जगदीश्वर चतुर्वेदी
विचारणीय सवाल यह है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा ने हिन्दू वोट बैंक को कैसे निर्मित किया ? भारत में वोट थे, आम जनता वोट देती थी, लेकिन हिन्दू वोट बैंक जैसी कोई चीज नहीं थी. लेकिन पच्चीस साल के वैचारिक प्रचार के ज़रिए इन संगठनों ने अनुदार हिन्दू राजनीति के आधार पर नए क़िस्म की हिन्दू वोट बैंक राजनीति शुरु की है.
यह राजनीति उदार हिन्दू दर्शन, परंपरा, संस्कृति पर आधारित राजनीति नहीं है. पहले लोग राजनीति के आधार पर वोट देते थे. राजनीतिक दल और नारे के आधार पर वोट देते थे. लेकिन विगत दो लोकसभा चुनाव में यह फिनोमिना देखा गया कि लोग बड़ी संख्या में अनुदार हिंदू राजनीति के आधार पर गोलबंद होकर वोट दे रहे हैं. यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है. इसने हिन्दू बहुसंख्यकवादी राजनीति का श्रीगणेश किया है.
हिन्दुओं के एक वर्ग का वोट में ध्रुवीकरण किया है. अनुदार हिन्दू राजनीति के आधार पर पहले भी वोट मांगे गए थे. एक ज़माने में रामराज्य परिषद और जनसंघ ने यह काम किया लेकिन इन दोनों दलों को कभी सफलता नहीं मिली. इनके अधिकांश उम्मीदवारों की ज़मानतें ज़ब्त हुईं.
रामराज्य परिषद के करपात्री महाराज जैसे नेता मुखिया हुआ करते थे. वे अनुदार सनातन हिन्दू धर्म की मान्यताओं की वकालत करते थे, जनसंघ भी अनुदार सनातन हिन्दू धर्म की मान्यताओं के आधार पर जनता से वोट देने की अपील करता था लेकिन वे कभी सफल न हो सके. लेकिन सन् 1995-96 से एक नया पैटर्न सामने आता है. आम लोगों में नए सिरे से हिन्दुत्व की, आरएसएस की राजनीति की ओर आकर्षण पैदा हुआ है.
सबसे पहला सवाल तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले दलों, ख़ासकर कांग्रेस की नीतियों के बारे में उठा है कि उनकी नीतियों में कहां चूक हुई कि जो काम आरएसएस विगत अस्सी साल में नहीं कर पाया, वह काम उसने विगत बीस साल में कर दिखाया. धर्मनिरपेक्ष राजनीति और नीति के वे कौन से चोर दरवाज़े हैं, जिनके ज़रिए आरएसएस अपनी विचारधारा को आम लोगों के ज़ेहन में उतारने में सफल हो गया ? क़ायदे से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के आलोचनात्मक मूल्यांकन सख़्त जरुरत है.
फ़िलहाल मुख्य सवाल यह है हिन्दू वोट बैंक कैसे बना ? सब लोग जानते हैं आरएसएस समाज में जीवनशैली या जीवन पद्धति के ज़रिए प्रवेश करता है. युवाओं-तरुणों को वे व्यायाम के बहाने आकर्षित करते हैं. व्यायाम के ज़रिए बच्चों-तरुणों को जोड़ने का अर्थ है जीवनशैली के साथ आरएसएस को जोड़ना.
व्यायाम के बहाने संघ के बटुक युवाओं के बीच में जाते हैं, मित्र बनाते हैं और उनको संघ की शाखाओं में ले जाते हैं. वे युवाओं को विचारधारा या हिन्दूधर्म के आधार पर मित्र नहीं बनाते बल्कि आरंभ में वे उनको व्यायाम के बहाने मित्र बनाते हैं. शाखा में ले जाते हैं. उसके सुख-दुख में मदद करते हैं. बाद में उसको अपने वैचारिक जाल में फंसाते हैं.
कहने का आशय यह कि आरएसएस ग़ैर वैचारिक आधार पर युवाओं में मित्रता का निर्माण करता है. जीवन शैली के ज़रिए मित्र संबंध बनाता है. इस मित्रता के बीच में न तो धर्म आता हैं, न हीं विचारधारा आती है और नहीं राजनीतिक आते हैं. यहां सिर्फ अ-राजनीतिक मित्रता और व्यायाम है जो संघ से युवाओं को जोड़ता है.
आरंभ में युवा जब संघ से जुड़ते हैं तो परिवार के लोगों को लगता है लड़का तो व्यायाम करने जाता है, लेकिन वे नहीं जानते कि संघी लोग व्यायाम के बहाने उसे ऐसे जाल में फंसाते हैं जिसमें वे सिर्फ़ व्यायाम नहीं करते बल्कि व्यायाम के बहाने संघ उनकी वैचारिक धुलाई करता है. ब्रेन वाशिंग करता है. लोगों से जुड़ना, व्यायाम के बहाने आकर्षित करना उसका आरंभिक काम है.
इसी तरह जिन दिनों राममंदिर आंदोलन का असर ख़त्म हो गया था, संघ की शाखाओं में कम लोग जाने लगे थे, इलैक्ट्रोनिक मीडिया, खासकर टेलीविजन का आम लोगों पर तेज़ी से असर हो रहा था. बाबा रामदेव जैसे व्यक्ति को टीवी स्क्रीन पर उतारा गया और योग के ज़रिए व्यायाम और योगासन को हिन्दूधर्म के साथ जोड़कर आक्रामक योग प्रचार अभियान शुरु किया और उसके असर में क्रमशः सारा देश आ गया.
बाबा रामदेव ने महर्षि पतंजलि के नज़रिए का प्रचार नहीं किया, उनके सिद्धांतों का प्रचार नहीं किया, उन्होंने योगासन और अनुदार हिन्दूधर्म के अन्तस्संबंध का प्रचार किया. इसने समूह चेतना, गोलबंद होकर रहने, एक ही तरह हिन्दूधर्म के बारे में सोचने की मनोदशा का निर्माण किया. हिन्दू धर्म और योगासन के वैचारिक बैनर तले बड़ी संख्या में लोगों को लामबंद किया.
अनुदार हिन्दू धर्म को लेकर एक नई चेतना पैदा की, इसे हम नव्य हिन्दूवाद और नव्य ब्राह्मणवाद कह सकते हैं. यह नव्य-हिन्दू धर्म है जो व्यायाम के ज़रिए दाखिल होता है. इसने हिन्दू धर्म की नई पहचान और वैचारिक एकीकरण को इलैक्ट्रोनिक-डिजिटल आधार पर निर्मित किया. यह संघ प्रचार के डिजिटलीकरण के नए पैराडाइम की शुरुआत थी. पहले संघ का व्यायाम शाखाओं में था, अब बाबा राम देव के ज़रिए यही व्यायाम टीवी और बाद में इंटरनेट में दाखिल होता है. यह खुला सच है रामदेव के व्यायाम का पतंजलि के योगसूत्र से कोई संबंध नहीं है. व्यायाम बहाना है संघ को सत्ता में लाना है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आरएसएस ने हिन्दूधर्म-दर्शन आदि के प्रचार पर कोई काम नहीं किया, उसके प्रचारक-सरसंघचालक हिन्दू धर्म या संस्कृति के बारे में बातें नहीं करते. क्योंकि वे जानते ही नहीं हैं. वे उससे जुड़े सवालों पर न तो बोलते हैं और न हीं लिखते हैं. यहां तक कि उनके अख़बार-पत्रिकाओं में भी हिन्दू धर्म-दर्शन का प्रचार-प्रसार नहीं मिलेगा.
जबकि संघ एक सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करता है. हिन्दू संगठन होने का दावा करता है लेकिन उसके सभी नेताओं के 99 फीसदी से अधिक भाषण गैर-हिन्दू धर्म के विषयों और सम-सामयिक राजनीतिक सवालों पर केन्द्रित होते हैं. वे राजनीति में भाग लेते हैं. उनके सदस्य चुनाव लड़ते हैं. विभिन्न सरकारी पदों पर चुनकर जाते हैं. मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तक उनके सदस्य हैं. इससे यह बात सिद्ध होती है कि आरएसएस सांस्कृतिक संगठन नहीं बल्कि राजनीतिक संगठन है.
जिस तरह संघ ने हिन्दूधर्म-दर्शन के प्रचार पर कम से कम समय खर्च किया, ठीक उसी तरह बाबा रामदेव ने ऋषि पतंजलि के नज़रिए और दार्शनिक दृष्टिकोण पर कोई चर्चा ही नहीं की और योगासन और हिन्दूधर्म की राजनीति का श्रीगणेश किया. दोनों (संघ-बाबा) कहते हैं उनका वोट की राजनीति से कोई संबंध नहीं है लेकिन दोनों खुलेआम भाजपा और मोदी के लिए वोट मांगते हैं. दोनों ही अ-राजनीतिक होने का दावा करते हैं जबकि असलियत यह नहीं है.
अ-राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन होने का उसका दावा तो सिर्फ़ मुखौटा है, असल में वे राजनीति करते हैं क्योंकि उनके संगठन के सर संघ चालक और दूसरे नेता हमेशा राजनीतिक विषयों पर बोलते और लिखते हैं. उन्होंने अ-राजनीतिक विषयों पर कभी कोई भाषण नहीं दिया. मसलन वे कभी सत्यनारायण की कथा पर नहीं बोलते, गीता पर नहीं बोलते, वे जब भी बोलते हैं तो सम-सामयिक राजनीतिक विषयों पर बोलते हैं. इसके बहाने वे राजनीतिक हस्तक्षेप करते हैं.
आरएसएस जब व्यक्ति के अंदर दाखिल होता है तो जीवनशैली के रुप में दाखिल होता है. आदत की तरह दाखिल होता है. हिन्दू राष्ट्रवाद जब आपके अंदर दाखिल होता है तो आदत के रुप में दाखिल होता है. हिन्दू राष्ट्रवाद एक आदत और संस्कार है. जब कोई चीज आदत के रुप में दाखिल होती है तो वह आसानी से जाती नहीं है. कोई नई आदत बनती है तो वह पुरानी आदत को ख़त्म करके बनती है.
हिन्दू राष्ट्रवाद की आदत ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के विचारों की आदत को हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से के मन में ख़त्म कर दिया और मानसिक तौर पर कट्टरतावादी हिन्दुत्व को आदत के रुप में, एक नॉर्मल रुटिन विचार के रुप में विकसित करने में सफलता हासिल कर ली और इसने हिन्दू वोटबैंक का वैचारिक आधार बनाने में मदद की.
उत्तर प्रदेश आरएसएस के हिंदू वोट बैंक और हिन्दू तुष्टिकरण की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है. आरएसएस ने हिंदू बैंक को कैसे निर्मित किया ? किन उपकरणों का इस्तेमाल किया ? इस काम में किन समुदायों और राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल किया ? इस प्रक्रिया को क़ायदे से खोलने और उस पर सार्वजनिक बहस करने की जरूरत है. मीडिया और राजनीतिक दल हिंदू वोट बैंक बनाने की प्रक्रिया पर खुलकर बहस करें और जनता को शिक्षित करें, तब ही सही मायने में हिंदू वोट बैंक की राजनीति को तोड़ने के विकल्पों पर सार्वजनिक बहस होगी.
आरएसएस ने हिंदू वोट बैंक बनाने के लिए ब्रेन वाशिंग (दिमाग़ी धुलाई) की पद्धति का व्यापक स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं से लेकर समर्थकों तक, मीडिया से लेकर साइबर मीडिया तक, राममंदिर आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक जमकर इस्तेमाल किया है. नरेन्द्र मोदी को सत्तारुढ़ करने के पहले इस प्रक्रिया में जिन तत्वों का वैचारिक प्रयोग किया गया उनके बारे में आम जनता को शिक्षित करने की जरुरत है.
दिमाग़ी धुलाई और नियंत्रण ये दोनों अंतर्गृथित हैं. यह कला पहले धर्म में थी लेकिन आरएसएस ने इसे राजनीतिक ध्रुवीकरण का अंग बनाया. इसके आधार पर धर्म और राजनीति का गठजोड़ बनाया. वहीं दूसरी ओर धर्म के दिमाग़ी धुलाई और नियंत्रण की पद्धति और अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए और चीन के माओ की दिमाग़ी धुलाई की पद्धति के सम्मिश्रण से एक ऐसा वैचारिक रसायन निर्मित किया, जिसने हिंदू वोट बैंक राजनीति की नींव रखी. हिंदू वोट बैंक निर्मित किया. उसके आधार पर हिन्दू बहुसंख्यकवाद की राजनीति का मॉडल बनाकर जमकर प्रचार किया. नरेन्द्र मोदी इसी मॉडल की देन हैं. इस पद्धति का सबसे पहले गुजरात में इस्तेमाल किया. बाद में सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में उसके आधार पर राष्ट्रीय मुहिम चलायी गई.
उल्लेखनीय है अटल बिहारी वाजपेयी के दौर पर में हिंदू वोट बैंक पद्धति का आरएसएस ने सीमित इस्तेमाल किया, क्योंकि उसमें वाजपेयी की इमेज सबसे बड़ी बाधा थी लेकिन नरेन्द्र मोदी की इमेज हिंदू वोट बैंक के लिए एकदम सही है. उनको व्यवहार और विचार दोनों ही स्तरों पर उदारतावाद और संवैधानिक मूल्यों से परहेज़ है. जबकि अटलजी सिद्धांततः संघ के विचारों को मानते थे लेकिन आचरण में अनुदार न होकर उदारतावादी थे.
आरएसएस ने मोदी दौर में हिन्दू ब्रेन वाशिंग करते हुए मंत्र दिया – सत्ता के लिए हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करो, सत्ता का अनुकरण करो. रीति-रिवाज, रिचुअल्स, तीज-त्यौहार, व्रत-पर्व आदि पर ज़ोर दो. भक्ति आंदोलन और उन्नीसवीं सदी के धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों ने जिन मूल्यों का विरोध किया, जिन संस्कारों-रिवाजों का विरोध किया उनको पुनर्स्थापित करने पर ज़ोर दिया.
समानता की बजाय छोटे-बड़े के भेद पर जोर दिया. राजनीति में संविधान की बजाय धर्म के हस्तक्षेप को प्रमुखता दी. हि्दूधर्म की कट्टर मान्यताओं को जनप्रिय बनाया. लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर आस्था की बजाय धर्म पर विश्वास करो, का नारा दिया. विज्ञान और वैज्ञानिक सलाहों की बजाय पंडित-ज्योतिषी-महंत-संतों की सलाह मानने पर ज़ोर दिया. इस सबने मिलकर भारत में अनुदार सामाजिक परिवेश की सृष्टि और हिन्दू वोट बैंक बनाने में मदद की.
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