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अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएं

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कवि

जब तमाम छल
ढापे तोपें जा रहे भाषा के प्रपंच से
उजागर हुए सत्य पर भी
बरस रहा हो कोहरा
कविता का अलाव क्या कर लेगा

कवि के भीतर है अलाव
वहीं जलेगा
बाकी बोरसी के इर्द गिर्द जो जुटान है
उसके पास पंजे भर रेत है
जिसमें गाड़ी जा सकती है शुतुरमुर्ग की गरदन
सच झूठ के बीच गढ़े किस्सों के छिलके है
आग से भूत भगाने से उपजा बहादुरी का आत्मविश्वास है
जहां से मिल रहा है ताप
उसे कोंचने के लिए सलाखें है

सलाखों को शुक्रिया कहता है कवि
वो हैं तो बनी हुई है
कविता में लपट

लगातार दहकना होता है
तब आता कविता में सत्य का ताप
उसका प्रकाश

लगातार विभाजित होता रहता है कवि
और शेष बचती है राख़
तब हासिल होता है
सत्य जितना छोटा सा भजनफल

गर्भ

एक लड़की रेल की पटरी पर मृत मिली
भीड़ ने कहा प्रेगनेंट होगी
तभी कट कर मर गयी

खुद को बोझ समझे जाने से आजिज हुई लड़कियां
जब भी मरी
पंखे ले लटक कर
जहर की शीशी से
रिजल्ट के अखबारों से
अवसाद की बिमारी से
लोक मान्यता है कि
गर्भ ठहर गया था
प्रेमी फरार हो था
सो मर गयी

लोक को संतोष रहता है
चलो जाते जाते
किसी मर्द के काम आकर मरी
ऊसर हो कर मरी
बंजर नहीं मरी

चाय की नुक्कड़
गांव की चौपाल को लगता है कि
बिना नाजायज हुए मर ही नहीं सकती कोई लड़की
नाजायज प्रेम प्रसंग में मरी लड़की
यह सुनते सोचते ही कैसा तो रस आता है मृत्यु में

कुंवारी लड़की का अंत
और प्रेम प्रसंग का जन्म
दोनों एक साथ उपजते हैं हमारे लोक में

भाषा

मैं अंग्रेज़ी में बतियाकर कमाता हूं
और रचता हूं हिन्दी में कविताएं कहानियां

इस तरह अंग्रेज़ी को लूटकर
घर भर रहा हूं हिन्दी का

मैं अपनी पुरातन लड़ाई लड़ रहा हूं क्राउन से
तुम्हारी भाषा में जय-जयकार सुनता हूं
अपनी भाषा में हाहाकार लिखता हूं

चाहता हूऔ तुम्हारे अक्षरों से प्रेम करूं
पर एक फांस धंसी है मेरे भीतर
जो हिन्दी का कोई हलन्त्य ही निकाल सकता है

काश अपनी भाषा में अपनी रोटी कमा पाता
लूटने में वह संतोष नहीं
जो दुश्मन की रीढ़ तोड़ देने में है

मैं बुद्ध की राह का कवि नहीं हूं
जो रचने और न रचने के बीच का
मध्यम मार्ग चुन ले
तुम्हारे भाव और अपनी भाषा का संकर पैदा करे

मैं अपनी भाषा में
तुम्हारी भाषा के लिए
पिशाच होना चाहता हूं

  • अखिलेश श्रीवास्तव

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