती गई और फिर उसे बताया गया कि उसके पिता नहीं रहे. साथ खड़े उसके पड़ोसी और परिजन उसकी बातों का समर्थन कर रहे हैं.

पब्लिक की भीड़ बढ़ती जा रही है, मीडिया के लोग रिपोर्टिंग कर रहे हैं. अस्पताल प्रबंधन का कोई शीर्ष अधिकारी आकर मामले में लीपा पोती कर रहा है, लेकिन सपाट और संवेदनहीन चेहरा लिए वह अधिकारी बिल कम करने की कोई बात नहीं करता.

मीडिया पर्सन कैमरा पर बिल की डिटेल सुनाता है. सुन कर कोई भी समझ सकता है कि यह इलाज के बिल का डिटेल नहीं, बाकायदा संगठित लूट का विवरण है. डाक्टरों ने विजिट करते हुए मरीज का जो मुआयना किया उसका बिल 44 हजार अलग से बताया गया है.

तमाशबीनों की बढ़ती भीड़ को देख उस निजी अस्पताल के बाउंसर्स और अन्य सुरक्षाकर्मी सजग हो उठे हैं. मीडिया पर्सन कैमरा पर चीख रहा है कि यह इलाज के नाम पर लूट है, और कि सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए, पब्लिक को इस पर जागरूक होना चाहिए आदि आदि.

बीच बचाव से रास्ता यह निकलता है कि मृत व्यक्ति के इंश्योरेंस से प्राप्त राशि से बिल की वसूली की जाएगी. वीडियो खत्म होता है लेकिन, कई सवालों को फिर से जिंदा कर जाता है.

यह कोई नया दृश्य नहीं था. ऐसी घटनाएं सामने आती ही रहती हैं और लोगों के सुप्त मानस में थोड़ी हलचल पैदा कर फिर पुरानी हो जाती हैं. लोग भी भूल जाते हैं लेकिन, सवाल कायम रहते हैं.

पहला सवाल तो यही है कि निजी अस्पताल जो बिल बनाते हैं उसकी विश्वसनीयता का आधार क्या है ? मरीज को क्या समस्याएं थी, उसका इलाज कैसे हुआ, किन डाक्टरों ने उसे देखा, उसकी मौत क्यों हुई, लाखों का बिल कैसे बन गया…ये सवाल जन्म लेते हैं और बिना अपना जवाब पाए हाशिए पर चले जाते हैं. हाशिए पर ही सही, सवाल जिंदा रहते हैं.

हालिया एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के चिकित्सा तंत्र का 74 प्रतिशत हिस्सा निजी हाथों में जा चुका है. सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा, रोग और रोगियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए चिकित्सा का यह निजी तंत्र बहुत तेजी से फल फूल रहा है.

छोटे-छोटे शहरों में भी डिजायनर किस्म के अस्पताल खुल रहे हैं और अखबारों के पहले पेज पर पूरे पूरे पेज का आकर्षक विज्ञापन दे रहे हैं. उन विज्ञापनों में ‘सेवा हमारा धर्म’ टाइप के स्लोगन होते हैं लेकिन अधिकतर मामलों के यथार्थ में ‘लूट हमारा कर्म’ ही होता है.

निजी अस्पतालों के विनियमन और उनकी निगरानी के कुछ कानून जरूर होंगे. लेकिन वे कमजोर हैं और जो हैं भी उनका कोई पालन कभी नजर नहीं आता. नतीजा, बेलगाम मुनाफा की हवस में अस्पताल के नाम पर व्यवसाय करने वाले लोग अमानवीयता की हदों को पार करते जा रहे हैं.

अक्सर हम सुनते हैं कि मृत मरीज को भी मशीन पर रख कर परिजनों को इलाज का झांसा दिया जाता है और दिन दूनी रात चौगुनी की दर से बिल बढ़ाया जाता है. ऐसे मामलों में परिजनों को मरीज के पास जाने नहीं दिया जाता, जिससे उस निजी अस्पताल की जालसाजी का पर्दाफाश न हो जाए.

कुछ महीनों पहले बिहार के एक अवकाश प्राप्त आईएएस अधिकारी पटना के एक चर्चित निजी अस्पताल में भर्ती हुए थे. उन्होंने अपनी आंखों से खुद के साथ और अन्य मरीजों के साथ अस्पताल द्वारा किए जा रहे गोरखधंधे का पर्दाफाश करते हुए फेसबुक पर विस्तार से बहुत कुछ बताया था. उन अधिकारी महोदय के फेसबुक पोस्ट के बाद एक हलचल सी मची लेकिन फिर सब कुछ शांत हो गया.

निजी सेक्टर के सख्त विनियमन और निगरानी की जरूरत है लेकिन इसका जो भी सरकारी या संवैधानिक तंत्र है, वह शिथिल है. इस कारण बेहिसाब मुनाफे के लिए अमानवीयता और जालसाजी के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. आम आदमी विवश होकर खुद को लूट लिया जाना देखता रहता है. मुनाफे की संस्कृति ही ऐसी है कि अगर उस पर लगाम न लगाई जाए तो वह अमानवीयता और जालसाजी की हदों को पार करेगी ही.

शिक्षा और चिकित्सा को मुनाफे की संस्कृति के अधीन कर देना अब सभ्यता का संकट बन चुका है. यह संकट इस कारण और गहरा गया है कि सरकार या समाज का निगरानी तंत्र शिथिल ही नहीं, नाकारा है. इसलिए, अपने बच्चों को निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले अभिभावक और अपने परिजनों को निजी अस्पतालों में भर्ती करवाने वाले लोग लुटने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही रहते हैं.

त्रासदी यह कि अब इन चमक दमक वाले निजी संस्थानों में बच्चों को पढ़ने भेजना और ब्रांडेड डिजायनर निजी अस्पतालों में इलाज करवाना स्टेटस सिंबल बन चुका है. लुट कर भी अभिजन समाज के लोग गर्व से भर कर अपने लुटने की दास्तान बताते हैं और कम आमदनी वाले लोग तमाम फजीहतें झेलने के लिए अभिशप्त हैं.

सबसे बड़ी त्रासदी यह कि हालात में बदलावों की कोई संभावना नजर नहीं आती. स्थितियां दिन ब दिन बदतर होती जा रही हैं. कोई उम्मीद नजर नहीं आती.

नवउदारवाद किस तरह राजनीति और नीति निर्धारण तंत्र को अपनी मुट्ठियों में कैद कर, आम लोगों की चेतना को अपने कृत्रिम नैरेटिव्स से ग्रस्त कर, प्रतिरोध की उनकी चेतना को कुंद कर मानवता की छाती पर चढ़ कर नग्न नृत्य करता है, यह देखना हो तो भारत की शिक्षा और चिकित्सा के परिदृश्य का सजग अवलोकन और विश्लेषण किया जा सकता है.

Read Also –

निजी चिकित्सा प्रणाली के लूट और बदइंतजामी का जीताजागता नमूना पारस एचएमआरआई अस्पताल, पटना
बेरोजगारी, शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया और कारपोरेट राजनीति का तिलिस्म
मैक्स अस्पताल के लाईसेंस रद्द करने के केजरीवाल सरकार की शानदार कार्रवाई के खिलाफ भाजपा और अनिल बैजल का निजी चिकित्सा माफियाओं से सांठगांठ का भंडाफोर
दास युग में जीने को अभिशप्त है IGIMS के आऊटसोर्सिंग कर्मचारी

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…