शोषक सत्ता का सबसे खूंखार दमनकारी चेहरा भी होता है. वह जनता का शोषण ही नहीं करता बल्कि उसकी चीख न निकल जाये इसके लिए वह उसके मूंह को कस कर बांध देना चाहता है. इससे भी आगे वह जो करता है वह और भी विभत्सकारी है. वह जनता की चीख को आनंद में बदलने के लिए बड़े-बड़े ढ़ोल नगाड़ों को बजाने वाले भांड को चारों ओर खड़ा कर देता है. भारत की जनता के साथ भी भारत की यह शोषण-दमनकारी राजसत्ता यही कर रही है.
भारत के जनता की चीख को सबसे ऊंचाई तक पहुंचाने का काम करती है साहित्य. इस साहित्य के दायरे में आती है पत्रिका, अखबार, पुस्तकें, पर्चे. इसी कड़ी में भारत के जनता की सबसे उन्नत और सच्ची आवाज थी कोलकाता से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका – ‘पीपुल्स मार्च.’ यह पत्रिका एक साथ पांच भाषाओं में प्रकाशित होती थी. सबसे अनोखी बात इस पत्रिका के साथ यह थी कि इसके तमाम लेख अन्य भाषाओं में अनूदित किया जाता था, ताकि दूसरे भाषा के पाठक उसके हर लेख को अपनी भाषा में पढ़ सके.
कहना न होगा, भारत के जनवादी बुद्धिजीवियों ने अपनी जिस उन्नत वैचारिक दृढता का परिचय देते हुए इस पत्रिका को निकालना शुरु किया था और लोगों ने इसे हाथोंहाथ लिया था, भारत की यह शोषण-दमनकारी सरकार ने उसे कुचलने में भी उसी क्रूरता का परिचय दिया था. बार-बार इस पत्रिका के दफ्तर से सम्पादकों को उठाकर जेलों में डाला गया, उनकी हत्या तक कर दी गई. और अंत में इस पत्रिका को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया. यानी, शासकों ने अपने दिखावटी लोकतंत्र का भी नकाब उतार फेंका और ढ़ोल नगाड़े बजाने की लिए भांड (दलाल मीडिया) खड़े कर दिये.
ऊपर आप जिन तस्वीर को देख रहे हैं, वे ही हैं क्रांतिकारी पत्रिका पीपुल्स मार्च (People’s March) के संपादक पी. गोविंदनकुट्टी, जिन्हें 2007 में UAPA के तहत केरल में गिरफ्तार किया गया था. बेल होने से पहले उन्हें 2 माह जेल में रहना पड़ा था. अपनी गैरकानूनी हिरासत को लेकर उन्हें जेल में भूख हड़ताल भी करनी पड़ी थी. तब से लेकर आज करीब 17 साल हो गए और पुलिस इस मामले में अभी तक चार्जशीट तक दाखिल नहीं कर पाई है. लेकिन उनकी मुस्कुराहट इस दमनकारी सत्ता को सदैव चिढ़ाती रहेगी.
‘पीपुल्स मार्च – भारतीय क्रांति की आवाज़’ के नाम से निकलने वाली इस क्रांतिकारी पत्रिका के सभी अंक भारत में प्रतिबंधित कर दिये गए. पीपुल्स मार्च, 1999 में पहली बार प्रकाशित होने के बाद से ही भारत में माओवादी क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में एक दिलचस्प और जानकारीपूर्ण प्रकाशन रहा है. इसे पत्रकार पी. गोविंदन कुट्टी ने शुरू से लेकर 2012 तक संपादित और प्रकाशित किया, जब लगातार सरकारी उत्पीड़न और खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें इसे बंद करना पड़ा. हालांकि, अज्ञात संपादकों द्वारा जारी किए गए नए इंटरनेट संस्करण के रूप में एक नई श्रृंखला जून 2014 में दिखाई देने लगी.
हमें पीपुल्स मार्च और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) या किसी अन्य संगठन के बीच संबंध या संबंध न होने के बारे में कोई जानकारी नहीं है. इस पत्रिका ने स्पष्ट घोषणा किया था कि वह अपने इन सामग्रियों को भारत में क्रांतिकारी संघर्ष पर उपयोगी स्रोतों के रूप में पोस्ट करते हैं, लेकिन सीपीआई (माओवादी) के विचारों का प्रतिनिधित्व करने के रूप में नहीं, सिवाय उन हस्ताक्षरित और सीपीआई (माओवादी)-संदर्भित बयानों के, जो इसमें दिखाई देते हैं।
गोविंदन कुट्टी का मूल ‘पीपुल्स मार्च’ पहले सिर्फ़ मुद्रित रूप में और फिर मुद्रित और ऑनलाइन डिजिटल दोनों रूपों में प्रकाशित हुआ. इसकी वेबसाइटें http://peoplesmarch.googlepages.com और http://peoples-march.blogspot.com थीं.
2007 के दौरान भारत सरकार ने पत्रिका के ऑनलाइन संस्करण पर प्रतिबंध लगा दिया और पीपुल्स मार्च से जुड़ी इन और अन्य वेबसाइटों को बंद करने या तोड़फोड़ करने की नीचतापूर्ण कोशिश की. साथ ही भारत में माओवादी विचारों या गतिविधियों पर रिपोर्टिंग करने वाली अन्य वेबसाइटों को भी बंद करने की कोशिश की. फिर, 19 दिसंबर, 2007 को पी. गोविंदन कुट्टी की गिरफ्तारी के साथ इस दमन अभियान को एक कदम और आगे बढ़ाया गया.
अंत में, भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस गिरफ्तारी के बारे में बहुत आक्रोश के बाद गोविंदन कुट्टी को 24 फरवरी, 2008 को रिहा कर दिया गया, और उस समय उन्होंने एक बयान दिया थाः .दुर्भाग्य से उनके खिलाफ आरोप अभी भी लंबित थे और वे डेढ़ साल से अधिक समय तक पीपुल्स मार्च का प्रकाशन फिर से शुरू नहीं कर पाए. हम ऐसे घोर फासीवादी उपायों का पूरी तरह से विरोध करते हैं जो प्रगतिशील विचारों को जबरन दबाने का प्रयास करते हैं और जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता का घोर उल्लंघन करते हैं.
2008 के मध्य में पी. गोविंदन कुट्टी ने निजी तौर पर प्रसारित करने के लिए पीपुल्स ट्रुथ नाम से एक बुलेटिन जारी करना शुरू किया. हालांकि, इस बुलेटिन में बहुत सारी अच्छी जानकारी थी, जिसमें पीपुल्स मार्च के दमन और गोविंदन कुट्टी के निरंतर सरकारी उत्पीड़न के बारे में और जानकारी शामिल थी. इस कारण से हमने भी इस बुलेटिन को व्यापक दर्शकों के लिए उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया है.
अगस्त 2009 में हमने गोविंदन कुट्टी से सुना कि वे एक लंबी अपील प्रक्रिया के बाद पीपुल्स मार्च को प्रतिबंधित करने वाला आदेश हटा लिया गया था. यह बहुत अच्छी खबर थी. हालांकि, अभी भी एक लंबा समय था जब कुट्टी को पत्रिका को छापने का जोखिम उठाने के लिए तैयार प्रिंटर नहीं मिला. हमारा मानना है कि अक्टूबर 2009 की तारीख वाले फिर से शुरू किए गए प्रकाशन का पहला अंक केवल इंटरनेट के माध्यम से वितरित किया जा सका. अंत में, नवंबर 2009 के अंक से शुरू होने वाला एक प्रिंटर मिला. 16 नवंबर, 2009 को हिंदुस्तान टाइम्स की समाचार रिपोर्ट देखें.
दमन के बाद की पत्रिका के अंक उपलब्ध हैं. सरकार की ओर से पत्रिका पर फिर से प्रतिबंध लगाने की धमकियां दी जा रही थीं और वास्तव में कोलकाता में इस पत्रिका का बंगाली संस्करण प्रकाशित करने वाले स्वप्न दासगुप्ता को अक्टूबर 2009 की शुरुआत में, पत्रिका पर प्रतिबंध हटाए जाने के कुछ महीने बाद ही गिरफ़्तार कर लिया गया था.
2009 के अंत तक दासगुप्ता और दो अन्य अभी भी जेल में रहे. इससे भी बदतर बात यह है कि स्वप्न दासगुप्ता के साथ बुरा व्यवहार किया गया और उनकी चिकित्सा स्थितियों के लिए उन्हें पर्याप्त उपचार देने से मना कर दिया गया. इस कारण 2 फरवरी, 2010 को पुलिस हिरासत में रहते हुए उनकी मृत्यु हो गई.
प्रेस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लोगों को न सिर्फ़ पीपुल्स मार्च की प्रतियां रखने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है, यहां तक कि उनके अपने घरों में भी रखने पर भी गिरफ्तार किया गया. भारत में पीपुल्स मार्च को रखना या वितरित करना लोगों के लिए अभी भी जोखिम भरा है, भले ही यह आधिकारिक तौर पर फिर से एक वैध प्रकाशन है.
‘पीपुल्स मार्च’ जैसी क्रांतिकारी और लोगों के पीड़ाओं को अपनी आवाज देने वाली पत्रिका और उसके सम्पादकों के खिलाफ जिस तरह भारत सरकार नाजायज हरकतें कर रही है, उसके खिलाफ देश की जनता को इस पत्रिका के पक्ष में खड़े होकर आवाज बुलन्द करने की जरूरत है.
- महेश सिंह
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