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पेले : अलविदा फुटबॉल के जादूगर !

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राम अयोध्या सिंह

कोई कितना भी महान हो, धरती पर जो आता है, एक दिन सब कुछ छोड़कर चला ही जाता है. महान लोग अपनी महान उपलब्धियों को विरासत के रूप में अपने बाद की पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में छोड़ जाते हैं. अपने क्षेत्र में उनकी महान भूमिका और योगदानों को हम अपनी स्मृतियों में हमेशा के लिए संचित कर लेते हैं. दुनिया में हर क्षेत्र में न जाने कितनी बड़ी-बड़ी हस्तियां आईं और अपने विशिष्ट गुणों से हम सबको अनुप्राणित कर सदा के लिए हमसे दूर हो गईं.

ऐसे ही एक प्रेरणा पुरुष फुटबॉल के बेताब बादशाह ब्राजील के एडसन अरान्टेस डो नासिमेंटो उर्फ पेले थे, जिन्होंने महज 16 साल की उम्र में ब्राजील की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम में अपनी जगह बनाई और 17 साल में ही न सिर्फ अपने देश की तरफ से फुटबॉल विश्व कप स्वीडन में भाग लिया, बल्कि अपने करिश्माई और कलात्मक खेल से पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दिया. फाइनल में किए गए उनके तीन गोल आज भी विश्व रिकॉर्ड हैं. रक्षक के सिर के ऊपर से बॉल को पार करते हुए जिस तरह से उन्होंने गोल किया था, उसे आजतक के विश्व कप का सबसे बेहतरीन गोल माना जाता है. विश्व फुटबॉल का यह नायाब सितारा हमेशा के लिए आंखों से ओझल हो गया.

खेल में अपने पदार्पण के साथ ही पेले ने अपनी कलात्मकता, तकनीक की नवीनता और जादूई टच से दुनिया में फुटबॉल के खेल को नई ऊंचाइयां दीं, और वैश्विक स्तर पर इसे लोकप्रिय बनाने में महती योगदान दिया. खेल की उनकी कलात्मक शैली ने फुटबॉल के खेल को ग्लैमर भी दिया. यूरोपिय देशों की तरह उन्होंने फुटबॉल को सिर्फ शारीरिक खेल न रहने दिया, बल्कि उसे मानसिक और कला के स्तर तक पहुंचा दिया.

उनके करिश्माई खेल को देखकर लोग कह उठते – वाह ऐसा भी होता है फुटबॉल का खेल ! वे एक साथ शरीर और दिमाग दोनों से फुटबॉल खेलते थे. विपक्षी की चालों को पहले से ही भांपकर उनके खिलाफ रणनीति बनाने की कला के पेले माहिर थे. उनके द्वारा ईजाद किया गया बाइसिकिल किक लोग कभी भी नहीं भूल सकते. 1962 के फुटबॉल विश्व कप में वे दो मैच के बाद ही घायल होकर पूरे विश्व कप के लिए बाहर हो गए थे, फिर भी वे टीम के लिए प्रेरणास्रोत बने रहे और ब्राजील दो विश्व कप जीतने वाला एकमात्र देश आज भी है.

1966 में ब्रिटेन में खेला गया विश्व कप उनके लिए एक दु:स्वप्न ही साबित हुआ था. यूरोपीय देशों के लिए सबसे बड़ा कांटा बने पेले ही उनके निशाने पर थे. यूरोपीय खिलाड़ी फुटबॉल को नहीं, पेले को निशाना बना रहे थे. अंततः नतीजा हुआ कि पेले को मैदान से स्ट्रेचर पर बाहर जाना पड़ा, और फिर पूरे विश्व कप के दौरान वे मैदान पर आने लायक नहीं हो सके. एक बार तो उन्होंने फुटबॉल से रिटायरमेंट का भी फैसला कर लिया था. पर फुटबॉल के प्रति अपनी जूनून और राष्ट्रहित को देखते हुए उन्होंने फैसला वापस ले लिया. मैक्सिको में संपन्न हुए 1970 का विश्व कप उनके खेल जीवन का सर्वोच्च शिखर था. यहां उन्होंने गैरिंचा के बिना ही 1958 के बाद पहली बार खेला, और ब्राजील को तीसरी बार जूमे रिले कप से नवाजा.

पेले के दिमाग में हमेशा खेल की तीन चालें साथ-साथ होती थीं. प्रतिद्वंद्वी के लिए उनकी चालों को भांपना असंभव ही होता था. 1970 के विश्व कप में इंग्लैंड के कप्तान और रक्षक बाबी मूर के लिए पेले को रोकना ही सबसे बड़ी समस्या थी. इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की थी. लेकिन, मैदान पर सब कुछ उल्टा ही हुआ. पेले भी यह जानते थे कि बाबी मूर की प्राथमिकता उन्हें ही रोकना है. इसके लिए उन्होंने अपनी अलग चाल सोच लिया था.

वे बाबी मूर से सीधे टकराने के बदले उनसे बचकर निकल जाने की रणनीति के साथ मैदान पर उतरे थे. मूर के नजदीक पहुंचते ही पेले बॉल को मूर के पैर पर जोर से मारते थे, जिससे बॉल पैर से छिटक कर उनकी पहुंच से दूर चला जाता था और पेले बॉल लेकर आगे बढ़ जाते थे. पहले तो बाबी मूर को लगा कि यह महज संयोग है. पर, जब वैसा ही बार-बार होने लगा, तब उनकी समझ में आया कि नहीं, यह तो पेले की नई चाल है, जिससे वे बार-बार मात खा रहे हैं. उनके मुंह से अनायास ही निकला कि ऐसा सिर्फ पेले ही कर सकता है.

ब्राजील की राष्ट्रीय टीम के साथ खेलते हुए पेले ने 114 मैच में 95 गोल किए थे, और अपने फुटबॉल कैरियर में कुल मिलाकर 1281 गोल किए थे. तीन विश्व कप ब्राजील के लिए जीते. फुटबॉल के खेल में पेले ने वह सब कुछ प्राप्त किया, जिसकी तमन्ना किसी भी खिलाड़ी की हो सकती है. वे आंकड़ों से ऊपर थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि फुटबॉल के खेल को जैसी प्रतिष्ठा पेले ने दिलाई, वह अपने आप में उनका सबसे बड़ा योगदान है.

सबसे बड़ी बात थी उनका इंसान होना, जिसे वे अपने जीवन भर संभाले रहे. इंसान और इंसानियत को उन्होंने कभी भी नहीं भूलाया. यह सिर्फ पेले ही कर सकते थे, जब अफ्रीका के दो युद्धरत राज्य पेले का खेल देखने के लिए युद्धविराम पर राजी हो गए थे. सच तो यही है कि पेले को फुटबॉल से जितना मिला, उससे अधिक पेले ने फुटबॉल को लौटा दिया. पैसे की लालच में पेले ने कभी किसी यूरोपीय देश के क्लब से नहीं खेले, जबकि यूरोपीय देशों के सारे क्लब इसके लिए उन्हें मुंह मांगी रकम देने को तैयार थे.

फुटबॉल की बिना पर ही वे व्यापार, समाजसेवा और राजनीति में भी सफल पाली खेल सके. खेल की दुनिया का ऐसा कोई भी सम्मान नहीं है, जिसे पेले ने प्राप्त नहीं किया था. अमेरिका में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने के लिए पेले जब कास्मस क्लब से खेलने के लिए अमेरिका पहुंचे थे, तब अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन खुद पेले की आगवानी करने आए, और स्वयं ही हाथ आगे बढ़ाकर हाथ मिलाया था. इसी तरह जब पेले इटली में पोप से मिले, तो पोप ने स्वयं ही यह कहा – ‘मि. पेले, आप नर्वस न हों, नर्वस तो मैं हो रहा हूं कि मेरे सामने खुद पेले खड़े हैं.’

पेले के पहले भी फुटबॉल के खिलाड़ी थे, बाद में भी आए, और आगे भी आते रहेंगे. पर, फुटबॉल को जो गरिमा, सम्मान और लोकप्रियता पेले ने दिलवाई, वैसा न पहले किसी ने किया और न उनके बाद कोई करेगा. फुटबॉल भी उनके बुट की चोट खाकर मुस्कुराता होगा, और उनके पैरों से बार-बार उलझने की कोशिश करता होगा कि एक बार और पेले के बुट की चोट उसे लगे. फुटबॉल के खेल का पूरा परिदृश्य ही उन्होंने बदल दिया. आज का फुटबॉल जिन ऊंचाईयों को छू रहा है, और आगे भी जहां तक जाएगा, उसकी पृष्ठभूमि और आधारशिला का निर्माण पेले ने ही किया है.

पेले के जाने से दुनिया भर के राजनेता, खेल अधिकारी, खेल संगठन, खिलाड़ी और आपके शुभचिंतकों के साथ ही साथ आज फुटबॉल भी रो रहा होगा, जिसके साथ आपका नाम हमेशा के लिए जुड़ा रहेगा. आप फुटबॉल के बादशाह थे, खेल के जादूगर थे, दुनिया में खेल के राजदूत थे और फुटबॉल के खेल में कला के देवदूत थे. वे विश्व फुटबॉल की ताज में जड़े कोहिनूर हीरा थे. फुटबॉल के खेल में आपकी नैसर्गिक प्रतिभा और कलात्मक खेल शैली दुनिया वालों के जेहन में हमेशा के लिए यादगार बनकर रहेगा. अलविदा फुटबॉल के जादूगर.

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