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जनवादी कवि विनोद शंकर की कविताएं

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पूरा जेठ तप रहा है
लू भी चल रहा है
ऐसे समय में कोई भी नही
निकलना चाहेगा अपने घर से
अगर निकलेगा भी तो
पूरी तैयारी के साथ की
कही धूप न लग जाएं
कही लू न लग जाएं

पर पठारों पर ऐसा नहीं है
जहां भी जंगल है
वहां जंगल दान कर रहा है
इस वर्ष का संचित अपना धन
लुटा रहा है
दोनों हाथों से अपना यौवन

यहां भले ही इसकी कीमत कुछ भी हो
बाहर में बिकेगा दोगुने-चौगुने दामों पर यह रकम
यहां इसी को संग्रह करने की होड़ मची है
पूरा गांव के गांव इसी में लगा है
जितना हो सके महुआ, पियार, तेंदू-पत्ता
बटोरने में जुटा है
जो हमारा सदियों से जन्मसिद्ध अधिकार रहा है

कुछ वर्षों से इसी पर लगी है सरकार की नजर
कि इससे जंगल बर्बाद हो रहा है
वनों का क्षेत्रफल घट रहा है
इसलिए लगा दिया गया है
वन उत्पादों पर प्रतिबंध
वनों के सीमाओं को कर दिया गया है सिल
कि कोई भी वन उत्पाद बाहर न जाने पाएं
भले ही वह जंगल में ही क्यूं न सड़ जाएं !

पर हम इसे ऐसे ही बर्बाद थोड़े न होने देंगे
जितना हो सकेगा अपने आजीविका के लिए
इसका उपयोग करेंगे

इसके लिये सरकार चाहे हमें
जो भी कहे नक्सली या माओवादी
हम अपने अधिकारों के लिए
हमेशा लड़े हैं और लडेंगे
ऐसे कानूनों को हमेशा तोडेंगे
क्योंकि हमें पता है
जंगल हमारा है
और हम जंगल के हैं
तभी तो इस सदी में भी
जंगल में ही रमे है !

गुहार

मेरी मां कहती है
जिस दिन मैं पैदा हुआ
उस दिन बहुत दिनों के बाद
बहुत ज़ोर की बारिश हुई
बहुत दिनों के बाद
हमारे खेतों और जंगलों में हरियाली आई
मेरे जन्म लेने के साथ ही
बहुत सारे पौधों ने भी जन्म लिया
मेरी दादी और चाची ने
मेरे साथ-साथ इन नवजात
पौधों के लिए भी सोहर गाई !

जब मैं अपने छोटे-छोटे कदमों से चलने लगा
अपनी तोतली भाषा में ही
सबसे रिश्ते के अनुसार बोलने लगा
तो मां ने भैया-दीदी, चाचा–चाची
और दादा-दादी के साथ साथ
इन छोटे-छोटे पौधों से भी
मेरा परिचय कराई
कि कौन आम का पौधा है ?
कौन अमरूद का पौधा है ?
और कौन महुआ का पौधा है ?
ये मुझे बताई !
जिनके कोमल पत्तों को छु कर
पतली टहनियों को चूम कर
मुझे उन्हें प्यार करना सिखायी !

यही नहीं वहां स्थित
सारे छोटे-बड़े पेड़ों के बारे में बताई
कि किसे मेरे दादा ने
किसे मेरे परदादा ने है लगाई
जब भी मैं इनके फल खाता
इनके पत्तों और फूलों के साथ खेलता
तो हमेशा महसूस करता
ये सब है मेरे भाई
और कब मैं प्यार से इन्हे
अपना साथी अपना दोस्त
कह कर पुकारने लगा
खुद मुझे समझ नहीं आई !

आज जब इन सब पर है संकट आया
तो हमें लग रहा है कि हम पर है संकट आया
हमारे लिए ये पेड़ नहीं साथी है
हमारे जीवन के लिए
दीपक और बाती है
इन पेड़ों के साथ खड़ा होना
हवा के साथ खड़ा होना है
पानी के साथ खड़ा होना है
मिट्टी के साथ खड़ा होना है
और इन सब के साथ खड़ा होना है
जीवन के साथ खड़ा होना है.

जो समझते हैं
हम सिर्फ अपने जल–जंगल और
जमीन के लिए लड़ रहे हैं
उन्हें हम बता देना चाहते हैं
हम जीवन के लिए लड़ रहे है
जो धरती पर दिन पर दिन
सिमटती जा रही है
विलुप्त होते पशु–पक्षियों से
हमें ऐसा ही लग रहा है.

हम सुन रहे हैं उनकी चीखें
महसूस कर रहे हैं उनका दर्द
जो उसी हवा और पानी को पीकर
मिटते जा रहे हैं
जो उन्हें जीवन देती थी
ऐसे विलुप्त होते जा रहे हैं
जैसे ये धरती उनके रहने लायक
कभी थी ही नहीं !

पर हमने देखा था
उनका आकाश में खूब अटखेलिया करना
हमने देखा था
उनका पानी में जी भर कर मस्ती करना
हमने देखा था
उनका दूर देश से उड़ कर आना
और फिर वापस चला जाना
इसलिए हम से नहीं देखा जा रहा है
उनका इस तरह मरना
हमसे नहीं देखा जा रहा है
हवा का इस तरह बदलना
कि उसमें सांस लेना तक दूभर हो जाय
हमसे नहीं देखा जा रहा है
पानी और मिट्टी में जहर घुलना
कि बंजर हो जाय !

हमारी लड़ाई आज
इन सबकी लड़ाई हो चुकी है
सागर और हिमालय तक ने
गुहार लगाई है
जिसे सुना है हमने
अपने खेतों में काम करते हुए
जंगल में महुआ बिनते हुए
नदी में मछली पकडते हुए !

जनता

जनता को दोष कभी मत दो
गाली तो बिल्कुल भी नहीं
अगर तुम ऐसा करते हो
तो अपनी ही कमजोरियों पर पर्दा डाल रहे होते हो
जितना तुम्हें राजनीतिक सिद्धांत और
विचार जानने का अवसर मिला
उसका एक छोटा सा हिस्सा भी
जनता को मिला होता
तो उन्होंने कब की दुनिया बदल दी होती

जब भी कोई जनता को गाली देता है
तो मुझे लगता है या तो वो मूर्ख है या नासमझ
जिसे जनता के बारे में कुछ भी पता नहीं है

अगर उसे पता होता
तो वह हर पल जनता का ऐहसानमंद होता
और उसके लिए कुछ भी करने के संकल्प से भरा होता
या कुछ न कर पाने के दुःख से दुःखी होता

पर ये कौन लोग है ?
जिनके जीवन में किसी चीज का अभाव नहीं
जिनका घर-आंगन दुनिया भर के
सुख-सुविधाओं से भरा हुआ है
जो सत्ता के नाभीनाल से जुड़े हुएं हैं

जिनका एक ही काम है
जनता को मूर्ख और सत्ता को अपराजय बताना
और खुद को प्रगतिशील दिखलाने के लिये
विचारों से खेलना
और अपने को ऐसे दिखाना जैसे
दुनिया का सारा ज्ञान तो सिर्फ़
इन्हीं के पास है

आज जनता पर खुद से ज्यादा प्यार
और भरोसा करने का समय है
उनके लोहे के दुर्ग में जितनी जल्दी हो सके
शरण ले लेने का समय है
और ऐसा वही कर सकते हैं
जो सच में जनता से प्यार करते हैं
और उनके लिये कुछ भी कुर्बान कर
देने के लिये हमेशा तैयार रहते हैं
जनता भी आज उन्हीं को खोज रही है
जो जनता को मूर्ख और जाहिल नही समझते है !

  • विनोद शंकर

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