नेता प्रतिपक्ष का पद राहुल सम्हाल चुके हैं. यह पद, कैबिनेट मंत्री के दर्जे का होता है. गाड़ी, बंगला, स्टाफ, नौकर, चाकर, सैलरी भी अच्छी मिलती है. पर उससे बढ़कर यह मौका होता है- प्रधानमंत्री के बरअक्स देखे जाने का.
ट्रेडिशनली भारत मे नेता प्रतिपक्ष, एक नेगेटिव शै है. उसका काम, सरकार में मीनमेख निकालना, आलोचना करना और गवर्मेन्ट रनिंग को डिफिकल्टी में डालते रहना होता है. वहीं ब्रिटेन, जहां से वेस्टमिंस्टर प्रणाली उधार ली गयी है, नेता प्रतिपक्ष शैडो पीएम की तरह काम करता है.
वह एक पूरी शैडो कैबिनेट बनाता है. यह कैबिनेट, वास्तविक कैबिनेट के मंत्रियों को वन-टू-वन कवर करते हैं. उक्त मंत्रालय की नीतियों और जमीन पर उसके असर पर निगाह रखते हैं. प्राइवेट मेम्बर बिल पेश करते हैं, जो विपक्ष की सोच का आईना होते हैं.
भारत में नेता प्रतिपक्ष, सिर्फ नकारात्मक बातें करने के लिए जाना जाता है, जिसके दोषी नेहरू हैं. दरअसल, नेहरू/कांग्रेस के दौर का विपक्ष, राजनीतिक तो था, मगर प्रशासनिक विपक्ष नहीं. उसने सत्ता कभी देखी न थी. शासन के नुवांस, उसका सिस्टम, प्रशासनिक सन्तुलन, किसी नीति का दूरगामी असर जैसी बातें उसकी समझ से परे थी.
नतीजतन वह एक्सेंट्रिक, अतिवादी, गैर जिम्मदाराना, भावनात्मक, तात्कालिक मसलों को उठाता, जिससे सरकार कठिनाई में आये, कुछ वोट भी पक सकें. मसलन- जनसंघ द्वारा, अकाली दल के आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के साथ खड़ा हो जाना (जिसने अंततः पंजाब को आतंकवाद में धकेला). जब आतंकवाद फैल गया, तो वे पंजाब में सेना भेजने की मांग करने लगे. जब सेना घुस गयी, तो उसका विरोध करने लगे.
तो उनके पास, प्रशासनिक समझ के लोग नहीं थे. सत्ता में आने पर, मंत्रालय सम्हाल सकने लायक लोगों का अभाव रहा. पेट्टी, बकवासी, अनुभवहीन नेताओं को, केवल शोरगुल, चक्का जाम, बयानबाजी में वरिष्ठ होने के कारण मंत्री बनाया गया. जनता सरकार में मंत्री बने लोगों ने अर्थव्यवस्था, विदेश नीति, ब्यूरोक्रेसी, और सामाजिक ताने बाने का सत्यानाश कर दिया.
प्रतिभाहीनों के जमघट के साथ, मोदी खुद 10 साल से यही समस्या झेल रहे हैं. हालांकि, उसका कारण प्रतिभाओं का अकाल नहीं, बल्कि प्रतिभाहीनों को ही चुनने की मोदी नीति है. पर कांग्रेस के पास भी अच्छे प्रशासकों का अभाव हो चला है. पुरानी पीढ़ी के अनुभवी, या तो पार्टी छोड़ गए, या बूढ़े हो चुके हैं.
कल को मान ले कि गठबंधन या अकेले उसके 200-300 सांसद आ गए, तो 90% पहली-दूसरी बार के सांसद होंगे. मंत्री बनने, प्रशाशन करने के अनुभवी लोग शून्य के करीब होंगे. तब वे भी जयशंकर, हरदीप पूरी जैसे अफसरों को राज्यसभा के रास्ते लाकर मंत्री बना सकते हैं. पर आखिर कितने ?? 50 मंत्रालय सम्हालने वाले 50 योग्य, अनुभवी प्रशासक सांसद हों- मुश्किल है.
इंडिया एलायंस के दूसरे पार्टनर्स के लिए भी यही सत्य होगा. तो शैडो कैबिनेट बनाना, केवल सुर्खियों के लिए नहीं, एडमिनिस्ट्रेटिव लीडरशिप तैयार करने के लिए जरूरी है. सोचिये- एक शैडो वित्तमंत्री, शैडो बजट पेश करे. बताये कि न्याय योजना का खर्च यहां से आया, यहां इनको इतना दिया जायेगा.
सिर्फ ‘जाति जनगणना कराओ’ की बात न हो. इसके परिणामों का किस तरह से जनहित में उपयोग हो, उसके सम्बंध में लोगों का स्केप्टिसिज्म कैसे दूर हो, एक विस्तृत नीति पेश की जाए.
कांग्रेस या गैर बीजेपी राज्यों की इनोवेटिव योजनाओं को देश मे लागू करने का शैडो बजट बने. टॉकिंग पॉइंट बने, नए नए चेहरे प्रेजेंट करें. सांसदों को रिटायर्ड अफसरों, थिंक टैंक, प्रोफेसरों, बुद्धिजीवियों से विमर्श की आदत लगे. सम्भव है, सरकार कुछ ब्लू प्रिंट चुरा ले, चुराने दीजिए. जनता सब समझती है. आप चाहें तो उसे प्राइवेट मेम्बर बिल के रूप में खुद लाये, चर्चा करवायें.
खुद राहुल को इंडिया की शैडो कैबिनेट की नियमित मीटिंग लेनी चाहिए. नीट जैसे मामलों में विपक्ष की जांच समितियां बनानी चाहिए. जो RTI और सदन में लिखित, मौखिक सवालों के उत्तर के आधार पर अपनी रिपोर्ट बनाये, प्रेस कॉन्फ्रेंस करें. अपनी ओर से दोषी को चिन्हित करे. मोदी जी के कवच बने हर अफसर-मंत्री के धागे खोल दे.
यह सच्चे अर्थों में रचनात्मक विपक्ष होगा. लोगो के सामने हर मसले पर एक पैरलल नीति, पैररल सोच रखी जायेगी. जब देश और प्रशासन के जरूरी मुद्दों पर 50-60 शैडो कैबिनेट सदस्य, सदन के भीतर बाहर बात कर रहे होंगे, तो बेमतलब के मुद्दों पर जनता को उलझाने की मीडिया नीति भी फेल होगी.
प्रवक्ताओं के पास, न सिर्फ आलोचना होगी, वैकल्पिक सुझाव होंगे. वह आने वाली सरकारों का आधार होगी, जिस सरकार का मुखिया राहुल होने वाले हैं. आफ्टर ऑल ही इज नाउ. प्राइमिनिस्टर इन मेकिंग…
- मनीष सिंह
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