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पुलिस की ‘प्रतिष्ठा’

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दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने क्षोभ व्यक्त किया है कि ‘कुछ लोग उसकी छवि ख़राब करने के लिए सोशल मीडिया पर भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं जबकि दिल्ली पुलिस फ़रवरी दंगों की निष्पक्ष जांंच कर रही है.’

कल पूर्व जेएनयू छात्र उमर ख़ालिद की गिरफ़्तारी की व्यापक आलोचना को पुलिस आयुक्त अस्वीकार करते हैं और दंगों के लिए नागरिकता क़ानून के विरोधियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनके अनुसार प्रदर्शन के दौरान सड़क जाम करना दंगों की तैयारी का पहला षड्यंत्र था. फिर प्रदर्शनकारियों को भड़काना सीधे दंगों की आग लगाने के समान था.

उमर ख़ालिद के ख़िलाफ़ ‘सबूत’ भी है—उसने एक भाषण में सरकार की आलोचना की ! मज़ेदार बात यह है कि अमरावती में उमर ख़ालिद के भाषण से दिल्ली के दंगे शुरू हो गये, जबकि प्रदर्शन स्थल पर ‘गोली मारो सालों को’ नारा लगाने से दंगों के किसी संबंध का ‘सबूत’ नहीं मिला है ! अब बताइए, कितनी निष्पक्ष जांंच है ! है कि नहीं ??

और तो और, सचमुच गोली चलाते हुए ‘ग़द्दारों’ को सबक़ सिखाने पहुंंच गए उत्साहियों से भी दंगों का कोई संबंध पुलिस को नहीं दिखाई दिया बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा दंगा भड़काने के ‘सबूत’ पुलिस ने खोज निकाला ! तभी तो माकपा महासचिव सीताराम यचूरी, स्वराज अभियान के नेता योगेन्द्र यादव, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, जेएनयू की अर्थशारत्र प्रोफ़ेसर जयती घोष आदि के ख़िलाफ़ ‘पर्याप्त’ सबूत मिल गए हैं, जिसके आधार पर उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर कर दी गयी है. फिर भी पुलिस आयुक्त को लगता है कि लोग छवि ख़राब कर रहे हैं !!

आख़िर कुछ तो कारण है कि अनेक पूर्व पुलिस अधिकारियों ने सामूहिक तौर पर मांंग की है कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांंच में निष्पक्षता से काम ले.

एक बात और. दिल्ली पुलिस अपने कारणों से संदिग्ध बन रही है लेकिन जिस प्रेरणा से वह ऐसा कर रही है, वही प्रेरणाएंं मुंबई पुलिस की छवि ध्वस्त करने में पूरे उत्साह से लगे हुए हैं. क्या पुलिस-पुलिस में राजनीतिक आधार पर अंतर किया जाना चाहिए ? क्या ऐसा करना राष्ट्रीय और प्रशासनिक दृष्टि से उचित है ?

बात इसलिए उठती है कि दिल्ली पुलिस जिस केंद्र की देखरेख में काम करती है, उसी राजनीतिक नेतृत्व में यूपी पुलिस काम करती है और यूपी पुलिस ने भी पक्षपात के मामलों में कम यश नहीं कमाया है. यहांं तक कि पीछे कुछ घटनाओं में अपराधियों को संरक्षण देने और सूचनाएंं पहुंंचाने में भी पुलिस के लिप्त होने की बातें बराबर उठती रही हैं.

यानी, आप सत्ता में बैठकर मनमाने तरीक़े से पुलिस और प्रशासन का इस्तेमाल करेंगे और सवाल उठने पर देशद्रोह के आरोप लगाकर असहमत लोगों को जेल भेज देंगे, फिर भी कोई चूंं तक न करे ! यह निरंकुश तानाशाही की ओर बढ़ने का संकेत नहीं तो क्या है ?

मुझे पता है कि इस तरह की टिप्पणी मेरे ख़िलाफ़ इस्तेमाल की जा सकती है. बहुत-से सत्ता-विरोधी ज्ञानी भी निरंकुशता का विरोध छोड़कर पूरे धार्मिक जोश के साथ मेरा विरोध करेंगे लेकिन क्या इस कारण सच न बोला जाय ?

वहीं, वरिष्ठ आईपीएस जूलियो रिबेरो की दिल्ली पुलिस कमिश्नर को चिट्ठी लिखे हैं. दरअसल, दिल्ली दंगों की तफ्तीश, अब तक दंगों की तफ़्तीशों में सबसे विवादित तफतीश बनती जा रही है. अदालत की अनेक टिप्पणियां पुलिस थियरी के बिल्कुल प्रतिकूल हैं. सेवानिवृत्त आईपीएस अफसर और गुजरात तथा पंजाब के डीजीपी रह चुके, जूलियो रिबेरो ने दिल्ली दंगों से संबंधित मामलों की जांच पर सवाल उठाते हुए दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव को एक पत्र लिखा है. उनके पत्र का पूरा पाठ इस प्रकार है –

प्रिय श्री श्रीवास्तव,

यह पत्र मैं आपको भारी मन से लिख रहा हूं. एक सच्चे देशभक्त और भारतीय पुलिस सेवा के एक पूर्व गौरवशाली सदस्य के रूप में मैं आपसे अपील करता हूं कि उन 753 प्राथमिकियों में निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करें, जो शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पंजीकृत हैं, और जिन्हें स्वाभाविक तौर पर यह आशंका है कि अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ व्याप्त पूर्वाग्रह और घृणा के कारण उन्हें इंसाफ नहीं मिलेगा.

दिल्ली पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ तो कार्रवाई किया, लेकिन जानबूझकर उन लोगों के खिलाफ संज्ञेय अपराधों के मामले दर्ज करने में विफल रही जिनके नफ़रत फैलाने वाले भाषणों के कारण उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़क उठे थे. ऐसी स्थिति मेरे जैसे संतुलित तथा अराजनीतिक व्यक्ति को परेशान करती है, कि क्यों न्यायालय के समक्ष कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा पर दोषारोपण नहीं किया गया ? जबकि धर्म के आधार पर भेदभाव का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रही मर्माहत मुस्लिम महिलाओं को महीनों के लिए जेल में डाल दिया गया !

हर्ष मंदर और प्रो. अपूर्वानंद जैसे सच्चे देशभक्तों को आपराधिक मामलों में फंसाने की दिल्ली पुलिस की इतनी भोंडी कोशिश भी चिंता का एक और विषय है. हम, इस देश की पुलिस और भारतीय पुलिस सेवा से आने वाला इसका नेतृत्व, हमारा कर्तव्य और दायित्व है कि हम संविधान और उसके तहत अधिनियमित कानूनों का जाति, पंथ और राजनीतिक संबद्धता के बिना निष्पक्ष रूप से सम्मान करें.

कृपया दिल्ली में अपनी कमान के तहत हुई पुलिस की कार्रवाई का पुनर्मूल्यांकन करें और निर्धारित करें कि क्या उन्होंने सेवा में शामिल होने के समय ली गई शपथ के प्रति वफादारी का निर्वाह किया है ?

सादर,
जूलियो रिबेरो
आईपीएस – 53, एमएएच ( सेवानिवृत्त )

  • अजय तिवारी

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ROHIT SHARMA

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