Home गेस्ट ब्लॉग दलित कविता का वर्तमान – ‘शिकायत’ से ‘चुनौती’ तक का सफर

दलित कविता का वर्तमान – ‘शिकायत’ से ‘चुनौती’ तक का सफर

1 min read
0
0
537
‘मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती’, इसमें वे तमाम लोग शामिल होते हैं जो मेहनतकश हैं. हजारों वर्षों से दासत्व का जीवन जी रहे दलित, पिछड़े (शुद्रों) के साथ साथ स्त्रियों, जिसपर दासत्व का दोहरा बोझ होता है, इसलिए सवाल जब मुक्ति की होगी तो उस मुक्ति में स्त्री की मुक्ति सबसे पहले देखी जायेगी और उसके सवाल को अछूतों-दलितों के सवालों के साथ ही हल की जायेगी.
भारत में अछूतों-दलितों और स्त्रियों के सवालों को जिसने सबसे पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हल किया था – वे थे अमर.शहीद भगत सिंह. भगत सिंह के बाद चारु मजुमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने गहराई से न इस सवाल को न केवल उठाया बल्कि हल करने की दिशा में सशस्त्र संघर्ष भी संगठित किया, जो आज सबसे वैज्ञानिक आधार पर माओवादी आंदोलन के शक्ल में आगे बढ़ रहा है.
अमिष वर्मा लिखित प्रस्तुत आलेख ‘दलित कविता’ के जरिए जिन सवालों को उठाया है, वह बेहद ही महत्वपूर्ण है. धर्म और ईश्वर की सत्ता के खिलाफ विद्रोह करता मौजूदा दलित कविता ब्राह्मणवाद के साथ-साथ पितृसत्ता के खिलाफ जिस विद्रोही तेवरों को लेखक ने रेखांकित किया है, वे बधाई के पात्र हैं. प्रस्तुत आलेख को ‘लमही’ ने अपने जनवरी-जून के अंक में प्रकाशित किया है, जिसे हम लमही से साभार यहां प्रस्तुत कर रहे हैं – सम्पादक
दलित कविता का वर्तमान - ‘शिकायत’ से ‘चुनौती’ तक का सफर
दलित कविता का वर्तमान – ‘शिकायत’ से ‘चुनौती’ तक का सफर

दलित कविता दर्द और संघर्ष का दास्तान रचती रही है. दलित कविता की संवेदना के केंद्र में पीड़ा, संघर्ष, आक्रोश और प्रतिरोध रहा है. भारतीय समाज की जातिवादी संरचना के भीतर ‘सदियों का संताप’ झेलता दलित समुदाय जब अपनी बात अपनी जुबानी कहेगा तो वहां शोषण, पीड़ा, संघर्ष, शिकायत, आक्रोश और फिर प्रतिरोध न होगा तो और क्या होगा !

1914 में प्रकाशित ‘अछूत की शिकायत’ कविता दलितों की पीड़ा का प्रामाणिक प्रकटीकरण तो करती ही है, ईश्वर और धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक सत्ताओं से अपनी शिकायत भी दर्ज करती है. निश्चित रूप से इस शिकायत में प्रतिरोध की चेतना का अंकुर मौजूद है. ईश्वर से सवाल करने वाली, उसे कठघरे में खड़ा करने वाली और प्रकारांतर से उसके होने को प्रश्नांकित करने वाली पूरे हिन्दी साहित्य में संभवतः यह पहली कविता है. यह इस कविता का ऐतिहासिक क्रांतिकारी महत्व है. संभवतः इसी कारण यह हिन्दी की पहली दलित कविता मानी गयी है.

लेकिन ‘अछूत की शिकायत’ के बाद, यदि अछूतानंद की रचनाओं और अन्य छिटपुट उदाहरणों को छोड़ दें तो, एक लंबे अंतराल के बाद अस्सी के दशक में दलित कविता की कायदे से शुरुआत होती है. ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ 1989 में प्रकाशित हुआ और तब से लगातार दलित कविता ने न केवल अपनी अलग पहचान बनायी है, बल्कि हिन्दी कविता में अत्यंत महत्वपूर्ण हस्तक्षेप दर्ज किया है. नब्बे के बाद हिन्दी दलित कविता को मलखान सिंह ने नया तेवर और नई ऊंचाई दी.

इनके अलावा मोहनदास नैमिशराय, दयानंद बटोही, कंवल भारती, सूरजपाल चौहान, असंगघोष, श्यौराज सिंह ‘बेचौन’, सुशीला टाक भौरे, अनीता भारती, रजनी तिलक, रजत रानी ‘मीनू’, जय प्रकाश लीलवान, पूनम तुषामड़, रजत कृष्ण,कर्मानंद आर्य, मोहन मुक्त और अनेक समर्थ कवियों, जिन सब के नाम यहां पर ले पाना संभव नहीं है, ने हिन्दी की दलित कविता की भूमि और भूमिका का लगातार विस्तार किया है.

समकालीन दलित कविता में दलित चेतना पहले से और ज्यादा प्रखर होती हुई दिखायी पड़ती है. जाति, सत्ता, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि की जालसाजियों की ज्यादा बारीक पड़ताल आज की दलित कविता में मौजूद है. चेतना की प्रौढ़ता के साथ दलित कविता का आत्मविश्वास भी बढ़ा है. आक्रोश आज की दलित कविता में भी भरपूर है, लेकिन इस आक्रोश में तिलमिला देने वाला व्यंग्य पहले से अधिक हैं.

बढ़ते आत्मविश्वास के साथ आक्रोश का व्यंग्य में बदलना स्वाभाविक भी है. दलित जीवन की अमानवीय स्थितियों का चित्रण आज की दलित कविता में भी खूब हुआ है, लेकिन यहां पीड़ा का भाव कम हुआ है और प्रतिरोध का भाव अधिक प्रबल है, बदलाव के प्रति विश्वास प्रगाढ़ हुआ है. ‘सुनो ब्राह्मण’, ‘अब और नहीं’, ‘बहुत हो गया’, ‘आखिर! कब तक’, ‘उतार फेंकूंगा’ आदि कविता शीर्षकों में ही आत्मविश्वास से भरे प्रतिरोध के स्वर को सुना जा सकता है.

गांव हिन्दी कविता में प्रायः रूमानी और भावुकतापूर्ण तरीके से प्रस्तुत होते रहे हैं. शहर के बरक्स गांव को सुंदर, शांत और यहां तक कि अधिक मानवीय रूप में पेश किया जाता रहा है. गांव को लेकर हिन्दी के लेखकों और पाठकों की संवेदना प्रायः ऐसी ही रूमानी- ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ जैसी रही है. लेकिन दलित कविताएं गांवों की इस छवि को पूरी तरह ध्वस्त कर देती हैं. दलित कविताओं को पढ़ने के बाद गांवों को महिमामंडित करने वाली और उसे ‘आडंबर-अनाचार रहित’ और ‘प्रेममयी समता’ वाली जगह बताने वाली कविताएं अर्थहीन और आडंबरयुक्त मालूम पड़ने लगती हैं.

दलित कविताएं गांव को लेकर हमारी संवेदना को बदल देती हैं, बल्कि कहना चाहिए इसे दुरुस्त करती हैं. समकालीन दलित कविता गांव के भीतर बजबजाते जातिवाद और उसके शोषक रूप की अनेक-अनेक परतों को उघारकर पेश करती है, जिससे वहां की तथाकथित ‘प्रेममयी समता’ की ब्राह्मणवादी कल्पना की हवा निकल जाती है. मलखान सिंह की कविताओं में गांव की जो तस्वीर नजर आती है, उसे देखकर हमारी आंखों के जाले साफ हो जाते हैं.

मलखान सिंह को अपने ‘आदमखोर गांव’ में डर लगता है. ‘हमारे गांव में’ कविता में मलखान सिंह बताते हैं कि ‘हमारे गांव में भी, कुछ हरि होते हैं, कुछ जन होते हैं… हमारे गांव में नम्रता, जन की खास पहचान है’ और उद्दंडता हरि का बांकपन, तभी तो वह-बोहरे का लौंडा, जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता, को दूर से ही आता देख, मेरा बाबा, ‘कुंवरजू पांव लागू’ कहता है, और वह अशिष्ट, अपना हर सवाल, तू से शुरू करता है, तू पर ही खत्म करता है.’

असंग घोष ‘आजादी के सत्तर साल’ बाद भी अपने गांव के ‘अपना’ होने पर संदेह प्रकट करते हैं. इस संदेह का जैसे स्पष्टीकरण देती है सूरज पाल चौहान की कविता ‘मेरा गांव’-‘दिन-रात गुलामी कर-करके/थक गए बिबाई फटे पांव. मेरा गांव, कैसा गांव ?’ गांव की स्मृति दलित कविता में कहीं भी सुखद नहीं है. गांव का जातिवाद ज्यादा खुला हुआ है. शहर का जातिवाद कई मामलों में ज्यादा खतरनाक है पर यहां एक किस्म का सोफेस्टीकेशन है. गांव में जातिवाद नंगा है. यहां जीवन के किसी प्रसंग में जातिवाद से मुक्ति नहीं है. लिहाजा जब भी अवसर मिले, दलित गांव को छोड़ देने से नहीं हिचकते. खासकर नयी पीढ़ी तो गांव से छुटकारा पा लेना चाहती है.

युवा दलित कवियों की गांव से संबंधित कविताओं में तल्खी ज्यादा है. पूनम तुषामड़ की एक कविता है ‘हमने छोड़ दिए हैं गांव’ जिसमें दलित युवक या युवती की मनःस्थिति को देखा-समझा जा सकता है- ‘हमने छोड़ दिए हैं गांव/तोड़ दिया है नाता/ गांव के कुएं, तालाब/मंदिर और चौपाल से/जो अक्सर हमें/मुंह चिढ़ाते,/नीच बताते और कराते हमें/जाति का अहसास.’ कर्मानंद आर्य घोषणा करते हैं कि ‘मेरा गांव मेरा देश नहीं है.’

युवतर पीढ़ी के कवियों में मोहन मुक्त की कविताएं कुछ अलग अंदाज, अलग तेवर और बहुत कुछ अलग आस्वाद की कविताएं हैं. मोहन मुक्त अपनी अभिव्यक्ति में पूरी तरह मुक्त हैं और बहुत सीधी बात करते हैं. गांव से शहर की ओर होने वाले पलायन का एक बड़ा कारण है कि गांव के जातिवादी माहौल की तुलना में शहर की सीमित जिंदगी बेहतर है, यहां हर कदम पर जाति के दंश को झेलना नहीं पड़ता.

अपनी कविता ‘पलायन के कुछ चित्र’ में मोहन मुक्त लिखते हैं- ‘तुम्हें पता है/मुझे भी याद आती है/ पहाड़ी पर बसे अपने गांव की/लेकिन मैं तुम्हारी तरह/वहां लौट जाने को नहीं हूं बेचैन/क्योंकि वहां लौटते ही/मैं हो जाऊंगा हलिया/और तुम बन जाओगे जिमदार/मुझे तो गांव की वादी तंग लगती है/ और ज्यादा खुला लगता है/यह दस बाई दस का कमरा/यहां हम दोनों/एक ही थाली में खा सकते हैं/सुअर का मीट/महसूस कर सकते हैं/एक-दूसरे की दुर्गंध…’.

गांव के साथ तथाकथित ‘लोक संस्कृति’ का गहरा ताल्लुक रहा है. लोक संस्कृति भी प्रायः रूमानी तौर पर ही देखी-समझी जाती रही है और इसके संरक्षण को ‘लोक’ के संरक्षण से जोड़ दिया जाता रहा है लेकिन क्या इस लोक संस्कृति में वास्तव में ‘लोक’ साधारण जनता है ? लोक संस्कृति के नाम पर हम उच्चवर्णीय ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक संस्कृति की रक्षा में तो नहीं लगे है ?

मोहन मुक्त इस लोक संस्कृति की निर्मिति और इसकी संरचना के तारों को रेशा-रेशा खोल देते हैं. वे बाईस छोटी-छोटी कविताओं के आधार पर इस लोक संस्कृति की पहचान ऊंची जातियों द्वारा दलितों के शोषण की संस्कृति के रूप में करते हैं और लिखते हैं-

‘जब संस्कृति ही एक पिरामिड हो/ तो इसके पहले/‘लोक’ लिख देने से कोई फर्क नहीं पड़ता/…तुम जो लोक संस्कृति के पहरुवे बने हुए हो/बैठा करते हो इस पिरामिड में सबसे ऊंचे/और वहां से लटकती रहती है तुम्हारी लंबी धोती/वो धोती इतनी लंबी है/कि ढक लेती है पूरा पिरामिड.’

ऐसी लोक संस्कृति के प्रति कवि की तल्खी इन पंक्तियों में और खुलकर सामने आती है-

‘तुम्हारी बदबूदार आत्मीयता/ तुम्हारी बदबूदार लोक संस्कृति/दोनों में ही द्याव फटे/दोनों में ही बजर पड़े.’

दलित कवि तथाकथित मुख्यधारा की संस्कृति, सभ्यता, भाषा, इतिहास और परंपराओं को निर्ममता के साथ खारिज करता रहा है. वह ऐसी संस्कृति, भाषा या इतिहास को लेकर करेगा भी क्या जो उसके शोषण के साझीदार रहे हों ! आज की दलित कविता इस बात को लेकर और ज्यादा सजग और निर्मम मालूम पड़ती है. अनीता भारती को ऐसे ‘अबोध और निर्मम’ इतिहास से शिकायत है, क्योंकि ‘इतिहास से भी हमारा नाम गायब है/ बेदखल हैं हम उससे/फाड़ दिया गया है/हमारे संघर्ष का पन्ना.’

मोहन मुक्त ऐसी संस्कृति, भाषा और इतिहास-बोध के प्रति विद्रोह कर उठते हैं- ‘मैं द्रोह करता हूं तुम्हारी दुनिया के खिलाफ/मैं करता हूं युद्ध का ऐलान/तुम्हारी संस्कृति भाषा और साथ ही तुम्हारी निगाह के खिलाफ भी/मैं एक शब्द नहीं लूंगा तुम्हारी भाषा से…/ मैं तुम्हारी भाषा संस्कृति सभ्यता और धर्म को देखूंगा/अपनी तीखी स्पष्ट और बेखौफ निगाह से/और तुम बिल्कुल चुप हो जाओगे… एकदम चुप…’.

जिस इतिहास ने दलितों के संघर्ष को कोई जगह नहीं दी, उस सवर्ण इतिहास और इतिहास-बोध दोनों को अतीत के कूड़ेदान में फेंक देने की बात दलित कवि करता है. मलखान सिंह तो ऐसे इतिहास को ‘गाय का मूत रचा/गोबर पूता इतिहास’ कहते हैं, ‘जिसके पन्ने-पन्ने पर/उत्पीड़न और अपमान के/प्रतिमान टंगे हैं.’

दलित कविता में हिन्दू धर्म-संस्कृति और ईश्वर की आलोचना बहुत ही स्वाभाविक है. यह असल में दलितों के शोषण को उनकी नियति ठहराने वाली और उन्हें यथास्थिति में बनाए रखने वाली संस्कृति और संस्थाएं हैं. दलित कविता में आरंभ से ही हिन्दू धर्म-संस्कृति, हिन्दू धर्मग्रंथों और ईश्वर की आलोचना मौजूद है, क्योंकि दलितों के शोषण और उनकी गुलामी की जड़ें इन्हीं में मौजूद हैं.

मोहन मुक्त अपनी कविता ‘पर्याप्त’ में ठीक ही कहते हैं कि ‘असल गुलामी राजनैतिक नहीं/सांस्कृतिक है/असल वंचना राजनैतिक नहीं/सांस्कृतिक है/असल जंग राजनैतिक नहीं/सांस्कृतिक है.’

प्रस्तुत लेख के आरंभ में ही हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ के संदर्भ में ईश्वर की आलोचना वाली बात का जिक्र किया जा चुका है. समकालीन दलित कविता की खासियत यह है कि हिन्दू धर्म और ईश्वर की आलोचना में अब शिकायत का स्वर नहीं रह गया है, बल्कि यह स्वर चुनौती का हो गया है.

समकालीन दलित कवि बेखौफ-बेलौस अंदाज में हिन्दू धर्म और ईश्वर की आलोचना कर रहे हैं. निश्चित रूप से इसे दलित चेतना के विस्तार और अगले पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है. मलखान सिंह अपनी कविता ‘आखिरी जंग’ में ईश्वर को ‘शैतान का वंशज’ कहते हैं और अपने गांव के मुखिया की शक्ल उन्हें हू-ब-हू ईश्वर की शक्ल जैसी लगती है. मलखान सिंह ईश्वर की अवधारणा को महज आक्रोश में नहीं, बल्कि तर्क और विज्ञान के बूते खारिज करते हैं.

‘ईश्वर उसी दिन मर गया था’ कविता में वे लिखते हैं- “ईश्वर उसी दिन मर गया था/जिस दिन कि आदम ने/यह जान लिया कि/सृष्टि का जनक, पालक, संहारक/ईश्वर नामधारी कोई/स्त्री-पुरुष नहीं/धरती के गर्भ में छुपा/सतत परिवर्तन का नियम है.’

हिन्दू धर्मग्रंथों और ईश्वर की आलोचना के मामले में असंग घोष का स्वर सबसे तीखा है. ‘आहूति’ कविता में हिन्दू धर्म के ‘प्रपंची ग्रंथ-शास्त्रों’ पर बहुत ही निर्मम तरीके से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‘लो मैं ही/सबसे पहले/अपने पुरखे/आदि कुरिल/की तरह/मूतता हूं/तेरे ग्रन्थों पर.’

वे घोषणा करते हैं कि ‘धर्म ! तुम्हें तिलांजली देता हूं’ और ‘अंधा-बहरा भगवान’ से पूछते हैं कि ‘कहां हो ईश्वर’ ! इसके अलावा ‘तेरे देवता को मैं नकारता हूं’, ‘यक्ष प्रश्न’, ‘तेरा ईश्वर’, आदि जैसी कई कविताओं में असंग घोष मुक्त कंठ से हिन्दू धर्म और ईश्वर की धज्जियां उड़ाते हैं.

मोहन मुक्त भी अपने अंदाज में ईश्वर पर तंज कसते हैं- ‘देखो तुम उदास मत होना/ईश्वर क्रूर है,/उसे इंसानों की उदासी से फर्क नहीं पड़ता.’ मोहन मुक्त उस कलाकार से उम्मीद रखते हैं जो एक दिन अपने छोटे-छोटे औजारों को हथियारों में बदल लेगा और इंसानों की उदासी को दूर करने के लिए ईश्वर के खिलाफ युद्ध में उतर जाएगा. जाहिर है कवि कला की उपयोगिता मनुष्य की मुक्ति के संधान में देखता है, किसी फर्जी ईश्वर की भक्ति में नहीं.

दलित विमर्श के संदर्भ में इस बात को समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि मुक्ति के अन्य विमर्शों के साथ इसका कितना और कैसा ताल्लुक है. क्या अकेले दलितों की मुक्ति संभव है ? क्या वास्तव में मनुष्य की मुक्ति जाति, लिंग, समुदाय आदि अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग संभव है ? असल में मुक्ति के अलग-अलग विमर्श केवल अपने-आप में अधूरे हैं.

मसलन, अगर केवल दलित मुक्ति की बात करें तो दलित स्त्री की मुक्ति अधूरी रह जाती है, क्योंकि उसके शोषण का कारण तो दलित होने के साथ-साथ उसका स्त्री होना भी है. इसी तरह स्त्री विमर्श के भीतर भी स्त्री के जाति आधारित शोषण का सवाल अनुत्तरित रह जाता है. आदिवासी विमर्श भी केवल अपने-आप में ठीक इसी तरह अधूरा है. इस तरह से देखें तो मुक्ति के इन तमाम विमर्शों के बीच एक अनिवार्य संबंध मालूम पड़ता है और इसलिए इनके बीच में साझेदारी जरूरी है.

अब सवाल है कि क्या इन विमर्शों के बीच सचमुच यह साझेदारी दिखायी पड़ती है. हिन्दी की दलित कविता के हवाले से बात करें तो कहना पड़ेगा कि यहां यह साझेदारी लगभग नहीं के बराबर दिखायी पड़ती है. हिन्दी की शुरुआती दलित कविता में तो यह बिल्कुल भी दिखायी नहीं पड़ती. निश्चित रूप से इससे शुरुआती दलित कविता में एकांगीपन आया है.

हिन्दी की दलित कविता में पितृसत्ता और स्त्री के सवालों की अनदेखी को रेखांकित करते हुए इसके कारणों की तलाश करने की कोशिश रजनी अनुरागी ने की है. वे लिखती हैं-

‘पहले और दूसरे दौर के दलित कवियों की कविताओं में वर्णव्यवस्था और उससे जुड़ी हुई भेदभाव की मानसिकता के विभिन्न रूपों और आयामों के खिलाफ कविताओं में एक खास किस्म की पुरुषवादी मुद्रा वाला वैचारिक संघर्ष है. लैंगिक भेदभाव और दलित स्त्री के उत्पीड़न के बेहद सूक्ष्म रूप इस कविता का विषय नहीं बन सके हैं…विडंबना ये है कि दलित पुरुष कवि ने दलित स्त्री के तमाम सरोकारों को अपने सरोकारों में रिड्यूस/सीमित कर लिया है.

इसलिए दलित स्त्रियों के सवाल उसे न तो दिखायी देते हैं और न सुनायी…इसलिए ‘जाति के भीतर लैंगिक शोषण और भेदभाव’ पर दलित कवि की नजर जा ही नहीं पाती या फिर बहुत कम जाती है और नतीजा ये होता है कि एक स्त्री होने के नाते दलित स्त्री के सवाल, उसकी छवियां और सरोकार दलित कविता में पुरुषवादी और समुदायवादी नजरिए से आते हैं.’

लेकिन समकालीन हिन्दी दलित कविता के बारे में यह बात सुखद है कि यहां मुक्ति के साझेपन को लेकर समझदारी बढ़ी है और इसी कारण आत्मालोचन की प्रवृत्ति भी बढ़ी है. स्त्री रचनाकारों की सचेत भागीदारी से ‘जाति के भीतर लैंगिक शोषण’ के सवाल को लेकर दलित स्त्री विमर्श का खड़ा होना एक अर्थ में दलित चेतना और स्त्री चेतना के साझेपन का संकेत है. यह साझापन जितना दलित मुक्ति के सवाल से बाबस्ता है, उतना ही स्त्री मुक्ति के सवाल से भी. पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद से मुक्ति की साझी चेतना !

अनीता भारती अपनी ‘भेद दृष्टि’ कविता में सवर्ण स्त्रीवाद से जिरह करते हुए यही कहती हैं- ‘तुमने कहा पितृसत्ता/हमने कहा/ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’. ‘स्यूडोफेमनिस्ट’ कविता में तो अनीता भारती मुक्ति-संघर्षों के साझेपन को बहुत साफ-साफ रेखांकित करती हैं- ‘एक की आजादी नहीं होती/सबकी आजादी/ इसलिए/सबकी आजादी की बात करो/मुक्ति भी/एक-दूसरे से जुड़ी होती है/जैसे माला में/मोती से मोती जुड़े होते हैं/किसी एक वर्ग के मुक्त होने से/नहीं हो सकते सभी मुक्त.’

दलित विमर्श के भीतर स्त्री मुक्ति के सवाल को उठाना आसान नहीं होगा-इस बात को युवा दलित स्त्री रचनाकार खूब समझती हैं. दलित विमर्श के भीतर की पितृसत्ता से लड़ने के लिए उन्हें अपनों से भी संघर्ष करना होगा. पूनम तुषामड़ ‘मेरे हिस्से की सुबह’ में लिखती हैं-

‘अपने हक के लिए लड़ते हुए मैंने जाना/कितना जरूरी है ये याद रखना/कि मेरी लड़ाई/नहीं है सिर्फ उनसे/जो पोषक हैं गुलाम संस्कृति के/बल्कि उनसे भी होगी/मुठभेड़/जिन्हें मैंने माना अपना.’

अनीता भारती, सुशीला टाकभौरे, रजत रानी ‘मीनू’, रजनी तिलक, पूनम तुषामड़, रजनी अनुरागी आदि दलित कवयित्रियां निश्चित रूप से दलित कविता का एक नया और जरूरी पक्ष रच रही हैं. इधर के नए पुरुष दलित कवियों में भी मुक्ति के साझे संघर्ष की चेतना दिखायी पड़ रही है. मोहन मुक्त की कविताओं में स्त्री मुक्ति के मूलभूत सवालों को देखा जा सकता है. ‘दलित’ की अवधारणा को लेकर भी मोहन मुक्त का नजरिया समावेशी है.

‘दलित’ अवधारणा की परिधि का विस्तार करते हुए अपने कविता-संग्रह ‘हिमालय दलित है’ की भूमिका में वे स्त्रियों, किसी भी आधार पर भेदभाव और अन्याय झेल रही और उसके खिलाफ प्रतिरोध कर रही जनता और तमाम उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को इसके दायरे में ले आते हैं. यह समझदारी मुक्ति संघर्षों के साझेपन की अनिवार्यता को ठीक-ठीक समझ पाने का संकेत है.

दलित कविता या कहें पूरे दलित साहित्य की एक सीमा यह रही है कि यहां कथ्य और विषयों की विविधता कम है. आरंभिक दौर में दलित साहित्य ने पूरे हिन्दी समाज का दलित जीवन की एकदम नयी तरह की अनुभूतियों से परिचय कराया. हिन्दी साहित्य के लिए यह बिल्कुल नयी बात थी. लेकिन धीरे-धीरे अब दलित कविता ने तकरीबन तीस-पैंतीस वर्षों का सफर तय कर लिया है. अब विषयों की विविधता का अभाव अखरता है.

यह अकारण नहीं है कि आठ-दस कवियों की सौ-पचास कविताएं पढ़ते-पढ़ते एकरसता का एहसास होने लगता है. इस एकरसता से बाहर आने का रास्ता दलित कविता को तलाशना होगा. दलित जीवन के उन पक्षों और पहलुओं को ढूंढना-पहचानना होगा, जो अभी तक हिन्दी पाठकों के सामने प्रस्तुत न हुए हों.

ऐसे विषय बचे ही नहीं हैं-यह मानना तो दलित जीवन और
अनुभव की व्यापकता तथा साहित्यकार की नवनवोन्मेषशालिनी
मेधा दोनों के साथ अन्याय होगा ! दलित कविता में प्रेम कविताओं
का अभाव खटकता है. संभव है कुछेक प्रेम कविताएं लिखी गयी
हों, लेकिन प्रेम कविताएं दलित कविता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा
अभी नहीं बन पायी हैं. रजनी अनुरागी ने भी अपने लेख में इस
ओर संकेत किया है- ‘वहां प्रेमिका और प्रेम करने वाली दलित
स्त्री सिरे से गायब है. दलित कविता का यह एक बेहद ‘ग्रे-एरिया’
है…’. बहरहाल !

दलित कविता ने ‘शिकायत’ से ‘चुनौती’ तक का सफर तय किया है. दलित कविता का वर्तमान अतीत से प्रेरणा लेता हुआ, अतीत की कमियों को दुरुस्त करता हुआ, अतीत के संघर्षों से पैदा हुए आत्मविश्वास के साथ सुनहरे भविष्य की ओर अग्रसर है. निश्चित रूप से दलित कविता का वर्तमान आश्वस्तकारी है.

दलित कविता के भविष्य को लेकर मोहन मुक्त की काव्य पंक्तियों
के सहारे विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि –

‘और मैं एकदम स्पष्ट कि
इतिहास से बहिष्कृत
और सभ्यताओं में तिरस्कृत लोग ही
बनाएंगे नया इतिहास
गढ़ेंगे नयी सभ्यता
सबके लिए
सभी के लिए…’

संदर्भ –

  1. मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2018, पृ. 89-90
  2. सूरजपाल चौहान, दलित चेतना की कविताएं, राम चंद्र, प्रवीण कुमार (संपा.), स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 132
  3. पूनम तुषामड़,‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध,
    लिंक : http://kavitakoshAorg/kk/geus_NksM+_ fn,_gSa_xk¡o_/_ iwue_rq”kkeM+18A12A2022 18।12।2022 को देखा गया.
  4. मोहन मुक्त, हिमालय दलित है, समय साक्ष्य, देहरादून, 2022, पृ. 122
  5. वही, पृ. 201
  6. वही, पृ. 223
  7. अनीता भारती, ‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध, लिंक : http://kavitakoshAorg/kk/bfrgkl_/_vfurk_Hkkjrh15A12A2022 15.12.2022 को
    देखा गया.
  8. मोहन मुक्त, हिमालय दलित है, पृ. 176
  9. मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण,एक नया ताड़ वृक्ष (कविता), पृ. 87
  10. वही, पृ. 45
  11. मलखान सिंह,ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2019, पृ. 24
  12. असंग घोष,‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध, लिंकरूीजजचरूध्ध्
    ांअपजंावेी।वतहधाध्आहूतिऋध्ऋअसंगघोष16।12।2022 को देखा गया.
  13. मोहन मुक्त, हिमालय दलित है, पृ. 184
  14. डा. रजनी अनुरागी, हिन्दी दलित कविता में स्त्री सरोकार (लेख), दलित अस्मिता (पत्रिका), संपा.-विमल थोरात, वर्ष-9, अंक-34, जनवरी-मार्च, 2019, पृ. 34
  15. अनीता भारती,‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध, लिंकरू ीजजचरूध्ध्
    ांअपजंावेी।वतहधाध्भेददृष्टिऋध्ऋअनिताऋभारती15।12।2022 को देखा गया.
  16. अनीता भारती,‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध, लिंकरूीजजचरूध्ध्
    ांअपजंावेी।वत हधाध्स्यूडोऋफेमनिस् टऋध्
    ऋअनिताऋभारती15।12।2022 को देखा गया.
  17. पूनम तुषामड़, गांव के लोग (पत्रिका), संपा.- रामजी यादव, वर्ष-5, अंक-24, जनवरी-फरवरी, 2021, पृ. 328
  18. मोहन मुक्त, हिमालय दलित है, पृ. 36-37
  19. डा. रजनी अनुरागी, हिन्दी दलित कविता में स्त्री सरोकार (लेख), दलित अस्मिता (पत्रिका), पृ. 39
  20. मोहन मुक्त, निष्कर्ष (कविता), हिमालय दलित है, पृ. 196
  • अमिष वर्मा
    पता: असिस्टेंट प्रोफेसर
    हिन्दी विभाग
    मिजोरम विश्वविद्यालय, आइजोल
    E-mail : amishjnu@gmail.com
    मो.: 9436334432

Read Also –

मंदिर आंदोलन का सबसे ज्यादा नुकसान दलित जातियों और ओबीसी को हुआबिहार का दलित आंदोलन, नक्सलवाद और ‘प्रशांत बोस’
दलित विरोधी मानसिकता, जातिवादी अहंकार और वर्गीय उत्पीड़न
भीमा कोरेगांव का केस दलितों के खिलाफ साजिश है
दलित राजनीति का सेफ्टी वाल्व
संविधान, दलित और अम्बेदकर
भारत में शुद्र असल में दास है ?
ब्राह्मणों से ज्यादा खतरनाक ब्राह्मणवादी शुद्र है
रामराज्य : गुलामी और दासता का पर्याय
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘रामराज्य और मार्क्सवाद’ की भूमिका – ‘दो शब्द’

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…