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संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण : नहीं नहीं राष्ट्रपतिजी, यह नहीं

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संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण : नहीं नहीं राष्ट्रपतिजी, यह नहीं
संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण : नहीं नहीं राष्ट्रपतिजी, यह नहीं
kanak tiwariकनक तिवारी

राष्ट्रपति जी ! आप कार्यपालिका की प्रमुख हैं. उस हैसियत में मंत्रिपरिषद की सलाह आपको मानना है. आप न्यायपालिका और विधायिका की प्रमुख नहीं हैं. आप विधायिका के विशेष सत्र में लगभग अतिथि की तरह से लेकिन संवैधानिक जिम्मेदारियों के तहत भाषण देने आती हैं. वह भाषण कार्यपालिका की मंत्रिपरिषद तैयार नहीं कर सकती. यह तो संसदीय मर्यादा और संविधान का सीधा अतिक्रमण है. आपको उनका तैयार भाषण खारिज कर देना चाहिए था. भले ही उन्होंने भाषण तैयार किया हो आपकी सहायता के लिए लेकिन संशोधन करने का आपका संवैधानिक अधिकार है.

राष्ट्रपति को लोकसभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात प्रथम सत्र के आरंभ में एक साथ समवेत संसद के दोनों सदनों में अभिभाषण संविधान अनुच्छेद 87 के तहत करना होता है और संसद को उसके आह्वान (summons) के कारण बताएगा. प्रथा बना दी गई है कि केन्द्र के संबंधित मंत्रालय राष्ट्रपति के भाषण का सरकारी औपचारिक पाठ तैयार करते हैं. राष्ट्रपति से उम्मीद की जाती है कि अपने लिखित भाषण को वाचिक परंपरा की शैली में दिखाते पाठ भर कर दें. संविधान में बिल्कुल साफ है कि राष्ट्रपति का दलगत राजनीति से कोई संबंध नहीं होता. भले ही राजनीतिक पार्टियों के वोट से चुने जाएं.

मौजूदा राष्ट्रपति ने गैरज़रूरी विस्तार से बिल्कुल गैरज़रूरी विषय 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई इमरजेंसी का उल्लेख कर उसे कलंक निरूपित किया. यह अनहोनी हुई. अजूबा है राष्ट्रपति से वह सब कहलाया गया जो उनकी संवैधानिक मर्यादा को चोटिल करता है. सावधानी होती तो राष्ट्रपति को अपने विवेक से यह पाठ खारिज कर देना चाहिए था. राष्ट्रपति मंत्रियों और नौकरशाहों की समझ के प्रवक्ता हैं.

संविधान के भाग 5 अध्याय 1 में अनुच्छेद 74 के अनुसार ‘राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा. परन्तु मंत्रिपरिषद से ऐसी सलाह पर साधारणतया या अन्यथा पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकेगा और राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के पश्चात दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा.’ अध्याय 1 में ही राजकाज चलाने वाली कार्यपालिका का उल्लेख है. उसी अध्याय में अनुच्छेद 52 में है कि कार्यपालिका का प्रमुख राष्ट्रपति होगा.

भाग 5 के अध्याय 2 में संसद का गठन है. संसद कार्यपालिका नहीं है, विधायिका है. संसद में राष्ट्रपति के आचरण को लेकर 74 के अंतर्गत कार्यपालिका याने मंत्रिपरिषद कतई सलाह नहीं दे सकती. मंत्रिपरिषद विधायिका में हस्तक्षेप नहीं कर सकती. अध्याय 2 में ही अनुच्छेद 81 में लोकसभा की संरचना है. उसके पहले विशेष अधिवेशन में राष्ट्रपति को अनुच्छेद 86 और 87 में संदेश भेजकर अभिभाषण का अधिकार है. ‘संदेश’ शब्द बहुत मानीखेज और महत्वपूर्ण है.

संविधान निर्माताओं के बीच हुई बहस आंख खोलती है. लगता है सरकार ने संविधान सभा के वादविवाद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के प्रयोजन और उनकी मंत्रिपरिषद के दखल रहित निजी स्वतंत्रता पर ध्यान नहीं दिया होगा.

संविधान सभा में अनुच्छेद 87 पर (तब 71) पर बहस करते उर्वर, बुद्धिकुशल और जागरूक व्याख्याकार, प्रो. के. टी. शाह ने कहा था – ‘मैं चाहता हूं कि राष्ट्रपति का अभिभाषण नीतिविषयक प्रश्नों तथा देश के भविष्य के विषय में हो. केवल उपरोक्त उल्लेखित आह्वान (Summnon) के संबंध में न हो. ब्रिटिश संसद में ऐसे उद्घाटन पर बादशाह सिंहासन से संभाषण देता है. राष्ट्रपति को व्यापक सिंहावलोकन करना चाहिये, और केवल उन्हीं कारणों तक अपना भाषण सीमित नहीं रखना चाहिये जिनके लिए सदन बुलाया गया हो.’

के. टी. शाह की करीब हर बात का अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष की हैसियत में विरोध करते थे. लेकिन इस विषय पर के. टी. शाह के कहे को अम्बेडकर ने अपने भाषण में शामिल करते हुए कहा – ‘प्रोफेसर के. टी. शाह केवल यही चाहते हैं कि जो उन्हीं के शब्दों में विस्तार से कहा गया है. मेरे विचार में ‘आह्वान (Summons) के कारण’ इस पद में वही बात आ जाती है. वे सब बातें आ जाती हैं जो प्रोफेसर के. टी. शाह चाहते हैं.

प्रोफेसर के. टी. शाह ने कहा है कि ऐसा उपबन्ध होना चाहिये कि राष्ट्रपति संदेश भी भेज सकें तथा सदन में अन्यथा सम्भाषण भी कर सकें. मेरे विचार में अनुच्छेद 70 (अब 81) में, हमने पारित किया है, वह एक सुनिश्चित प्रावधान है. वह राष्ट्रपति को पूरे अधिकार देता है. सदन को संबोधित करने के विषय में राष्ट्रपति के स्वतंत्र अधिकार का सम्बन्ध है और उसके लिये अनुछेद 70 में पर्याप्त व्यवस्था कर दी गई है.’ सबसे महत्वपूर्ण बात अम्बेडकर ने यही कही, वह संसदीय इतिहास के आसमान पर चस्पा है, उससे कम कुछ नहीं.

कार्यपालिका के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में कार्य करते अनुच्छेद 53 के अनुसार राष्ट्रपति में संघ की शक्ति निहित होगी और वह इसका प्रयोग स्वयं या अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा. भाग 5 अध्याय 2 में राष्ट्रपति नहीं कह सकते कि वे संसद के प्रमुख हैं. मंत्रिपरिषद की कोई सलाह संसदीय गतिविधियों के लिए नहीं दी जा सकती. बाबा साहब ने भी तो यही कहा था.

बाबा साहब के साफ-साफ उल्लेख से स्पष्ट है कि राष्ट्रपति को अभिभाषण देने पूरी स्वतंत्रता है और वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कतई निर्भर नहीं हैं. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में भी इस परंपरा का उल्लेख नहीं है. लेकिन प्रथा बना दी गई है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण का पाठ मंत्रिपरिषद के कहने पर तय किया जाए. (कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया दुर्गादास बसु भाग चार पृष्ठ 4910.) भारत का राष्ट्रपति इंग्लैंड की महारानी या सम्राट नहीं है. वह सर्वोच्च सेनापति है. उसे चीफ जस्टिस और प्रधानमंत्री सहित तमाम संवैधानिक पदों पर नियुक्ति करने के अधिकार हैं.

सबसे सटीक और सख्त टिप्पणी तो राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने अपनी आत्म्मकथात्मक किताब ‘माइ प्रेसिडेंशियल इयर्स’ के पृष्ठ 476 में की है. राष्ट्रपति ने कहा कि –

‘मैं लगातार इसी राय का रहा हूं कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के प्रथम सत्र के अभिभाषण को ब्रिटिश परंपरा का अनुसरण माना जा रहा है. ऐसे भाषण सरकार तैयार करती है जो अपने विचार उसमें रखती है और उम्मीद करती है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल फकत मुखौटा रहें. यहां लेकिन यही सच है. कई बार राष्ट्रपति और राज्यपालों की इस कारण आलोचना हुई है कि उनके अभिभाषण में वे ऐसे कौन से तत्व हैं जिससे कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के संबंध में जगहंसाई भी होती है.

‘ऐसे अभिभाषणों के दरम्यान असंसदीय कदाचरण के कई उदाहरण भी हैं. उससे इन पदों की गरिमा को ठेस पहुंची है. कभी कभी तो राष्ट्रपति के भाषणों को फाड़ भी दिया गया है और राज्यपालों के हाथ से छीन लिया गया है. अशोभनीय दृश्य भी उपस्थित किए गए हैं. मैंने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में उनको लिखा था कि वे इस बेमानी औपचारिता को संविधान में संशोधन कर हटा दें. मैंने उसी तरह का एक पत्र प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी लिखा था.’

अब इसमें क्या शक कि राष्ट्रपति मानते रहे हैं यह उधार ली हुई ब्रिटिश परंपरा का कुरूप संस्करण है. यह भारत के राष्ट्रपति और संसद की गरिमा के साथ फिट नहीं बैठता.

जनता पार्टी नियंत्रित छठी लोकसभा का निर्वाचन 1977 में हुआ. 2014 से दस वर्षों तक नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री रहे. उन दस वर्षों में क्या 2014 से 2023 तक इंदिरा गांधी द्वारा लाई गई इमरजेंसी को लेकर ऐसी कटुतापूर्ण बातें हुईं ? शायद नहीं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. तब भी ? राष्ट्रपति से जो कहलाया गया, वह केन्द्र सरकार के सत्ताधारी जमावड़े का राजनीतिक शिगूफा है. उसका प्रसार करने राष्ट्रपति की मर्यादा के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता.

अभिभाषण में एक महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख नहीं हुआ. इमरजेंसी पर अंतिम निर्णय पर लिखते सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने साफ कहा था कि इमरजेंसी संविधान विरुद्ध नहीं कही जा सकती. राष्ट्रपति के भाषण में इस महत्वपूर्ण फैसले के प्रभाव का उल्लेख क्यों नहीं हुआ ? ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला के महत्वपूर्ण फैसले में पांच में चार जजों ने इमरजेंसी के समर्थन में और केवल एक हंसराज खन्ना ने कड़ा विरोध किया. उसकी कीमत वे चुकाते जजी से हटे, अन्यथा चीफ जस्टिस बन सकते थे. मैं अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता साफ करता हूं. मैंने वर्ष 2015 में अपनी किताब ‘संविधान की पड़ताल’ का प्रकाशन कराया. जस्टिस खन्ना के अद्भुत निर्णय के प्रति अपनी किताब उनकी पुण्य स्मृति में सादर समर्पित की. सुप्रीम कोर्ट का बहुमत का फैसला लेकिन अब मान्य है. उस पर चुप्पी संविधान प्रमुख से क्यों कराई गई ?

संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार (1) के अनुसार यदि किसी समय राष्ट्रपति को लगता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा सवाल पैदा हुआ है या होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर सुप्रीम कोर्ट की राय प्राप्त करना मुनासिब है तो राष्ट्रपति उस पर विचार करने सुप्रीम कोर्ट को निर्देशित कर सकेगा. कोर्ट राष्ट्रपति को अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा. राष्ट्रपति इस अपने संवैधानिक अधिकारों के सवाल को सुप्रीम कोर्ट को रेफरेंस क्यों नहीं करतीं ? वह उनके कार्यकाल के लिए इतिहास में महत्वपूर्ण श्रेय बनेगा. पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमन ने दो दो प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी और चंद्रशेखर से इन अधिकारों को स्पष्ट करने हेतु संविधान संशोधन करने का आग्रह तो किया ही था.

राष्ट्रपति के लिए यह अवमानना कारक भी हुआ कि इमरजेंसी पर अनावश्यक लंबी टिप्पणी स्पीकर ने अपने चुनाव के बाद ओम बिरला ने आभार व्यक्त करते भी कही. उन्हीं के कहे को राष्ट्रपति के भाषण में दोहरा दिया गया. यह संसदीय इतिहास में अनोखा लेकिन बदनुमा प्रयोग है. ऐसा लगता है दोनों भाषणों का गोपनीय लेखक एक ही है. अनुच्छेद 93 में लोकसभा के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को पदारूढ़ होते ही व्याख्यान देने का संवैधानिक अधिकार नहीं है. यदि कथित परंपरा या सौजन्य के अनुसार भी स्पीकर ने भाषण दिया तो आभार व्यक्त करते, विवादित राजनीतिक वक्तव्य शामिल क्यों किया ? यहां पर लिखित पर्चा लीक हो गया क्या ?

संविधान की मंशा नहीं कि राष्ट्रपति की अवमानना करते राजनीतिक पार्टी की सरकार चले. सोनिया गांधी ने भी तुरुप के पत्ते की तरह प्रतिभा पाटिल का नाम राष्ट्रपति बनाने खेला था. एक सौ चालीस करोड़ लोगों के मुल्क में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के जेहन से राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद, फिर द्रौपदी मुर्मू के नाम निकल आए. राष्ट्रपति का चुनाव देश के मतदाता करें तो प्रत्येक पार्टी को लोकप्रिय चेहरा मैदान में उतारना होगा, कोई मोहरा नहीं.

यह नहीं है कि सभी कांग्रेसी स्पीकर दूध के धुले संविधान विशेषज्ञों की नज़र में रहे हैं. प्रसिद्ध संविधान वैचारिक ए. जी. नूरानी ने अपनी किताब कांस्टीट्यूशनल क्वेश्चन्स इन इंडिया (पृष्ठ 156 157) में दो टूक लिखा  – A Speaker of the Lok Sabha. G.S. Dhillon, descented from the chair straight to the government benches in 1976 by the grace of the Prime Minister, Indira Gandhi. Nor must the claims to undying fame of P.H.O. Pandian, Speaker of the Tamil Nadu Assembly, be overlooked. Balram Jakhad’s tenure in the speaker’s office (January 1980-9) was marred by gross partisanship and an unconcealed ambition for office as union minister. Speaker Shivraj Patil’s ruling on 1 June 1993 on the split in the Janata Dal was a disgrace.

इक्कीसवीं सदी में देश में एक भी शिखर पुरुष नज़र नहीं आता जो देश के लिए अजातशत्रु राष्ट्रपति हो सके. राष्ट्रपति अबुल कलाम अलबत्ता इसे आंशिक रूप से हल कर गए. उन्नीसवीं सदी की भारत माता की कोख उर्वर थी. बीसवीं सदी धीरे धीरे बांझ होती रही.

राष्ट्रपति कार्यालय में संवैधानिक सलाहकार होते हैं. उन्हें बताना चाहिए था कि भारत के अब तक के राष्ट्रपतियों ने ऐसे ही संयुक्त सत्र बुलाए जाने पर जो अभिभाषण दिये हैं, उनमें क्या-क्या कहा है ? आपातकाल की ऐसी निंदनीय भाषा में किसी पिछली सरकार ने अपना ड्राफ्ट बनाकर राष्ट्रपति के मुंह से कहलाया नहीं होगा. राष्ट्रपतियों के सभी अभिभाषणों की पुस्तक छप सके तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.विपक्षी पार्टियां शायद दूध पिएं. सत्ताधारी तो पानी. इतिहास 1980 से अब तक क्या सोच रहा था ? इसी साल अंगड़ाई लेकर क्यों उठा ?

इंडिया गठबंधन को चाहिए राष्ट्रपति के ऐसे संवैधानिक अधिकारियों की स्पष्ट व्याख्या और खुलासे के लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव लाए. यह पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमन की इच्छा और उनके द्वारा पत्रों के अनुरूप होगा. वह राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के साथ जिस तरह शब्दों का छल किया जा रहा था और पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को राष्ट्रपति के भाषण से गायब किया गया, उसकी भी भरपाई कर सकेगा.

उससे कहीं अधिक कृतज्ञता अंबेडकर के नाम पर हो जिनके नाम से राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है. उन्होंने साफ कहा था कि राष्ट्रपति प्रथम सम्मेलन में अभिभाषण करने आएंगे तो उनको पूरी स्वतंत्रता होगी, अर्थात उन्हें मंत्रिपरिषद से किसी भी तरह सलाह और सहायता लेने की न तो ज़रूरत पड़ेगी और न ही वे लेंगे. वंचित दो तिहाई बहुमत के अभाव में यदि संविधान संशोधन नहीं भी होता है, तब भी इंडिया गठबंधन इतिहास में अमर होगा कि उसने भारत के संविधान प्रमुख राष्ट्रपति को राजनीतिक गिरोहबंदी से दूर करने स्वतंत्र स्वायत्त संविधान प्रमुख के रूप में उनकी गरिमा को परिभाषित करने और बचाए रखने के लिए एक ऐतिहासिक पहल तो की है.

एक और घटना है. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय 25 अक्टूबर 1999 को राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के तैयार भाषण में इसी तरह जानबूझकर ‘समाजवाद‘ और ‘पंथनिरपेक्षता‘ शब्द छोड़ दिए गए. दोनों शब्द इंदिरा गांधी के शासनकाल में 42 वें संविधान संशोधन के अनुसार 1977 में जोडे़े गए थे. शायद राष्ट्रपति नारायणन को संदेह हुआ होगा कि संविधान की उद्देशिका से छेड़छाड़ हो सकती है. गणतंत्र दिवस 2000 के समारोह में राष्ट्रपति नारायणन ने इसलिए वाजपेयी सरकार द्वारा प्रस्तावित संविधान समीक्षा आयोग को लेकर स्वविवेक से आशंकाएं सार्वजनिक कर दीं. देशवासियों की गवाही में सीधा सवाल पूछा क्या संविधान ने हमें असफल किया है या हमने संविधान को ?

आज भी यही यक्ष प्रश्न है कि क्या राष्ट्रपति का पद कंधा है जिसका इस्तेमाल राजनेता बंदूक तानने के लिए कर सकते हैं ? संविधान की नाल पुराने और पुश्तैनी गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1919 और 1935 में भी गड़ी है. उन्नीसवीं सदी के दिग्गज संविधानज्ञ तो मोटे तौर पर अंगरेजियत के गुणग्राहक और कायल थे. अम्बेडकर ही नहीं मसलन के. एम. मुंशी ने भी भरी सभा में स्वीकार किया था कि पिछले सौ बरसों से अंगरेजी परंपराएं ही हमारा पालन कर रही हैं.

लेकिन यह क्या ? भारतीय संसद कंट्रोल बोर्ड सरकार द्वारा क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के कर्ताधर्ता जय शाह के पिता के इशारे और संरक्षण में खुद ही पिच बना दे और अंपायर राष्ट्रपति को बाॅलर बना दे, फिर आयोजक कप्तान मोदी बैटिंग की ओपनिंग करते सिक्सर मारना शुरू करें ? उन्हें उम्मीद रही होगी कि भारत नाम के स्टेडियम में बैठे सभी 140 करोड़ दर्शक तालियां बजा बजाकर उनकी जीत देखेंगे.

लेकिन यह क्या ? दर्शक तो तालियां बजा बजाकर हंस रहे हैं. समझ गए हैं कि गेम में सेटिंग हो गई है. अंपायर और बैट्समैन के बीच में संसद कंट्रोल बोर्ड के कर्ताधर्ताओं के कारण शायद मैच फिक्सिंग हो गई है. मैच को तो जनता ने ही रद्द कर दिया है. यह कैसा सियासी गेम है जहां खिलाड़ी धन और कुर्सी के लिए खेलें और दर्शकों का मनोरंजन गरीब घरों के बच्चे हजार पांच सौ रुपयो में चियर गल्स की तरह करें ? खुदा खैर करे !

  • शब्दों पर जोर हमारा है – सम्पादक

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