गिरीश मालवीय
प्रधानमंत्री ने लोकसभा में भाषण देते हुए बड़ी चूक की है. आश्चर्यजनक रूप से उनके झूठ की पोल दैनिक भास्कर ने खोली. दरअसल ऐसे झूठ बोलने की आदत उनकी बहुत पुरानी है. उन्हें लगता है कि जनता तो बेवकूफ है उसे क्या पता चलेगा.
मोदी ने आज संसद में किसान आंदोलन पर भाषण देते समय कहा –
… मैं हैरान हूं पहली बार एक नया तर्क आया है कि हमने मांगा नहीं तो आपने दिया क्यों. दहेज हो या तीन तलाक, किसी ने इसके लिए कानून बनाने की मांग नहीं की थी, लेकिन प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक होने के कारण कानून बनाया गया. शादी की उम्र, शिक्षा के अधिकार की मांग किसी ने नहीं की थी, लेकिन कानून बने क्योंकि समाज को इसकी जरूरत थी.
भास्कर ने अपने लेख में बताया है कि –
…प्रधानमंत्री ने जिन कानूनों का उदाहरण दिया उनमें दहेज प्रथा के खिलाफ कानून और बाल विवाह के खिलाफ कानून का भी जिक्र था, लेकिन इसका सच कुछ और है. दोनों कानून लंबे आंदोलनों के बदौलत ही बने हैं. दहेज के खिलाफ कानून के लिए 10 साल आंदोलन चला था.
दहेज प्रथा के खिलाफ पहला कानून (डावरी प्रोहिबिशन एक्ट) 1961 में बना था, पर यह बहुत लचीला था. 1972 में दहेज के खिलाफ कड़े कानून के लिए शहादा आंदोलन शुरू हुआ. 3 साल बाद 1975 में प्रोग्रेसिव ऑर्गनाइजेशन ऑफ वुमन ने हैदराबाद में भी आंदोलन शुरू किया. इसमें 2 हजार महिलाएं शामिल थी. 1977 में इस आंदोलन को दिल्ली की महिलाओं का साथ मिला.
1979 में दिल्ली की सत्यरानी चंदा की बेटी की दहेज के लिए जलाकर हत्या कर दी गई, जिसके बाद उन्होंने कड़े कानूनों के लिए मोर्चा खोल दिया. 1983 में डावरी एक्ट को संशोधित किया गया. इसके तहत दहेज की मांग और दहेज के लिए होने वाली हिंसा की रोकथाम के लिए कानून सख्त किया गया.
बाल विवाह कानून के लिए राजा राममोहन ने की थी मांग. राजा राममोहन राय ने बाल विवाह रोकने के लिए लंबा संघर्ष किया. उनकी मांग थी कि कम उम्र की लड़कियों के विवाह पर रोक लगाई जाए. उनकी मांग पर ब्रिटिश सरकार ने बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम-1929 को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ऑफ इंडिया में पास किया था. तारीख 28 सितंबर 1929 थी.
लड़कियों की शादी की उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल तय की गई. बाद में इसमें संशोधन कर लड़कियों के लिए शादी की उम्र 18 और लड़कों के लिए 21 साल की गई. इसकी पहल करने वाले हरविलास शारदा थे इसलिए इसे ‘शारदा अधिनियम’ के नाम से भी जाना जाता है. आज आपको समझ आ गया होगा कि मोदी जी को फेंकू ऐसे ही नहीं कहा जाता है.
अगर आज लोगो को पचास के दशक का आरएसएस का असली रूप दिखला दिया जाए तो उनकी आंखें फटी की फटी रह जाएगी. कल मोदी जी ने बड़ी शान के साथ संसद में मिथ्यावाचन करते हुए कहा कि ‘शादी की उम्र आदि जैसे कानूनों को बनाने के लिए किसी ने कानून बनाने की मांग नहीं की थी, लेकिन प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक होने के कारण कानून बनाया गया.’
क्या आप जानते हैं कि पचास के दशक में आरएसएस इस प्रगतिशील समाज का सबसे बड़ा विरोधी था !
हम बात कर रहे हैं हिन्दू कोड बिल की. संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल, 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था. यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था, जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी जिंदा रखना चाहते थे. इसका जोरदार विरोध हुआ.
मार्च 1949 से ऑल इंडिया एंटी हिंदू कोड बिल कमेटी सक्रिय थी. करपात्री महाराज के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक, हिंदू महासभा और दूसरे हिंदूवादी संगठन हिंदू कोड बिल का विरोध कर रहे थे. इसलिए जब इस बिल को संसद में चर्चा के लिए लाया गया तब हिंदूवादी संगठनों ने इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू कर दिए.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध-रैलियां आयोजित कीं. महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा दिए जाने, तलाक का अधिकार दिए जाने और स्त्रियों को समानता का अधिकार दिए जाने जैसे प्रावधानों की वजह से हिंदू कोड बिल के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश के कोने-कोने में प्रदर्शन किए.
संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले अखबार ऑर्गनाइजर में 2 नवंबर, 1949 के एक लेख में हिंदू कोड बिल को ‘हिंदुओं के विश्वास पर हमला’ बताया गया – ‘तलाक के लिए महिलाओं को सशक्त करने का प्रावधान हिंदू विचारधारा से विद्रोह जैसा है.’ ऑर्गनाइजर के अनुसार यह बिल परिवारों को तोड़ने वाला और संपत्ति के मामले में भाइयों को बहनों के खिलाफ करने वाला था.
11 दिसंबर, 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आरएसएस ने एक जनसभा का आयोजन किया था, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने बिल की निंदा की. एक वक्ता ने इसे हिंदू धर्म पर परमाणु बम गिराने की बात कही. दूसरे ने इसकी औपनिवेशिक सरकार द्वारा लादे गए कठोर रॉलेट एक्ट कानून से तुलना की. उसका कहना था कि जैसे वह कानून ब्रिटिश सरकार के पतन का कारण बना, उसी तरह बिल के खिलाफ आंदोलन नेहरू के सरकार के पतन का कारण बनेगा.
अगले दिन आरएसएस के कार्यकर्ताओं के एक दल ने संसद के लिए मार्च निकाला. ये लोग हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद, पंडित नेहरू मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे. प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री और डॉ. अंबेडकर के पुतले जलाए और शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ भी की. स्वामी करपात्री महाराज जो बिल के एक धुर विरोधी नेता थे, ने डॉ. अंबेडकर पर जातिगत टिप्पणियां कीं और कहा कि ‘एक पूर्व अछूत को उन मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है, जो साधारणतः ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित हैं.’
तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने तो अगस्त, 1949 के अपने एक भाषण में कहा भी कि ‘आंबेडकर जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, वे भारतीयता से बहुत दूर हैं. इस देश में विवाह और तलाक जैसे सवाल अमेरिकी या ब्रिटिश मॉडल से नहीं सुलझेंगे. हिंदू संस्कृति और कानून के अनुसार, विवाह एक संस्कार है, जिसे मृत्यु बाद भी बदला नहीं जा सकता. यह कोई ‘अनुबंध’ नहीं है.’
उसी दौरान एक साक्षात्कार में संघ के तत्कालीन मुखिया माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि हिंदू कोड राष्ट्रीय एकता और एकसूत्रता की दृष्टि से पूर्णत: अनावाश्यक है. उनका ये भी कहना था कि स्थानीय रीति-रिवाजों को सभी समाजों द्वारा मान्यता प्रदान की है.
इस भयंकर विरोध के कारण उस वक्त यह कानून लाया नही जा सका. बाद में 1955 में नेहरू ने असली बिल को कई भागों में बांट दिया था. और 1955 में इसके पहले भाग – ‘हिंदू मैरिज एक्ट’ – को बहुमत से पारित करवाकर उन्होंने इस पर कानून बनवा दिया. यह है इनकी प्रगतिशीलता की असलियत.
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