समय

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कविता के लिए यह कठिन समय है
जो समय आदमी के लिए
जितना कठिन होगा
वह समय कविता के लिए भी
उतना ही कठिन होता है

कविता को
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए
अब सीधी लड़ाई में उतरनी होगी
खुले मैदान में
भारी भरकम शब्दों और विंबों के दरवाज़ों के पीछे छुपकर
मानसिक मैथुन का सुख पाने का समय नहीं है यह
लिजलिजे भावों की चांदनी को
झील में उतारकर

अपने पुराने, भावशून्य चेहरे को
बार बार देखने का समय नहीं है यह
प्रेम की परिभाषा बदल गई है
प्रेम जितना बड़ा होगा
तुम्हारा शयनकक्ष उतना ही छोटा पड़ता जाता है

याद रखो अस्तित्व की लड़ाई हमेशा
खुले में लड़ी जाती है
खुले आसमान के नीचे
खुले मैदान में
नंग धड़ंग
पृथ्वी पर आये पहले आदमी की तरह
जिसके पास घर नहीं था
भाषा नहीं थी
रेशमी लिबास नहीं था
उसकी प्रेमिका भी नहीं थी कोई
लेकिन वह कविता लिखता था
पूरी सृष्टि से लड़ते हुए
तुम्हारे लिए, हमारे लिये, किसी  के लिये नहीं
कविता किसी के लिये नहीं होती
लेकिन, सबके लिए होती है
पंचतत्व की तरह.

  • सुब्रतो चटर्जी

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