Home गेस्ट ब्लॉग पोस्टमार्टम : उदयप्रकाश का लेख एवं साक्षात्कार – राजतंत्र, धर्म और समाज

पोस्टमार्टम : उदयप्रकाश का लेख एवं साक्षात्कार – राजतंत्र, धर्म और समाज

31 second read
0
0
730
‘जो विचार, जो आस्थाएं, जो संस्कृति राजतंत्र-पूंजीतंत्र के आश्रय में फलीभूत हुई हों वे सर्वहारा की हित संवर्धक हो ही नहीं सकती. राजतंत्रीय राजाश्रय एवं पूंजीतंत्र में जो चीजें परवान चढ़ती हैं या चढायी जाती हैं वे मूलतः जनता की होती ही नहीं हैं.’
पोस्टमार्टम : उदयप्रकाश का लेख एवं साक्षात्कार - राजतंत्र, धर्म और समाज
पोस्टमार्टम : उदयप्रकाश का लेख एवं साक्षात्कार – राजतंत्र, धर्म और समाज
बुद्धिलाल पाल

जैसा कि परिलक्षित है हम और हमारी पूरी दुनिया पर पूंजीगत समय का अनुशासन बहुत तीव्रता से बढ़ता जा रहा है. समाज का मनोविज्ञान राजतंत्र की जकड़न में होने से पूंजी का यह काम और भी आसान हुआ है. आज हम बहुत ही संकट के दौर से गुजर रहे हैं. समय और चीजें बहुत तेजी से बदलती जा रही हैं. हम अपने जनवादी मूल बोध से दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में हमारी मानवीयता समय के रफ्तार के हिसाब से बहुत पीछे छूटती अप्रासंगिक होती जा रही है. समय की रफ्तार के हिसाब से एक जनवाद ही है जो इस समय को रोक सकता है, नियंत्रित कर सकता है एवं समय का अनुकूलन मानवीयता के आधार पर कर सकता है और इस दुनिया को विकल्पहीनता की स्थिति से बचा सकता है. परन्तु गड्ड-मड्ड क्रांतिकारी जनवाद मध्यकाल की ही अनुशंसा करता है.

बहुत पहले फ़रवरी 2004 के समयान्तर अंक में उदयप्रकाश का लेख ‘धर्म सृजन का सहोदर है’ तथा पत्रिका साक्षात्कार’ के अंक 291-292 में उनका साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है. इसमें अगर बात मार्क्सवादी मठों, मार्क्सवादी कट्टरता, कार्पोरेट पूंजी पर बैठे शोभायमान मार्क्सवादी तक उनके अन्तर्विरोधों तक ही होती तो यह जनवाद की प्रगति में सहायक होता, परन्तु इसमें ऐसा नहीं है बल्कि उनके कथन के मूल पाठ में मध्यकाल की अनुशंसा जैसा भाव है. अतएव उनके उक्त लेख एवं साक्षात्कार को ही आधार बनाकर राजतंत्र, धर्म और समाज के अन्तर्सम्बंधों पर एक चर्चा जनवाद के पाठ के रूप में रखने की यहां कोशिश की गई है.

उदयप्रकाश के लेख ‘धर्म सृजन का सहोदर है’ पर शीर्षक से कोई आपत्ति नहीं है. परन्तु यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो भी सृजन, धर्म तंत्र से होता है वह राजतंत्र की आवश्यकतानुसार ही होता है क्योंकि धर्म-तंत्र पर राजतंत्र का नियंत्रण है. राजतंत्र ने धर्म में अपनी ऐसी गूढ़ भाषा सृजित की है कि वही धर्म का मूल पाठ हो गया है और धर्म में जो मानवतावाद है, वह भी राजतंत्रीय समझ और राजतंत्रीय अपेक्षाओं के अनुरूप है.

उदय प्रकाश लेख की शुरूआत में धर्म की वर्तमान छवि को केन्द्र में रखकर कहते हैं ‘विध्वंसात्मक राजनीति द्वारा विनिर्मित एक खास छवि भी हमारे भीतर है. यह मूल रूप से धर्म की सत्ता केन्द्रित राजनीतिक छवि है. राजनीतिक सत्ताओं द्वारा विनिर्दिष्ट और उसी के द्वारा विखंडित.’ यह धर्म की आज की ही छवि नहीं है बल्कि पहले तो अधिक क्रूर रही है. धर्म इस परिस्थिति में राजतंत्र की संतुष्टि का एक रूप मात्र ही रहता आया है. ऐसे में धर्म कैसे जनता की अपेक्षाओं का मुक्ति का प्रगति का स्वतंत्र रूप हो सकता है ? जब जनता की इन बातों का अक्स उसमें या उसके व्याख्यातित रूप में कभी रहा ही नहीं है, तो जनता का कैसे सृजन हुआ और कैसे उसकी प्रगति हुई ? और धर्म कैसे लोक कल्याणकारी हुआ दरअसल नियंत्रण के अलावा जनता को धर्म में कभी कोई स्वतंत्रता मिली ही नहीं.

राजतंत्र में शासक और उनके सहकर्मियों को खाने की, पैसों की, खजाने की कोई चिन्ता नहीं, मजदूरों की चिन्ता नहीं. इस तरह के परिवेश में राजतंत्र अपनी स्थापत्य कला, चित्रकला, संगीत में अपनी पराकाष्ठा दिखाने के लिए धर्म का ही सहारा लेता रहा है. उस समय धर्म ही एक ऐसी वस्तु था जो राज्य की समृद्धि, स्थायित्व, ऐश्वर्य और उसकी प्रगति की पराकाष्ठा बताने का एक माध्यम था. भक्ति की समर्पण की भावना की ऊर्जा चहूं दिशा में राजा के निर्माण की एक ऐसी नींव थी जिससे राजा सर्वत्र ही महान हो जाता था. इस तरह राजतंत्र और उसके कुलीन तंत्र का भव्य निर्माण होता था.

उदय प्रकाश का ऐसा मानना है धर्म राजनीति से स्वतंत्र एक अलग चीज है, इसमे असहमति है. धर्म की राजनीति पहले राजतंत्र की नीति रही है. राजतंत्र की सूझ-बूझ और उसकी भविष्य दृष्टि ने धर्म को आकार दिया है. राजतंत्र ने हमेशा पहले अपने को धर्म के अधीन होना बताया है परन्तु यथार्थ में धर्म पर उसका पूरा नियंत्रण रहा है. नियंत्रण ही नहीं उसके सभी कर्मकाण्डों का सबसे बड़ा प्रायोजक भी वही रहा है. परोक्ष रूप में जिस तरह जनता राजतंत्र के अधीन रही उसी तरह धर्म के भी अधीन रही.

जनता के साथ राजतंत्र का रवैया भेदभाव पूर्ण रहा है और धर्म उसके पास आस्था से हटकर एक अस्त्र की तरह रहा है, जिसके जरिये वह जनता के बीच स्थायी तौर से अपनी क्रूरता बनाये रखने मे सफल हुआ. इस तरह न राजतंत्र कभी धर्म से अलग रहा, न ही धर्म कभी राजतंत्र से. राजतंत्र की कल्पना शक्ति से ही धर्म चमत्कारिक पारलौकिक देशज और राष्ट्रीय हुआ.

उदय प्रकाश कहते हैं ‘सामन्तवादी समाज व्यवस्था, जातिवाद, ब्राम्हणवादी, कर्मकाण्ड और सांस्कृतिक उत्पीड़न को जितनी बड़ी चुनौती भक्तिकाल के संत कवियों (अथवा इस्लाम के कठमुल्लावाद के संदर्भ में सूफी कवियों) ने प्रस्तुत की वैसी लोकव्यापी चुनौती फिर कभी नहीं दी जा सकी.’ पर फिर इन सबको मान्यता तो धर्म के भीतर ही मिली हुई थी, भले ही धर्म का यह स्वरूप वर्चस्व तंत्र ने दिया हो. यह सब धार्मिक मान्यताएं ही थी.

भक्तिकालीन युग एक ऐसा युग था, जिसमें धर्म अपनी प्रासंगिकता व अप्रासंगिकता के बीच ऊहापोह की स्थिति में था. ऐसे में भक्तिकालीन कवियों ने, सूफी संतों ने इसका सूत्र अपने हाथों में लिया. यह धर्म को पाखंडों से मुक्त कराने की चुनौती से कहीं आगे एक आत्मचिन्तन की प्रक्रिया थी. ऐसे में उनके आत्मचिन्तन को भारतीय समाज में एक मल्हम की तरह जगह मिली. जनता को आपस में जोड़े रखने में सफल हुई और यहीं इसकी उपादेयता है. यह आमूलचूल परिवर्तन की कोई प्रक्रिया नहीं थी.

जब लोगों को उनके परिवेश, उनकी आस्थाओं से काटकर कहीं और जोड़ा जाता है तो क्या होता है ? उदय प्रकाश रूसी कथाकार वासिलेई सुक्सिन की एक कहानी का संदर्भ लेते हैं जिसमें कम्युनिस्ट सरकार द्वारा एक चर्च ढहाकर उसके स्थान पर एक माल गोदाम बना दिया गया. वे इस कहानी की गरीब मजदूर औरत की एक टिप्पणी का अंश उद्धत करते हैं – ‘पहले मेरी झोपड़ी से उस गिरजाघर का सुनहरा गुम्बद दिखता था, सुबह और सांझ की धूप में झिलमिलाता हुआ, तो आत्मा को एक अजीब सी शांति मिलती थी, जैसे कोई दु:खों में जलते मेरे जीवन और माथे को सांत्वना भरी हथेली से सहला रहा हो. अब इस माल गोदाम में ऐसा कोई गुम्बद नहीं दिखाई देता.’

इसके माध्यम से वे कहते हैं- ‘मार्क्सवादियों को उस गरीब औरत के आंसू दिखाई नहीं पड़े.’ दरअसल हमें सदियों से अपने मनोजगत को इसी तरह आलोकित करना सिखाया जाता रहा है इसीलिए धूप बत्ती, फूल पत्ती मंत्रोच्चार, पूजा अर्चना, मंदिर, घंटी, चर्च, उसका गुम्बद और प्रार्थना घर में हम एक अजीब किस्म की शांति, स्फूर्ति महसूसते हैं. अगर रोटी के प्रति उस महिला की आस्था का निर्माण उसी ईश्वर की तरह, उसी ईसा की तरह, उसी गुम्बद की तरह किया जाता या परम्परा में रोटी के प्रति उसे ऐसी अनुभूति सिखाई गई होती तो निश्चित ही वह माल गोदाम को देखकर भी उसी तरह रोमान्चित होती जिस तरह गुम्बद को देखकर होती है. उसका मनोजगत भी उसी तरह पुलकित होता. यदि रोटी उसके संस्कार में ईश्वर की जगह पर आ जाए तो उदय प्रकाश जी का यह कथन अप्रासंगिक हो जाएगा.

वैसे भी जब कोई व्यक्ति नौकरी पेशा या कारोबार में अपना गांव, अपना शहर, अपने आस पड़ोस के लोगों को, अपने रिश्तेदारों को छोड़कर दूसरी जगह विस्थापित होता है तो उसी गरीब औरत की तरह देखता है कि उसके आसपास गुम्बद की तरह अपनी मिट्टी की खुशबू, आस-पड़ोस, दोस्त रिश्तेदार की खुशबू नहीं है. जबकि होता ऐसा है कि वह अपने घर के बाहर अक्सर अपने देश में ही होता है. अगर इस टूटन को उसके आंसू कहें भी तो यह आंसू एक आवश्यक आंसू है उसकी प्रगति के लिए, उसके निर्माण के लिए.

अगर चर्च की गुम्बद की जगह माल गोदाम बनता है रोटी की सौंधी खुशबू के लिए, उस औरत की प्रगति के लिए, निर्माण के लिए तो यह आंसू भी यहां उस औरत के आवश्यक आंसू होंगे जो उसकी प्रगति के लिए, उसके निर्माण के लिए, सबसे बड़ी बात उसकी मुक्ति के लिए, उसकी स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है. जो लोग उसकी आंखों में आंसू देखकर व्यथित होते हैं, उसकी गरीबी देखकर अगर इस तरह व्यथित हों तो ज्यादा अच्छा होता है. सार्थक परिर्वतन के प्रति ऐसी उदासीनता अच्छी नहीं होती.

वैसे भी धर्म किसके पास बचा है ? उसी गरीब औरत के पास बचा है ? उसके संस्कारो में बचा है ? नहीं, तो क्या मस्जिद का ध्वंस करने वालों के पास बचा है ? मंदिर की मूर्तियों को सीढ़ियों में लगाने वालों के पास बचा है ? क्या उन लोगों के पास बचा है जो गुजरात में सामूहिक नरसंहार करते हैं ? अपने को फलां धर्म के फलां नस्ल के होने पर गौरव करते हैं ? धर्म के नाम पर तो सृजन यही लोग करेंगे न ! स्थापत्य का भव्य नमूना भी यही लोग खड़ा करेंगे न ! वह गरीब औरत थोड़े ही सृजन करेगी !

जब यह लोग सृजन करेंगे तो उसे तो नायाब होना ही है ! जब उन्हें विशाल मंदिर, विशाल कब्र, विशाल किला, विशाल गुफा बनानी होती थी तो वह गरीब औरत ही, उसी के जैसे लोग ही गुलाम होते थे, जिनकी पीठ पर चाबुक के निशान पर यह सब सृजन होता था. जब गरीब की पीठ पर कोडे़ से सृजन होता रहा हो या उस गरीब की बेगार पर अय्यासी होती रही हो या ऐशगृह चलते रहे हों, जब ऐसे ऐशगृहों या पूजा गृहों के लिए कोई भी संगीत बनेगा तो वह निश्चित ही नायाब होगा, स्थापत्य कला भी नायाब होगी. तो यह निश्चित ही धर्म है जिसने उस गरीब औरत को सहन करना सिखाया और उन अतताइयों ने उस औरत को धर्म सिखाया.

उदय प्रकाश कहते हैं कि ‘तुलसीदास के राम में भी तुलसीदास के वर्णवादी या ब्राम्हणवादी संस्कारों की छाप हो सकती है लेकिन राम करूणा और राज्य द्वारा निर्वासित वंचना और दीनता के प्रतीक बनते हैं. निराला हिन्दी में या उसके पूर्व भवभूति ने संस्कृत में उन्हें इसी रूप में व्यक्त किया है. अब अगर कोई बौद्धिक तुलसीदास की आलोचना करे तो चलिये गनीमत है, लेकिन अगर वह राम के विरूद्ध संग्राम छेड़ दे तो उसकी छवि लोक समाज में रावण की ही तो बनेगी.’ यह उदय प्रकाश का कौन सा लचीलापन है या फिर यह कैसा भय है कि वे तुलसी के विश्लेषण में तो उदार नजर आते हैं लेकिन राम के विश्लेषण में रावण समझ लिये जाने के भय से ग्रस्त हैं. यह फासीवादी सोच है जो उनके अवचेतन में दिखाई पड़ रही है कि आप हमारे साथ हैं अन्यथा आप हमारे विरोध में हैं.

ऐसा कर वे हीरोवरशिप मानसिकता में शामिल होते हैं या लोगों को ऐसा दिखाकर तर्क से दूर करते हैं. जनता की हीरोवरशिप मानसिकता, जो अपने नायक के संबंध में कुछ भी नहीं सुन सकती, यही जनता की राजभक्ति है. राजभक्ति में वह अपने राजा के खिलाफ कुछ भी नहीं सुन सकती. तो क्या इस मानसिकता को जायज मान लेना चाहिए कि चूंकि जनता ऐसा मानती है, हम जनता का सम्मान करते हैं, जनता हमें बुरा कहेगी ? क्या सिर्फ इसीलिए इसका विश्लेषण नहीं होना चाहिए.

राजभक्ति की घुट्टी राजतंत्र में आवश्यक थी तो क्या अभी भी आवश्यक है ? इस घुट्टी से राजतंत्र और ईश्वर की समानता में बहुत फर्क नहीं रह गया. राम की गरिमा पर कोई आंच आये या उसकी गरिमा ख्ंडित हो, हम भी नहीं चाहते परंतु प्रजातांत्रिक तरीके में इतना हक तो बनता है सर्वहारा की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाये। अगर ऐसा सोचा जाता है तो राम के बारे में कुछ प्रश्न अनायास ही सामने आ जाते हैं जैसे शम्बुक वध. शम्बुक वध क्यों ? कैसे ? किसके लिए ? ऐसा कर किसको फायदा पहुंचाया गया ? क्या अयोध्या और जनकपुरी में ही आदमी रहते थे बाकी पूरी दुनिया में सिवाय बंदर, भालू, राक्षस के क्या कोई आदमी नहीं रहता था ?

अयोध्या की जनता की शुचिता क्या इतनी कट्टर थी जितनी उस धोबी की सीता पर की गई टिप्पणी ? वह कहीं उस समय की अयोध्या की अधिकतम जनमानस की प्रतिक्रिया तो नहीं थी ? राजसत्ता हाथ से न निकल जायें इसके कारण कहीं सत्ता मोह में तो सीता का परित्याग नहीं हुआ ? सूर्पणखा के प्रेम का अनुरोध क्या इतना दण्डनीय था कि उसकी नाक काटकर अंग भंग कर दिया जाये ? इसे मानवीयता कहेंगे या क्रूरूता कहेंगे ? अपनी पवित्रता साबित करने के लिए सीता की अग्नि परीक्षा क्या पुरूषवादी सामंती चरित्र का उदाहरण नहीं है ?

राम और केवट के मिलन के संबंधों में कितनी उदारता थी ? क्या यह केंवट की राजभक्ति का महिमामण्डन नहीं था ? शबरी के जूठे बेर राम की उदारता थी या राजनीति का एक हिस्सा ? इसमें शबरी का महिमामण्डन हुआ या राम का ? लालू यादव तो इससे कहीं आगे जाकर जनता के बीच शबरी के जूठे बेर के ज्यादा मुरीद हैं अश्व मेघ यज्ञ किस रूप मे मानवीय है ? यह राजा की युद्ध पिपासा साम्राज्यवादी नीति है, विजेता चक्रवर्ती होने के लिए हिंसावादी होना है. क्या यह साम्राज्यवादी नीति जायज है ?

राजगुरू जनता के यानी राज्य के खजाने से यज्ञ करवाते थे इससे जनता का कितना कल्याण हुआ और राजतंत्र का कितना ? लक्ष्मण की उर्मिला से चौदह वर्ष की दूरी क्या मानवीय थी ? रावण की इतनी प्रसिद्धि शेष कैसे रह गयी कि वह प्रकाण्ड पंडित था ? ऐसे अनेक प्रश्न है जो स्वमेंव सर्वहारा की सुरक्षा की चिन्ता में आते हैं. विश्लेषण इन प्रश्नों के साथ करना अगर इस कारण न्यायसंगत नहीं है कि जनता की नजर में रावण समझ लिये जाएंगे तो फिर यह भय न्याय संगत नहीं है. अगर ऐसा है तो यह कैसा मानवतावाद है ? कैसी मानवीयता ? अगर इस तरह के विश्लेषण के लिए धर्म में जगह नहीं है तो धर्म सृजन का सहोदर हुआ कि राजतंत्र का ?

उदय प्रकाश कहते हैं – ‘बहुत से देवी-देवता तथा अन्य ऐसे प्रतीक जिन्हें राजनीतिक, बौद्धिक सिर्फ धार्मिक समझ कर उनका सरलीकृत परिसीमन कर डालने की भूल करते हैं. उन प्रतीकों और देवी-देवताओं की जड़ें धर्म से पहले सभ्यताओं में गहराई से धंसी रही है. वे धार्मिक ही नहीं सभ्यता मूलक प्रतीक और पात्र भी है.’

मैं उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं दुनिया की मुख्य धारा ही यही रही है. परन्तु उदयप्रकाश जी अपने इसी लेख में कहते हैं कि कृषि सभ्यता का आगमन लगभग 6 हजार वर्ष पहले हुआ और आखेट सभ्यता उससे भी पूर्व की है. तो अब इस तरह से आखेट युग से अब तक का सफर करीब 10000 वर्ष का हुआ, तो अपने प्रारम्भिक काल आखेट युग में क्या था ? उस समय लोग प्रकृति की जिस भी क्रिया से डरे या उससे कुछ लाभ हुआ, वे सब उसके देवी-देवता हो गये. सर्पराज, भूतनाथ, अग्नि देवता, वटवृक्ष और न जाने बहुत सारी चीजें भय और लाभ से उनकी आस्था में आ ही गये. तो अब एक वर्ग भी बना जो कुछ काम धंधा न कर अपनी श्रेष्ठता बनाये रखकर अतिरिक्त उत्पादन को किस्म-किस्म के तरीके से, चालाकियों से हड़पने वाला हुआ.

उसने अपने सतत क्रम में लोगों के बीच पुरोहित फैलाये. देवी-देवताओं के लाभ और भय, नियोजित तरीके से फैलाये, दान-दक्षिणा के उपक्रम बनाये, यही नहीं धर्म की, देवी-देवताओं की व्याख्याएं भी की. किसलिए ? अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने के लिए. फिर उन्होंने पूरा का पूरा शास्त्र गूढ़ भाषा, गूढ़ अर्थों में गढ़ा और धर्म के माध्यम से उसे लोक कल्याण और मानवीयता का अमलीजामा पहनाया. प्रत्येक व्यक्ति के लिए निज के कल्याण का शास्त्र गढ़े.

धीरे-धीरे देवी-देवता बढ़ते गये, उनकी स्थापनाएं बढ़ती गयी, धीरे-धीरे क्रमिक विकास की प्रक्रिया में देवी-देवताओं के राजदरबार भी राजतंत्र की अपनी शैली के अनुसार हुए. देवी-देवताओं की सभा, रंगमहल, दरबार भी राजा की दरबार की तरह देवताओं के क्रिया संसार भी लगभग उसी आकल्पना में जैसे कि राजतंत्र. परन्तु उन पर कोई शक न कर पाए, इसलिए सब के सब चमत्कारिक और वरदान देने वाले हो गये एवं पृथ्वीवासी से अलग दूसरी दुनिया के लोग हो गए एवं राजा उनका प्रतिनिधि हुआ !

इस तरह राजा ईश्वर का रूप हुआ, तो वह धर्म से कैसे अलग हुआ ? वह धर्म तो राजा का मार्गदर्शक हुआ या यूं कहें धर्म राजा का सहोदर हो गया. जब धर्म राजा का सहोदर हुआ तो जनता का पूज्यनीय तो होगा ही क्योंकि राजा भी जनता के लिए पूज्यनीय होता है. धर्म इस तरह राजतंत्र का सहोदर हुआ.

उदयप्रकाश कहते हैं – ‘सत्ता मूलक राजनीति में दलितवाद की अपनी भूमिका हो सकती है लेकिन कला और विज्ञान में दलित संगीत और दलित गणित या भौतिक भिन्न नहीं होगी. दलित संगीत में भी सात स्वर होगें.’ ठीक उसी तरह यह भी सच है कि आखेट युग से अभी तक यह दस हजार वर्षों में जो क्रमिक विकास हुआ है उसमें धर्म का अनुकूलन एवं विकास राजतंत्र के अनुरूप हुआ है. राजतंत्र, कुलीनतंत्र, वर्चस्ववादी तंत्र का नियंत्रण धर्म पर रहा है. बाकी सर्वहारा के लिये धर्म सिर्फ आस्था और आस्था की वस्तु रही है और राजतंत्र के लिए धर्म सैद्धान्तिकी में धर्म-तंत्र और व्यवहारिकी में लाभतंत्र ही रहा है. धर्म का सहोदरी सृजन बहुत कुछ राजतंत्र के माहौल में विलासिता का सृजन है न कि सर्वहारा का.

उदयप्रकाश की यह बात सही लगती है धर्म पर राममनोहर लोहिया, अम्बेडकर, गांधी द्वारा कही गई बातें प्रत्यक्ष या परोक्ष राजनैतिक अवधारणाओं से अधिक दूर जाना नहीं होगा. यही बात वे दलितवाद पर कहते हैं यह भी सही ही है. परन्तु दलित साहित्य में एक बात तो है जो धर्म से अलग राजतंत्र की अवधारणाओं से मुक्त उसे चुनौती देती हुई ही नहीं, उसे तोड़ती हुई भी राजतंत्र से बिलकुल अलग एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति है. इसी से उसका संघर्ष, उसकी अपेक्षाएं स्वतंत्र रूप से पूरी तरह उनकी अपनी है.

दलित साहित्य में दलितवाद से भी हटकर अपनी एक स्वतंत्रता, एक अलग मौलिक अभिव्यक्ति है जो चिन्तन में सर्वहारा वर्ग का एक समुदाय है. यह अलग बात है दृष्टि के विकास के अभाव में या यूं कहें परिस्थितवश या यूं कहें कि उनकी उतनी ही तात्कालिक निजी आवश्यकता होने से उसमें वह फैलाव नहीं बन पाता है जिसकी अपेक्षा की जाती है परन्तु जिस तीव्रता, तीक्ष्णता से उनका दमित जीवन संसार उसमें आता है वह अन्यत्र कहीं नहीं है. उनका दमित संसार जिस तरह उसमें खुलता है वह उनके बदलाव की आकांक्षा का शास्त्र गढ़ती है.

बदलाव आया भी है, जिस साहित्य को त्याज्य माना जाता था आज अपनी स्वतंत्रता में सब जगह शामिल हुआ है एवं उसे मान्यता मिली है. इतना सब होते हुए भी दलित लेखन अपने मूलगामी स्थिति में, अपनी नियति में यथार्थवादी राजतंत्रीय लेखन के भंवर में ही होता है. और कबीलाई युद्ध संरचना से बहुत भिन्न नहीं होता. यहां अधारभूत मानवीय संरचना के वर्ग की आवश्यकता बनती है. रही मार्क्सवाद की बात तो वह तो शुरू से ही इतना वैज्ञानिक, तार्किक एवं दूरदृष्टि सम्पन्न विचारधारा है जो राजतंत्र-पूंजीतंत्र के इतने लंबे विकास इतिहास के बावजूद ठीक उसी के समान्तर, उसी के बराबर सर्वहारा का एक स्वतंत्र संसार रचता है.

इतिहास मार्क्सवाद का भले ही छोटा हो परन्तु पूरी तरह अपने आप में राजतंत्र एवं पूंजीतंत्र से स्वतंत्र है. राजतंत्र-पूंजीतंत्र नियंत्रक रहें हैं. मार्क्सवाद इसी जगह पर सर्वहारा को लाना चाहता है. अपने पूरे विचार में पारदर्शी मानवीय संसार की रचना मार्क्सवाद में ही है, जो अपनी उपादेयता में सर्वप्रथम सबसे महत्वपूर्ण प्रगतिगामी लोककल्याणकारी भावनाओं के साथ राजतंत्र एवं पूंजीतंत्र की क्रूरता पर रोक लगाता है एवं उन्हें नियंत्रित करता है.

हमारे अनुभव अच्छे हों चाहे बुरे हों वे सभी हमारी धरोहर हैं. हमारी संपत्ति है. अनुभव चाहे युद्ध के हों या धर्म के हों. परन्तु उदयप्रकाश कहते हैं – संस्थाखोर अघ्यापकों का बस चले तो वे संगीत से दिगम्बर विष्णु, पलुस्कर, कुमार गंधर्व, अलाउद्दीनखां, अमीर खां, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर अथवा डागर बंधुओं को साम्प्रदायिक कहकर बाहर निकाल फेंकेंगे.’ यह उनकी बात कुछ जमीं नहीं. जिन्हें वे संस्थाखोर कहते हैं, उनकी तरफ से तो इन लोगों के बारे में ऐसी कोई बात आयी नहीं जबकि ठीक इसके विपरित अभी कुछ समय पहले धर्मवादियों की ओर से शायद बिसमिल्लाखान के संबंध में जरूर कुछ इस तरह की टिप्पणी आई थी, जिन्हे वे संस्थाखोर कहते हैं. उनकी तरफ से इस संबंध में जब कभी कुछ कहा नहीं गया तो इस तरह का भय खड़े करने के पीछे क्या कारण है ? कहीं ऐसा तो नहीं की नजर कहीं और तीर कहीं !

हमारी संस्कृतियां, चाहे वे जैसी भी रही हों उसके प्रति का चरम अनुराग संगीत में है. चाहे वह आवश्यकता से अधिक विलासिता की भव्यता हो! यह राजतंत्र स्पेस से भले ही कुछ बाहर हों परन्तु कलात्मकता की उस भव्यता में उसका फायदा तो राजतंत्र को ही मिलता है. हमारे उस समय की या इस समय की चरम लाक्षणिकतायें क्या रही है यह संगीत से पता तो चलता ही है. यह हमारे मनोरंजन के लिए ही नहीं विश्लेषण के लिए भी जरूरी है. जब इनका विरोध, जिन्हें वे संस्थाखोर कहते है, उनकी तरफ से नहीं आया तो फिर इस कथन का क्या औचित्य है ? वे अनावश्यक भय खड़ा कर लोगों को क्यों डराना चाहते हैं, यह समझने की बात है.

आखेट युग से अभी तक के विकास में समाज की भावनाओं का प्रगटीकरण का तरीका राजतंत्र से ही निश्चित हुआ है. यही नहीं समाज के संघर्ष-असंतोष का प्रगटीकरण भी राजतंत्र ने अपने बाड़े में सुरक्षित रखा है. इससे हटकर सर्वहारा के अपने कथ्य का, अपनी भावनाओं का स्वतंत्र रूप से प्रगटीकरण हुआ है तो वह स्पार्टकस या उस जैसे लोगों या फिर पूरी तरह से मार्क्सवाद में है, जिसमें जनता ही पूरी तरह केन्द्रित रही है. इस तरह मिथ्यों से बाहर, राजतंत्र से बाहर, अगर कहीं सर्वहारा की अपनी सही पहचान उभरती है तो मार्क्सवाद में ही उभरती है.

सर्वहारा की भावनाओं के सुख-दुःख का प्रगटीकरण, रिश्तों का प्रगटीकरण या इससे अलग किस्म के समाजिक भावनाओं का विवेचन मार्क्सवाद है तो जरूर परन्तु मार्क्सवादी तरीके में उन भावनाओं का प्रगटीकरण एवं प्रदर्शन अभी भी सर्वहारा में राजतंत्र से मुक्त स्वतंत्र रूप से नहीं है. इन भावनाओं का प्रगटीकरण अभी भी राजतंत्रीय संस्कारों में ही है. अस्पष्टता के कारण अपनी भावनाओं का प्रगटीकरण सर्वहारा राजतंत्र के संस्कारों में ही करने के लिए बाध्य है.

राजतंत्रीय संस्कार में भावनाओं का प्रदर्शन सर्वहारा को बहुत भारी पड़ता है. राजतंत्र-पूंजीतंत्र के लोग संस्कारों का जब प्रदर्शन करते हैं तो उसमें एक राजनीति, एक लाभ, एक व्यापार छिपा होता है. उनके संस्कारों के प्रदर्शन में अक्सर ऐसे लोग आपस में आते-जाते हैं जो एक दूसरे को आपस में लाभ पहुंचाने की स्थिति में होते हैं. इस तरह वे इसमें सत्ता और अर्थ में नाम और लाभ कमाते हैं. अभी कुछ समय पूर्व सहारा श्री के यहां शादी हुई थी.

समाचार साप्ताहिक ‘सहारा समय’ में एक परिशिष्ट ही था जिसमें शादी में आये विशिष्ट मेहमानों के सहारा श्री के साथ चित्रों की भरमार थी, जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों के अतिविशिष्ट लोग आये थे. ऐसा कौन सा क्षेत्र था जिसके लोग न आये हों. नेता, अभिनेता, खिलाड़ी, व्यापारी, नौकरशाह और सब ऐसे ही लोग. अब यह शादी न हुई, शादी का उत्सव नहीं हुआ एक व्यापार हुआ. एक सशक्त संगठन हुआ जो पर्दे के पीछे सत्ता और अर्थ पर आपस में मिलकर दखल का, सत्ता और अर्थ जगत से अपने लाभ का रास्ता तलाशने का एक संगठन हुआ.

समय गवाह है राजा-महाराजा और कुलीनों के वैवाहिक संबंधों में, उनके रिश्तों में, निजी लाभ-हानि उनके केन्द्र में रहें हैं. चाहे धार्मिक या सामाजिक आयोजन हो, चाहे सुख-दुःख या उल्लास का प्रदर्शन हो, उसमें उनका व्यापारिक हित सुरक्षित रहा है. इन प्रदर्शन से खुशी हासिल करना उनका लक्ष्य कभी नहीं रहा है. खुशी के लिए रंगमहल, पांच सितारा होटल, गेस्ट हाऊस, दरबार, शिकारगाह, रात्रिभोज और इसी तरह की व्यवस्थाएं रही है जहां वे अपने सुख दुःख का सहचर्य प्राप्त करते हैं.

इस तरह इनकी भावनाओं का प्रदर्शन संस्कारों की जगह और अन्य जगह होता है. जनता बेचारी क्या करे. वह तो उन्हीं राजतंत्रीय संस्कारों में अपने सुख-दुःख, अपना उल्लास एवं अपने समस्त मानवीय भावनाओं का प्रदर्शन करने के लिए अभिशप्त है. उसका जन्मदिन हो, शादी का दिन हो या मरण दिन हो, वह बेचारी इन संस्कारों से क्या व्यापार करेगी ! उसके इन संस्कारों में उसके जैसे लोग ही आयेंगे जो एक दूसरे को फायदा पहुंचाने की स्थिति में नहीं होते. उसे तो इन संस्कारों से सिर्फ गंवाना ही गंवाना पड़ता है.

इस तरह से राजतंत्रीय संस्कारों में भावनाओं के प्रगटीकरण में उच्च वर्ग, उच्च मध्य वर्ग, मध्यवर्ग तो अपना एक व्यापार ही करता है जबकि सर्वहारा इसमें लुटता ही लुटता है. या यूं कहें राजतंत्र ने जो भावनाओं के प्रगटीकरण का संसार जनता के लिए बनाया है उसमें जनता की परतंत्रता सुनिश्चित की है इसलिए यह आवश्यक है कि जनता समय समय पर जो भावनाओं का प्रगटीकरण करती है, खुशियों को आपस में बांटती है, दुःखों में एक दूसरे को ढाढस बंधाती है, उन सभी जगहों पर राजतंत्रीय संस्कारों से मुक्त भावनाओं के प्रगटीकरण प्रदर्शन का भी एक पृथक स्वतंत्र संसार रचना होगा.

लोक भाषा साहित्य की चिंता, उसके संरक्षण में उदयप्रकाश को यह याद आता है – ‘भारतीय राजाओं द्वारा अपने पुत्रों को शिक्षा के लिए जंगली ऋषि-मुनियों के पास भेजा जाता था. वेद और वैदिक साहित्य पाठ की भी यही परपंरा थी.’ तब तो कहना ही पड़ेगा वहां लोक भाषा साहित्य की कैसी चिन्ता रही होगी ! जहां राजतंत्र का भाषा-पाठ राजकाज का मंत्र शिक्षा के केन्द्र में रहे हो, वहां लोक भाषा साहित्य कैसे रह सकेगा ? लोक भाषा साहित्य को राजशाही भाषा साहित्य के साथ जोड़कर यह कहना कि उनकी चिन्ता मौखिक लोक भाषा साहित्य को लेकर है, बात कहीं से नहीं जमती. अगर बिना राजशाही के उद्धरण से यह बात आई होती तो वह अलग बात थी. परन्तु जब इस तरह आयी है तो निश्चित ही कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है. दरअसल वे राजशाही के भीतर ही लोकशाही खोजते हैं.

उदयप्रकाश कहते हैं – ‘प्राचीन और मध्य युगों में धर्म की भूमिका क्रांतिकारी रही है.’ ‘धर्म के अन्तर्विरोधों के बीच से ही उसकी समाजिक जड़ता और उसके अमानवीयकरण तथा सांस्थानीकरण के विरूद्ध विद्रोह फूटते रहे.’ ‘धर्म की किसी प्रशाखा ने ही सक्षम विद्रोह किया.’ यह सही भी है यज्ञ, पशुबलि, नरबलि, पौरोहित्य और कर्मकाण्ड हिंसा के समस्त रूपों का बुद्ध और महावीर दोनों ने ही विरोध किया.’ यह बात भी ठीक है परन्तु इसके बावजुद भी कुछ हद तक वे परिवर्तनगामी के बजाय सुधारवादी ही है. वैसे भी धर्म का जवाब धर्म नहीं हो सकता. जब धर्म का जवाब धर्म होता है तो नये धर्म में फिर पुराने धर्म की वही बातें घूम-फिरकर आ जाती है. जैन और बुद्ध भी अब भगवान हैं.

प्रेमचंद ने बहुत पहले अपने एक निबंध ‘साहित्य की महत्ता’ में धर्म के प्रति कहा था- ‘आजमाये को आजमाया जाना मुर्खता है.’ पर वाह रे राजतंत्र ! जो सनातन धर्म था इसके पाखण्डों को तोड़कर जब बौद्ध धर्म का पूरे देश में वर्चस्व हुआ तो अवसर आने पर बौद्ध धर्म का दमन कर फिर अपनी पताका फहराई. सामान्य रूप में उन्होंने बौद्धों को ईश्वर की संतान की तरह भले ही न स्वीकारे हों परन्तु गौतम बुद्ध को कलियुग के ईश्वर का अवतार जरूर मान लिया.

अब एक बात और. राजतंत्रीय-पूंजीतंत्रीय वर्ग ने मार्क्सवाद के संबंध में सर्वहारा के बीच एक और बात प्रचार किया कि यह मार्क्सवाद तो विदेशी है, स्वदेशी नहीं है. पूरे नियोजित तरीके से लगातार घृणा का भाव मार्क्सवाद के विरूद्ध लोगों में भरा जाता रहा है. शायद अस्पष्ट सर्वहारा जिसे अपनी पहचान खुद ही मालूम नहीं है, उसके भीतर मार्क्सवाद के विदेशी होने का बोध कहीं न कहीं काम कर ही जाता है. यह अलग बात है जब अंग्रेज यहां व्यापार को आए तो उनको सगे संबंधी ही सम्बन्ध बताते थे. उनसे संधि वे ही करते थे. अपना पूरा बाजार देते थे. जब उन्हीं के अन्तर्विरोधों से अंग्रेज शासक बन गये तो बाकायदा उनसे उपाधियां भी लेते थे एवं जनता के दमन में उनका सहयोग भी करते थे. यह अलग बात है कि देर-सबेर फिर स्वतंत्रता की चाहत बनी. स्वतंत्रता मिली लेकिन किसको मिली और किसको नहीं मिली ! सुधारवादी प्रक्रिया से कोई विरोध नहीं है परन्तु वह मूलगामी होनी चाहिए.

उदयप्रकाश का साक्षात्कार पत्रिका ‘साक्षात्कार’ के अंक 291-292 में पढ़ते हुए जो अनुभूति हुई विचलन विचारों में आया उससे ऐसा लगता है जैसा दुनिया में जितनी भी बुराई है, सब मार्क्सवाद के कारण है. कांग्रेसी उसमें सहयोगी हैं. जितना बड़ा संकट सभी के लिए अमेरिका है उससे भी बड़ा संकट मार्क्सवादियों के कारण है. उनके ही आचरणों के कारण है. अपनी बातों को सिद्ध करने के लिए जितने उपकरणों एवं आख्यानों का उपयोग उनके द्वारा किया गया है उससे ऐसा ही लगता है. ऐसा लगता है कि यह भी मार्क्सवाद को संदिग्ध बनाने की दिशा में एक कार्य है. और फीलगुड को पक्का बनाकर देश की परिस्थितियों की धारा में अपनी सर्वस्वीकारोक्ति बनाये रखना है. उनकी ईश्वर की आस्था से भी ऐसा ही लगता है कि वह बाजार का एक हिस्सा है. ईश्वरवाद के बहाने अपने को व्यापक बाजार के बीच रखना है.

अपने साक्षात्कार में वे एकाधिक बार ईश्वर की आस्था की बात करते हैं. हम कब कहते हैं ईश्वर पर आस्था, भरोसा नहीं होना चाहिए. उदयप्रकाश को भी होना चाहिए. हमें भी होना चाहिए और इसीलिए गर्व भी होना चाहिए ही. परन्तु इसमें मेरे गांव का एक व्यक्ति अपना घर बार छोड़कर आसाराम बापू का आश्रमी होकर एक बिना पैसे का श्रम सेवक हो गया. इसे बंधुवा मजदूरी का ही एक रूप समझना चाहिए. कोई अपनी पत्नी को छोड़कर, कोई अपने परिवार को छोड़कर, तो कोई अपनी खेती छोड़कर श्रम सेवक बने. हमें क्या, हम तो उदयप्रकाश को अच्छे कवि, अच्छे कहानीकार के रूप में जानते हैं. उन्होंने कविता की दिशा बदली, कहानी की दिशा बदली एवं इस पूरी धारा पर बदलाव के एक अग्रगामी बने.

मै समझता हूं ईश्वर को हर अपराध क्षम्य है. राम छिपकर बाली का संहार करता है, जिस तरह ईराक में पिठ्ठू सरकार अमेरिका बैठाता है उसी तरह सुग्रीव को भी बैठाया जाता है. आगे चलकर सुग्रीव मित्र राष्ट्र हो जाता है. पिठ्ठू सरकर को जनता कभी पसंद नहीं करती जिसके कारण जनता पिठ्ठू सरकार के चंगुल में फंसती है, वही पिठ्ठू सरकार का मुखिया हो जाता है. लेकिन वह जनता के बीच घृणा के पात्र होता है. जब राम ने विभीषण की मदद से उसकी मुखबिरी से रावण का वध कर उसे अपना प्रतिनिधि बनाकर लंका के राजसिंहासन पर एक पिठ्ठू सरकार के रूप में उसको मनोनित किया तो लंका की जनता ने विभीषण को दिल से कभी नहीं स्वीकारा एवं उसके प्रति पूरी जनता का घृणा भाव रहा. विभीषण ताउम्र इससे पीड़ित रहा.

पुरस्कृत नाटक ‘कापुरूष’ का विवरण इसमें उल्लेखनीय है. दूर ही क्यों जाएं जनता के बीच यह लोकोक्ति प्रचलित है ही ‘घर का भेदी लंका ढाये.’ जब लोग अपनों से धोखा खाते हैं या अपनों की मुखबिरी से ऐसा कुछ होता है या उसकी संभावना होती है तो ऐसे में घृणा या सावधानीस्वरूप लोगों के मुंह से यह उक्ति निकलती है ‘घर का भेदी लंका ढाये.’ कितनी तीव्र घृणा का भाव इस लोकाक्ति में है ! यह तो जन जन में व्याप्त है. परन्तु जब परलौकिक ईश्वर की बात चलती है तो नजरिया कुछ अलग हो जाता है. फिर भी दैनन्दिन जीवन में अपने व्यवहारिक जीवन में जनता विभीषण को उसी लोकोक्ति में पाती है जिसका वह उच्चारण करती है.

अब अमेरिका तो ईश्वर है. धर्म की रक्षा का भार उसी पर है. ईराक में जन संहारक हथियारों का जखीरा है. मानव अधिकार का उल्लंघन हो रहा है. इससे ईराक को बचाना उसका परम कर्तव्य है और उसने अपना ईश्वरीय दायित्व पूरा किया भी. अब ईराक में स्वतंत्रता है. मनमाफिक उसकी सरकार होगी. तेल भी उसका होगा. ईराकवासियों की अब अपनी सरकार होगी ! अब वह दुनिया का ईश्वर मर्यादा की स्थापना कर रहा है !

साक्षात्कार में उदयप्रकाश सार्वजनिक पूंजी की असफलताओं को प्रस्तुत करते हुए उसके विरोध में नजर आते हैं जबकि निजी पूंजी के चरित्र को दिखाते हुए उदारता बरतते हैं. अब निजी पूंजी का तो वर्चस्व हो ही गया है. अब तो अमेरिका, विश्व बैंक, बिलगेट्स ही अर्थव्यवस्था है. सरकारी/गैर सरकारी पूजीं की प्रासंगिकता की बात अब अर्थहीन हो गयी है, इससे क्या ध्वनित होता है. अवारा पूंजी ही अब विश्व संसार है ? अर्थनीति है. अब भाग्य को कोसने से कुछ नहीं होगा. मार्क्सवादियों के राज्यों की सार्वजनिक पूंजी ने ही कौन सा कमाल किया है, उसमें भी तुम्हारा भाग्य बहुत-बहुत खराब रहा है. उनके द्वारा ऐसा कहने से लगता है कि निजी पूंजी को तो अभी आजमाया ही नहीं गया. जब आ ही गयी है तो उसे स्वीकारो !

उदयप्रकाश जी के सक्षात्कार में उनके द्वारा बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि कारपोरेट पूंजी पर बैठे साहित्यकार संस्थापीठों में, प्रतिष्ठानों में कैसे होते हैं ! आलोचक, समालोचक कैसे होते हैं ! बार-बार यह बात आने से बार-बार इस पर बहुत जोर देकर कहने से यह मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों का तथ्य न होकर उसमें मार्क्सवाद के ध्वंस की आकांक्षा की अनुगूंज सुनाई पड़ती है. उसी तरह कांग्रेस के बारे में कहते हैं कि ‘आज का ज्यादा प्रगतिशील लेखन अगर गम्भीरता से देखें तो वह पब्लिक सेक्टर की सांस्कृतिक मैनुफेक्चरिंग ही है, कांग्रेस की राजनीति का बायप्रोडक्ट.’ इस तरह वे प्रगतिशील लेखन को शासकीय लेखन करार देते हैं तथा उसे अपनी उपादेयता के केन्द्र बिन्दु से हटाते हैं.

उदयप्रकाश इस साक्षात्कार में सार्वजनिक उपक्रमों की असफलता, मार्क्सवादी राज्यों एवं मार्क्सवादी साहित्यकारों के अंतर्विरोधों को खोलते हैं. खोलते क्या हैं, बार-बार उन पर बरसते हैं. कांग्रेस को भी गरियाते हैं. वहीं पर वे राजतंत्र एवं दक्षिणपंथ पर कहीं कुछ खास नहीं कहते हैं. इसके भला क्या अर्थ हो सकते हैं !

सार्वजनिक पूंजी के संबंध में वे एक बात और कहते हैं – सार्वजनिक पूंजी निजी पूंजी का कोई विकल्प नहीं है. इन सबसे अलग ही कोई विकल्प होने पर कुछ हो सकता है, पर वे पूरे साक्षात्कार में कहीं भी कोई इशारा नहीं कर पाते हैं कि आखिर वह तीसरा विकल्प क्या हो सकता है ? जबकि मानव सभ्यता के प्रादुर्भाव से अभी तक का विकास हमारे सामने हैं. तीसरे विकल्प पर कुछ प्रकाश तो होना ही था, जो नहीं है.

मानवतावाद मिथकीय संसार ईश्वरीय दर्शनन सैद्धान्तिकी से अलग व्यवहारिकता में राजतंत्र के नियंत्रण में एक वैचारिकी है, जिसमें कुछ खास वर्गों के हित सुरक्षित होते हैं, जिनका स्पष्टतः लक्ष्य है सत्ता और अर्थ पर अपना कब्जा. उस पर अपनी भौतिकता का दबदबा और ऐश्वर्यता को बरकरार रखना है. जिस तरह की अब मानवाधिकार अमेरिका के पास है और इस आधार पर ईराक को सबसे बड़ा संकट बताकर उसे तहस-नहस करता है. क्रूरता की चरम सीमाओं को लांघता है लेकिन व्यवहार में तो ईराक के तेल के कुएं ही हैं. उसी तरह यहां वर्चस्ववादी संस्कृति का मानवतावाद है जो सैद्धान्तिकी एवं व्यवहारिकी में बिलकुल ही अलग-अलग हैं.

ईश्वरवाद का मामला वैयक्तिक मामला है. इस पर ऊंगली उठाना पूरी तरह गलत होगा. परन्तु वही बात तब संदिग्ध हो जाती है जब वह तथ्य न होकर और किसी ढंग से आये. उदयप्रकाश जी अपनी आस्था यदि तथ्यात्मक तौर पर बताना चाहते थे तो एक बार ही ईश्वर पर आस्था जताकर वही बात नहीं कहते. ऐसी स्थिति में उनकी ईश्वरीय आस्था को स्वाभाविकता के रूप में लिया जा सकता था परन्तु आगे जाकर प्रश्नों में फिर कहते हैं – ‘मैं ईश्वर के अब काफी नजदीक जाना चाहता हूं.’

इस तरह एक से अधिक बार ईश्वर की आस्था पर जोर देने से ऐसा लगता है कि इस आस्था को दिखाकर वे किसी को खुश करना चाहते हैं. वैराग्य लेना चाहते हैं. अपनी आस्था मजबूत करना चाहते हैं या ऐसा कर किसी किस्म की कोई प्रतिबद्धता निहितार्थ में दिखाना चाहते हैं. आखिर इसे किस रूप में, कैसे, क्या लिया जाए !

जो विचार, जो आस्थाएं, जो संस्कृति राजतंत्र-पूंजीतंत्र के आश्रय में फलीभूत हुई हों वे सर्वहारा की हित संवर्धक हो ही नहीं सकती. राजतंत्रीय राजाश्रय एवं पूंजीतंत्र में जो चीजें परवान चढ़ती हैं या चढायी जाती हैं वे मूलतः जनता की होती ही नही हैं. यह बात तो बराबर ही आनी चाहिए थी कि उदयप्रकाश द्वारा अगर वामपंथ के अंतर्विरोध बहुत आक्रमक ढंग से रखे गये हैं तो दक्षिणपंथ के आदर्श चरित्र एवं उसके अंतर्विरोध भी उसी आक्रामक ढंग से रखे जाने चाहिए, जिससे पाठक को सही बातें सही तरीके से समझने में मदद मिलती. जनता को अपना तंत्र चुनने में, समझने में मदद मिलती लेकिन अफसोस !

अंत में केवल इतना ही कि संक्रमण काल प्रतिबद्धता बदलने, निष्ठा प्रदरशित करने का स्वर्णिम अवसर होता है.

(करीब अठारह वर्ष पूर्व प्रकाशित आलेख, जो आज भी समीचीन है)

Read Also –

धार्मिक उत्सव : लोकतंत्र के मुखौटे में फासिज्म का हिंसक चेहरा
पेशवाई वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है संघ
‘एकात्म मानववाद’ का ‘डिस्टोपिया’ : राजसत्ता के नकारात्मक विकास की प्रवृत्तियां यानी फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद
नेहरु द्वेष की कुंठा से पीड़ित ‘मारवाड़ी समाजवाद’ ने लोहिया को फासिस्ट तक पहुंचा दिया
स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व बनाम आरएसएस
प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन
भारतीय सिनेमा पर नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रभाव

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…