पिछले दिनों समाचार एजेंसी ‘स्क्रॉल’ द्वारा प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार असम में आधार नंबर और राशन कार्ड को जोड़ने से 15 लाख से अधिक आबादी के लिए ज़रूरी खाद्य पदार्थों का बड़ा संकट खड़ा हो गया है. ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ से नाम बाहर होने के कारण असम के नागरिकों के लिए आधार कार्ड बनवाना एक बहुत मुश्किल काम हो गया है और आधार कार्ड के अभाव में राशन डिपो से ज़रूरी राशन पाने में दिक़्क़त हो रही है.
2017 में, असम सरकार ने नए आधार कार्ड के पंजीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी. उस समय, केवल सात प्रतिशत लोग ही इस 12-अंकीय विशेष पहचान संख्या को प्राप्त कर पाए थे. यह रोक लगाने का कारण उस समय की सरकार ने बताया था कि असम अपने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में ज़रूरी संशोधन कर रहा था. असम में बहुत लंबे समय से ‘अवैध’ प्रवास का मुद्दा गरमाया रहा है. भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़े अन्य दक्षिणपंथी संगठन लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि असम में करीब 80 लाख अवैध बंगाली प्रवासी रह रहे हैं. ये दक्षिणपंथी ताक़तें ख़ासतौर पर मुस्लिम आबादी को निशाना बना रही हैं.
उनका आरोप है कि असम में बेरोज़गारी का मुख्य कारण ये प्रवासी मज़दूर हैं, जो यहां के आम नागरिकों का रोज़गार छीन रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का पहला मसौदा सामने आने के बाद यह संख्या 80 लाख से घटकर 19 लाख रह गई. और इस 19 लाख में से भी सिर्फ़ 5 से 6 लाख के करीब आबादी ही मुसलमानों की है. असम की भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की दुबारा जांच के लिए याचिका दायर की है.
उनका मानना है कि यह संख्या 19 लाख से कहीं ज़्यादा है. इस प्रक्रिया को रोकने से अब करीब 27 लाख से ज़्यादा लोगों के आवेदन ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं. इतनी बड़ी आबादी को आधार कार्ड ना मिलना, उनके लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर रहा है. आधार कार्ड ना केवल एक पहचान पत्र है, बल्कि ज़रूरी सेवाएं जैसे बैंक, सरकारी योजनाओं, मनरेगा आदि का लाभ उठाने के लिए एक ज़रूरी दस्तावेज़ भी बना दिया गया है. इसके अभाव में असम का एक बड़ा तबक़ा ज़रूरी सुविधाओं से वंचित हो गया है.
इसकी सबसे बड़ी मार मज़दूर आबादी पर पड़ रही है. असम के खाद्य आपूर्ति विभाग के आंकड़ों के मुताबिक़ 15 लाख ज़रूरतमंद नागरिकों के पास राशन कार्ड की सुविधा नहीं है. राशन कार्ड के अभाव में उन्हें अपनी भोजन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए रोज़ाना मज़दूरी पर निर्भर रहना पड़ता है. उन्हें कमाई का एक बड़ा हिस्सा खाने पर ख़र्च करना पड़ता है. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर किए गए 19 लाख लोगों में से 70 फ़ीसदी महिलाएं हैं. महिलाओं के बिना आदिवासी, घुमंतू क़बीले और अनाथ बच्चे इस प्रक्रिया के सबसे अधिक प्रभावित होने वाला तबक़ा हैं.
नागरिक संशोधन क़ानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का स्वरूप शुरू से ही अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुस्लिम विरोधी रहा है. नागरिक संशोधन क़ानून तीन देशों – अफ़ग़ानिस्तान, बांगलादेश और पाकिस्तान से आए अल्पसंख्यकों, जिनमें सिख, हिंदू, बौद्ध, जैनी, पारसी आदि शामिल हैं, को नागरिकता प्रदान करता है. यह क़ानून इन देशों से आए मुसलमानों और तिब्बत, श्रीलंका, म्यांमार से उजड़ कर आए शरणार्थियों को नागरिकता देने के सवाल पर खामोश है.
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह क़ानून मुसलमानों के लिए ‘घुसपैठिया’ और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए ‘शरणार्थी’ शब्द का इस्तेमाल करता है. ये दो शब्द बनाए ही इसलिए गए हैं, ताकि लोगों में फूट डालकर एक ख़ास समुदाय के लोगों को नागरिकता से वंचित किया जा सके. असम में नागरिकों को अपनी नागरिकता साबित करने में सबसे ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है.
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के अलावा, असम में विदेशी ट्रिब्यूनल भी हैं, जो अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए काम करते हैं. जिनका नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नहीं होता, उन्हें अपनी नागरिकता ट्रिब्यूनल के सामने साबित करनी पड़ती है, जो और भी अधिक कठिन प्रक्रिया है. उसके बाद भी, किसी का नाम अचानक चुनाव आयोग की ‘संदिग्ध विदेशियों’ की सूची में आ सकता है. ‘संदिग्ध विदेशियों’ को ‘डी’ मतदाता सूची में डाल दिया जाता है. ऐसा नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से दुबारा हटाया जा सकता है.
नागरिकता संशोधन क़ानून की मूल समझ मुस्लिम विरोधी है. इस क़ानून का मुख्य उद्देश्य भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को लागू करना और भारत में मुसलमानों के जनवादी और नागरिक अधिकारों को ख़त्म करना है. आर.एस.एस. के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार इसे बड़े स्तर पर लागू करने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में बंदी शिविर बना रही है. एक अनुमान के मुताबिक़ असम के छः बंदी शिविरों में एक हज़ार से ज़्यादा लोग ठूंसे हुए हैं.
मई 2019 में, भारत की सर्वोच्च अदालत ने फ़ैसला सुनाया कि तीन साल से अधिक समय बंदी शिविर में बिता चुके कै़दियों को रिहा किया जाए लेकिन आधे से ज़्यादा बंदी अब भी जबरन कैंपों में रखे हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक और फ़ैसला भी दिया है, जो आम ग़रीब तबके़ के ख़िलाफ़ जाता है. इसके मुताबिक़ किसी भी कै़दी को एक लाख का बॉन्ड भरकर छोड़ा जा सकता है. अपनी आज़ादी के लिए इतनी बड़ी क़ीमत चुकाना आधी से ज़्यादा आबादी के लिए सपना ही है.
पिछले समय में आई कुछ रिपोर्टों के अनुसार, राष्ट्रीय नागरिक सूची बनाने की कवायद एक फ़िज़ूलख़र्ची है और लोगों में फूट डालने के अलावा और कुछ नहीं है. राष्ट्रीय नागरिक सूची बनाने पर करीब 1300 करोड़ रुपए ख़र्च किए जा चुके हैं. इसके अलावा विदेशी ट्रिब्यूनल के सामने अपनी नागरिकता साबित करने के लिए असम के लोगों ने 8 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च किए हैं.
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और नागरिकता संशोधन क़ानून ना केवल असम के लोगों के लिए ख़तरनाक है, बल्कि भविष्य में यह पूरे भारत के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की एक घटिया साजिश है. जिस तरह कोई भी क़ानून शून्य से पैदा नहीं होता, उसके पीछे कुछ गहरे कारण होते हैं, उसी तरह ये क़ानून भी मरते हुए पूंजीवाद को बचाने के लिए पैदा होते हैं.
इस तरह के क़ानूनों का उद्देश्य लोगों की जीवन-हालतों को मुश्किल बनाने वाले कारणों को छिपाकर लोगों के सामने एक भ्रामक स्थिति पैदा करना होता है, ताकि वे असल कारणों को देखने के काबिल ना हो सके लेकिन इन परिस्थितियों में प्रत्येक ज़िम्मेदार नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे जनविरोधी क़ानूनों का पुरज़ोर विरोध करे ताकि एक सुनहरे भविष्य का निर्माण किया जा सके.
- गुरमन (मुक्ति संग्राम से)
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