समय के घुंघराले बालों में
जूंएं बीनते हुए
कभी कांपीं नहीं
उंगलियां मेरी
वीभत्स का उपचार
क्षणिक आवेश में नहीं होता
आदमी जब
लुढ़क जाता है सतह पर
भुने हुए चने की तरह
रौंदें जाने का डर
सबसे ज़्यादा उसी समय होता है
दांत पीसने की ह्रिंसता ज़रूरी है
भोजन को सुपाच्य बनाने के लिए
ऐसे में
तुम्हें टुकड़ों में हासिल करना
एक मात्र अभिप्राय रह जाता है
मेरे जीवन का
पीछे लौटते हुए
यही जिजीविषा दे जाती है
आगे बढ़ने का एहसास
इन दिनों
ठंढी मौत का बाज़ार
गर्म है
हो सके तो
मेरी विस्मृति के बर्फ़ को
चादर सा ढंक लो
कभी दुबारा गर मिले
तो चौंक जाएँगे
एक दूसरे को
ज़िंदा पा कर हम
उस दिन शायद
एक शब्द भेदी सन्नाटा
पा जाए अपना मुक़ाम !
- सुब्रतो चटर्जी
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